सुखमनी साहिब - अष्टपदी २३

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान २९३ )

श्लोक

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ।
हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥

पद १ ले

संत संगि अंतरि प्रभु डीठा ।
नामु प्रभू का लागा मीठा ॥
सगल समिग्री एकसु घट माहि ।
अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥
नउनिधि अंम्रितु प्रभ का नामु ।
देही महि इस का बिस्रामु ॥
सुं न समाधि अनहत तह नाद ।
कहनु न जाई अचरज बिसमास ॥
तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ।
नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥

पद २ रे

सो अंतरि सो बाहरि अनंत ।
घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥
धरनि माहि आकास पइआल ।
सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥
बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ।
जैसी आगिआ तैसा करमु ॥
पउण पाणी बैसंतर माहि ।
चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥
तिस ते भिंन नहीं को ठाउ ।
गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥

पद ३ रे

बेद पुरान सिंम्रिति महि देखु ।
ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥
बाणी प्रभ की सभु को बोलै ।
आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥
सरब कला करि खेलै खेल ।
मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥
सरब जोति महि जा की जोति ।
धारि रहिओ सुआमी ओमि पोति ॥
गुर परसादि भरम का नासु ।
नानक तिन महि एहु निसासु ॥३॥

पद ४ थे

संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ।
संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥
संत जना सुनहि सुभ बचन ।
सरब बिआपी राम सांगि रचन ॥
जिनि जाता तिस की हइ रहत ।
सति बचन साधू सभि कहत ॥
जो जो होइ सोई सुखु मानै ।
करन करावनहारु प्रभु जानै ॥
अंतरि बसे बाहरि भी ओही ।
नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥

पद ५ वे

आपि सति कीआ सभु सति ।
तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥
तिसु भावै ता करे बिसथारु ।
तिसु भावै ता एकंकारु ॥
अनिक कला लखी नह जाइ ।
जिसु भावै तिसु ले मिलाइ ॥
कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ।
आपे आपि आप भरपूरि ॥
अंतरगति जिसु आपि जनाए ।
नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥

पद ६ वे

सरब भूत आपि वरतारा ।
सरब नैन आपि पेखनहारा ॥
सगल समग्री जा का तना ।
आपन जसु आप ही सुना ॥
आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ।
आगिआकारी कीनी माइआ ॥
सभ कै मधि अलिपतो रहै ।
जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥
आगिआ आवै आगिआ जाइ ।
नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥

पद ७ वे

इस ते होइ सु नाही बुरा ।
ओरै कहहु किनै कछु करा ॥
आपि भला करतूति अति नीकी ।
आपे जानै अपने जी की ॥
आपि साचु धारी सभ साचु ।
ओति पोति आपन संगि राचु ॥
ता की गति मिति कही न जाइ ।
दूसर होइ त सोझी पाइ ॥
तिस का कीआ सभु परवानु ।
गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥

पद ८ वे

जो जानै तिसु सदा सुखु होइ ।
आपि मिलाइ लए प्रभु सोइ ॥
ओहु धनवंतु कुलवंतु पतिवंतु ।
जीवन मुकति जिसु रिदै भगवंतु ॥
धं नु धं नु जनु आइआ ।
जिसु प्रसादि सभु जगत तराइआ ॥
जन आवन का इहै सुआउ ।
जन कै संगि चिति आवै नाउ ॥
आपि मुकतु मुकतु करै संसारु ।
नानक तिसु जन कउ सदा नमसकारु ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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