रुपचतुर्दशी
( बहुसम्मत ) -
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तमें - जिस दिन चन्द्रोदयके समय चतुर्दशी हो उस दिन प्रभात समयमें दन्तधावन आदि करके ' यमलोकदर्शनाभावकामोऽहमभ्यङ्गस्त्रानं करिष्ये ।'
यह संकल्प करे और शरीरमें तिलके तेल आदिका उबटन या मर्दन करके हलसे उखड़ी हुई मिट्टीका ढेला, तुम्बी और अपामार्ग ( ऊँगा ) - इनको मस्तकके ऊपर बार - बार घुमाकर शुद्ध स्त्रान करे । यद्यापि कार्तिकस्त्रान करनेवालोंके लिये
' तैलाभ्यङ्गं तथा शय्यां परान्नं’
तैलाभ्यङ्गः वर्जित किया है, किंतु
' नरकस्य चतुर्दश्यां तैलाभ्यङ्गं च कारयेत् ॥ अन्यत्र कार्तिकस्त्रायी तैलाभ्यङं विवर्जयेत् ॥'
के आदेशसे नरकचतुर्दशी या ( रुपचतुर्दशी ) को तैलाभ्यङ्ग करनेमें कोई दोष नहीं । यदि रुपचतुर्दशी दो दिनतक चन्द्रोदयव्यापिनी हो तो चतुर्दशीके चौथे प्रहरमें स्त्रान करना चाहिये । इस व्रतको चार दिनतक करे तो सुख - सौभाग्यकी वृद्धि होती है ।