सुकर्मन् n. एक पापी पुरुष, जिसकी कथा गीता के दूसरे अध्याय के पठन का माहात्म्य कथन करनेस के लिए पद्म में दी गयी है
[पद्म. उ. १७२] ।
सुकर्मन् II. n. (सो. वृष्णि) यादव राजा श्र्वफल्क के पुत्रों में से एक
[भा. ९.२४, १६] ।
सुकर्मन् III. n. रुद्रसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण ।
सुकर्मन् IV. n. रौच्य मन्वंतर का एक देवगण ।
सुकर्मन् V. n. एक आचार्य, जो विष्णु एवं भागवत के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से जैमिनि नामक आचार्य का, वायु के अनुसार सुत्वन् का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार सुन्वत् नामक आचार्य का शिष्य था । इसने सामवेद की कुछ एक सहस्त्र शाखाएँ तैयार की, एवं वे उदीच्य दिशा से आये हुए पाँच सौ, एवं पूर्व दिशा के से आये हुए पाँच सौ शिष्यों में बाँट दी । यह अनध्याय के दिन में भी अपने शिष्यों को संहिताओं के पाठ सिखाता था, जिस कारण क्रुद्ध हो कर इंद्र ने इसके सारे शिष्यों का वध किया । पश्चात् इसने प्रायोपवेशन कर इंद्र को प्रसन्न किया । फिर इंद्र ने इसके सारे शिष्य पुनः जीवित किये, इतना ही नही, उसने इसे हिरण्यनाभ एवं पौष्यंजि नामक दो नये शिष्य भी प्रदान किये
[ब्रह्मांड. २.३५.३२] ।
सुकर्मन् VI. n. युधिष्ठिर की राजसभा में उपस्थित एक क्षत्रिय
[म. स. ४२३] । पाठभेद (भांडारकर संहिता) - ‘सुशर्मन्’।
सुकर्मन् VII. n. कुरुक्षेत्र का एक ब्राह्मण, जिसकी कथा ‘मातृपितृमाहात्म्य’ कथन करने के लिए पद्म में दी गयी है । इसने अपने मातापिताओं की सेवा कर, ‘सर्ववश्यता’ नामक सिद्धि प्राप्त की थी । इसी सिद्धि के बल से इसने दशारण्य में उग्र तपस्या करनेवाले पिप्पलाद काश्यप नामक ऋषि का गर्वहरण किया
[पद्म. भू. ६१-६६,८४] ।
सुकर्मन् VIII. n. एक स्कंद-पार्षद, जो विधातृ के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में से एक था । दूसरे पार्षद का नाम सुव्रत था ।