मौनव्रत
( शिवधर्म ) - इसके निमित्त चन्दनकी शिवमूर्ति ( अण्डाकार शिवलिङ्ग ) बनवावे । उसका गोमय, गोमूत्र, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत और गोलोचन नामकी औषधके जलसे प्रोक्षण करे । फिर शिव मन्दिरके शान्तिकारी एकान्तस्थानमें शुभासनपर बैठकर सुगन्धयुक्त गन्ध, पुष्प, गोरोचन, धूप, दीप, नैवेद्य और नीराजनादिसे पूजन करके हाथ, पैर और मस्तकको भूमिमें लगाकर प्रणाम करे । यदि सामर्थ्य हो तो मन्दिरके मध्य भागमें शिवजीके आगे सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, काँसी और लौह - इनमेंसे किसी भी धातुका या सबके यथोचित योगका विजयघंट बनवाकर लगावे । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको घी, सज्जी और मण्डक ( रोटीविशेष ) का भोजन करवाकर दक्षिणा दे और चन्दनकी उक्त मूर्तिको ताम्रपात्रमें स्थापित कर मस्तकपर धारण करके घर आवे और वहाँ उसको मध्यस्थ देवके दक्षिण भागमें प्रतिष्ठित करके गन्ध - पुष्पादिसे पुनः पूजन करे । इसके बाद काम - क्रोधादिका त्याग करके स्थिरासनसे उपविष्ट होकर ( भलीभाँति बैठकर ) ' मौनव्रत ' धारण करे । उस अवस्थामें किसी प्रकारके शब्द - संकेत या बातचीतको सुनकर ' हाँ - हाँ, हूँ - हूँ ' - जैसे ( स्वीकृति और निषेधके ) अक्षरोंका उच्चारण भी न होने दे । ऐसा हो जाय मानो नेत्रोंसे कोई भी दृश्य दीखता नहीं ( या देखना नहीं ) और कानोंसे कोई शब्द सुनता नहीं ( या सुनना नहीं ) । इस प्रकार बारह, छः, तीन या एक महीने अथवा इसमे भी कम पंद्रह, बारह, छः, तीन या एक दिन - जैसी सामर्थ्य और अवकाश हो, वैसा ही व्रत करे तो सब प्रकारके अभिलषित अर्थ स्वतः सिद्ध हो जाते हैं और शरीरकी बाह्य तथा आभ्यन्तरिक दोनों परिस्थितियाँ महत्वसम्पन्न बन जाती हैं । ऋषि - मुनियोंनें इसी मौनव्रतके प्रभावसे शास्त्ररचनाके द्वारा संसारका महान् उपकार किया था और अमिट तपोधनका अमित संचय करके स्वर्गमें गये थे ।