अनिष्टहर ग्रहणव्रत
( वसिष्ठ - भृगुसंहिता ) - जिसके जन्म - नक्षत्र - ( या राशि- ) पर स्थित हुए सूर्य या चन्द्रमाका ग्रहण हो तो उससे उस राशिवाले नगर, ग्राम या मनुष्योको पीड़ा होती है । अथवा जिस राजाके २ राज्याभिषेकके नक्षत्रपर ग्रहण हो उस राजा और राज्यका ह्लास होता है, अतः इस निमित्त सुवर्णके सर्पको तिलोंसे भरे हुए ताँबेके पात्रमें रखकर गन्ध, पुष्प आदिसे पूजन करे और वस्त्र आदिसे भूषित करके श्रोत्रिय ब्राह्मणको दे । उस समय
' ततोमय महाभीम सोमसूर्यविमर्दन । हेमनागप्रदानेन मम शान्तिप्रदो भव ॥'
इस मन्त्नसे प्रार्थना करे और सूर्यग्रहणमें सोनेके तथा चन्द्रग्रहणमें चाँदीके वृत्ताकर बिम्बका गन्धाक्षतसे पूजन करके दान करे तो उपरागजनित सभी संताप शान्त होते हैं ।
१. यस्यैव जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ ।
तज्जातानां भवेत् पीडा ये नराः शान्तिवर्जिताः ॥ ( वसिष्ठ )
२. यस्य राज्यस्य नक्षत्रे स्वर्भानुरुपरज्यते ।
राज्यभङ्गं सुहन्नाशं मरणं चात्र निर्दिशेत् ॥ ( भृगुसंहिता )
३. सुवर्णनिर्मितं नागं सतिलं ताम्रभाजनम् ।
सदक्षिणं सवस्त्रं च श्रोत्रियाय निवेदयेत् ॥ ( दैवज्ञमनोहर )
४. सौवर्णं राजतं वापि बिम्बं कृत्वा स्वशक्तितः ।
उपरागोद्भवक्लेशच्छिदे विप्राय कल्पयेत् ॥ ( दैवज्ञमनोहर )