द्वादशमासव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


द्वादशमासव्रत

( श्रुति - स्मृति - पुराणादि ) - यह व्रत प्रत्येक महीनेमें यथाविधि स्त्रान, दान, देवार्चन और ब्राह्मणभोजनादि करनेसे सम्पन्न होता है । विधि यह है कि १ - चैत्रमें एक ही प्रमाणका एकभुक्त व्रत करे तो सुवर्ण और मुक्ताफल आदिसे युक्त कुलमें जन्म होता है । २ - वैशाखमें गन्ध - पुष्पका दान कर तो आरोग्यता बढ़ती है । ३ - ज्येष्ठमें जलपूर्ण कुम्भ, सवत्सा गौ, पंखा और चन्दन दे तो सौभाग्यशाली होता है । ४ - आषाढमें एकभुक्त भोजन, ब्रह्मचर्यका पालन और भगवानका स्मरण रखे तो धन - धान्य और पुत्रादिका सुख मिलता है । ५ - श्रावणमें घी - दूधसे भरे घड़े, पूरी और फल दे तो श्रीधरकी प्रसन्नता प्राप्त होती है । ६ - भाद्रपदमें मधु और घी मिली हुई खीर और नमक तथा गुड़ - ओदनका दान करे तो हषीकेशभगवानका अनुग्रह प्राप्त होता है । ७ - आश्विनीकुमारोंकी प्रसन्नताके अर्थ घीका दान देनेसे रुप और सौभाग्य बढ़ता है । ८ - कार्तिकमें चाँदी, सोना, दीप, मणि, मोती और वस्त्रादिका दान करे तो दामोदरभगवानकी प्रसन्नता होती है । ९ - मार्गशीर्षमें ३ एक महीनेतक एकभुक्त व्रत करके ब्राह्मणोंको भोजन कराये तो व्याधि - पीड़ और पाप दूर होते हैं । १० - पौषमें ४ ब्राह्मणोंको घृतविशिष्ट भोजन कराये, घीका दान दे और मास समाप्त होनेपर घी, सोना और पात्र सत्पात्रको देकर तीन दिनका उपवास करे तो उत्तम फल प्राप्त होता है ॥ ११ - माघमें ५ तिल - धेनुका दान करे और गरीबोंकी शीतबाधा मिटानेके लिये ईंधन और धनका दान करे तो धनी होता है । और १२ - फाल्गुनमें ६ गौ, वस्त्र, चाव और कृष्णाजित ( काले मृगका चर्म ) दान करके व्रत करे तो गोविन्दभगवान प्रसन्न होते हैं ।

इतिहास - पुराणों, धर्मशास्त्रों, निबन्ध - ग्रन्थों तथा व्रतराज, व्रतार्क एवं जयसिंहकल्पद्रुम आदिमें कुछ ऐसे व्रतोंके भी अनुष्ठानका उपदेश किया गया है, जो तत्तत्कामनाओंके अनुसार विशेष अवसरोंपर विशेष प्रकारसे किये जाते हैं । यथा - जन्मलग्न आदिसे ज्ञात हुए वैधव्ययोग आदिके परिहारके लिये ' सावित्री ' और ' अश्वत्थ ' व्रत, शरीरसम्भूत शुभ लक्षणोंकी सफलताके लिये ' सौभाग्यलक्ष्मी ' और ' श्री ' व्रत तथा पातक, उपपातक एवं महापातक आदिकी निवृत्तिके लिये ' प्राजापत्य ' और ' चान्द्रायण ' व्रत आदि । अब आगे ऐसे ही व्रतोंका उल्लेख किया जायगा तथा साथमें उनके लक्षण, विधान एवं व्यवस्था आदि भी लिखे जायँगे । इसके सिवा पाप या कुयोग - निवारणके विधान पढ़ते समय बहुतोंको कृच्छ्रतिकृच्छ्र आदिके भेद और बहुविधपापोंके नाम तथा लक्षण जाननेकी आवश्यकता होती है । अतः इस संख्याके प्रसङ्गनुसार उनका भी उल्लेख कर दिया है । सम्भव है इससे सनातनी जनताको संतोष होगा । अस्तु,

१. चैत्रं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत् ।

सुवर्णमणिमुक्ताढ्ये कुले महति जायते ॥ ( भारत )

२. गन्धमाल्यानि च तथा वैशाखे सुरभीणि च ।

देयानि ............... ॥

३. उदकुम्भाम्बु धेनुश्च तालवृन्तं च चन्दनम् ।

त्रिविक्रमस्य प्रीत्यर्थं दातव्यं ज्येष्ठमासि च ॥ ( वामन )

४. आषाढमेकभक्तेन स्थित्वा मासमतन्द्रितः ।

बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते ॥

५. घृतं च क्षीरकुम्भांश्च घृतपक्कफलानि च ।

श्रावणे श्रीधरप्रीत्ये दातव्यानि दिने दिने ॥ ( वामनपुराण )

६. मासि भाद्रपदे दद्यात् पायसं मधुसर्पिषा ।

हषीकेशप्रीणनार्थं लवणं सगुडोदनम् ॥ ( वामन )

७. घृतमाश्वयुजे मासि नित्यं दद्याद् द्विजातये ।

प्रीणयित्वाश्विनौ देवौ रुपभागभिजायते ॥ ( यम )

८. रजतं काञ्चनं दीपान् मणिमुक्ताफलादिकम् ।

दामोदरस्य प्रीत्यर्थं प्रदद्यात् कार्तिके नरः ॥ ( वामन )

९. मार्गशीर्षे तु यो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत् ।

भोजयेत्तु द्विजान् भक्त्या मुच्यते व्याधिकिल्बिषैः ॥ ( महाभारत )

१०. घृतं द्विजेभ्यो दद्याच्च घृतमेव निवेदयेत् ।

पौषे ............. ॥ ( वामन )

११. माघे मासि तिलाः शस्ताः कामधेनुश्च दानतः ।

इध्मं धनादयश्चान्ये माधवप्रीणनाय तु ॥

१२. फाल्गुने व्रीहयो गावो वस्त्रं कृष्णाजिनान्वितम् ।

गोविन्दप्रीणनार्थाय दातव्यं पुरुर्षभैः ॥ ( वामनपुराण )

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Last Updated : January 16, 2012

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