सुखमनी साहिब - अष्टपदी १२

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान क्र. २७६ )

श्लोक

सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ।
बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥

पद १ ले

जिस कै अंतरि राज अभिमानु ।
सो नरक पाती होवत सुआनु ॥
जो जानै मै जोबनवंतु ।
सो होवत बिसटा का जंतु ॥
आपस कउ करमवंतु कहावै ।
जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥
धन भूमि का जो करै गुमानु ।
सो मूरखु अंधा अगिआनु ।
करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ।
नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥

पद २ रे

धनवंता होइ करि गरबावै ।
त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥
बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ।
पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥
सभ ते आप जानै बलमंतु ।
खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥
किसै न बदै आपि अहंकारी ।
धरमराइ तिसु करे सुआरी ॥
गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ।
सो जनु नानक दरगह पर वानु ॥२॥

पद ३ रे

कोटि करम करै हउ धारे ।
स्र्मु पावै सगले बिरथारे ॥
अनिक तपसिआ करे अहंकार ।
नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥
अनिक जतन करि आतम नही द्र्वै ।
हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥
आपस कउ जो भला कहावै ।
तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥
सरब की रेन जा का मनु होइ ।
कहु नानक ता की निरमल निरमल सोइ ॥३॥

पद ४ थे

जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ।
तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥
जब इह जानै मै किछु करता ।
तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥
जब धारै कोऊ बैरी मीतु ।
तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥
जब लगु मोह मगन संगि माइ ।
तब लगु धरमराइ देइ सजाइ ॥
प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ।
गुर प्रसादि नानक इउ छूटै ॥४॥

पद ५ वे

सहस खटे लख कउ उठि धावै ।
त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥
अनिक भोग बिखिआ के करै ।
नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥
बिना संतोख नही कोऊ राजै ।
सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥
नाम रंगि सरब सुखु होइ ।
बडभागी किसै परापति होइ ॥
करन करावन आपे आपि ।
सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥

पद ६ वे

करन करावन करनैहारु ।
इस कै हथि कहा बीचारु ॥
जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ।
आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥
जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ।
सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥
बूझै देखै करै बिबेक ।
आपहि एक आपहि अनेक ॥
मरै न बिनसै आवै न जाइ ।
नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥

पद ७ वे

आपि उपदेसै समझै आपि ।
आपे रचिआ सभ कै साथि ॥
आपि कीनो आपन बिसथारु ।
सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥
उस ते भिंन कहहु किछु होइ ।
थान थनंतरि एकै सोइ ॥
अपुने चलित आपि करणैहार ।
कउतक करै रंग आपार ॥
मन महि आपि मन अपुने माहि ।
नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥

पद ८ वे

सति सति सति प्रभु सुआमी ।
गुर परसादि किनै वखिआनी ॥
सचु सचु सचु सभु कीना ।
कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥
भला भला भला तेरा रुप ।
अति सुंदर अपार अनूप ॥
निरमल निरमल निरलम तेरी बाणी ।
घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥
पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ।
नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 28, 2013

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP