सुखमनी साहिब - अष्टपदी २१

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान क्र. २९० )

श्लोक

सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥
आपन कीआ नानका आपे ही फिरी जापि ॥१॥

पद १ ले

जब आकारु इहु कछु न द्रिसटेता ।
पाप पुं न तब क ह ते हो ता ॥
जब धारी आपन सुं न समाधि ।
तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥
जब इस का बरनु चिहनु न जापत ।
तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥
जब आपन आप आपि पारब्रहम ।
तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥
आपन खेलु आपि वरतीजा ।
नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥

पद २ रे

जब होवत प्रभ केवल धनी ।
तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥
जब एकहि हरि अगम अपार ।
तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥
जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ।
तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥
जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ।
तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥
आपन चलित आपि करनै हार ।
नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥

पद ३ रे

अबिनासी सुख आपन आसन ।
तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥
जब पूरन करता प्रभ सोइ ।
तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥
जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ।
तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥
जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ।
तब कउन छुटे कुन बंधन बाधे ॥
आपन आप आप ही अचरजा ।
नानक आपन रुप आप ही उपरजा ॥३॥

पद ४ थे

जह निरमल पुरखु पुरखपति होत ।
तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥
जह निरंजन निरंकार निरबान ।
तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥
जह सरुप केवल जगदीस ।
तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥
जह जोति सरुपी जोति संगि समावै ॥
तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ।
करन करावन करनैहारु ॥
नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥

पद ५ वे

जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ।
तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥
जह सरब कला आपहि परबीन ।
तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥
जब आपन आपु आपि उरि धारै ।
तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥
जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ।
तह कउनु ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥
बिसमन बिसम रहे बिसमाद ।
नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥

पद ६ वे

जह अछल अछेद अभेद समाइआ ।
ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥
आपस कउ आपहि आदेसु ।
तिहु गुण का नाही परवेसु ॥
जह एकहि एक एक भगवंता ।
तह कउनु अचिंत किसु लागै चिंता ॥
जह आपन आपु आपि पतीआरा ।
तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥
बहु बेअंत ऊच त ऊचा ।
नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥

पद ७ वे

जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ।
तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥
पापु पुंनु तह भई कहावत ।
कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥
आल जाल माइला जंजाल ।
इउमै मोह भरम भै भार ॥
दू ख सू ख मान अपमान ।
अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥
आपन खेलु आपि करि दे खै ।
खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥

पद ८ वे

जह अबिगतु भगतु तह आपि ।
जह पसरै पासारु संत परतापि ॥
दुहू पाख का आपहि धनी ।
उन की सो भा उनहू बनी ॥
आपहि कउतक करै अनद चोज ।
आपहि रस भोगन निरजोग ॥
जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥
बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ।
जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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