मराठी मुख्य सूची|मराठी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|श्री गुरू ग्रंथ साहिब|सुखमनी साहिब| अष्टपदी १९ सुखमनी साहिब अष्टपदी १ अष्टपदी २ अष्टपदी ३ अष्टपदी ४ अष्टपदी ५ अष्टपदी ६ अष्टपदी ७ अष्टपदी ८ अष्टपदी ९ अष्टपदी १० अष्टपदी ११ अष्टपदी १२ अष्टपदी १३ अष्टपदी १४ अष्टपदी १५ अष्टपदी १६ अष्टपदी १७ अष्टपदी १८ अष्टपदी १९ अष्टपदी २० अष्टपदी २१ अष्टपदी २२ अष्टपदी २३ अष्टपदी २४ सुखमनी साहिब - अष्टपदी १९ हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे. Tags : granthasahibsikhsukhamani sahibग्रंथसाहिबसिखसुखमनी साहिब अष्टपदी १९ Translation - भाषांतर ( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८८ )श्लोक साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ।हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥पद १ लेसंत जना मिलि करहु बीचारु ।एकु सिमरि नाम आधारु ॥अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ।चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥करन कारन सो प्रभु समरथु ।द्रिड करि गहहु नामु हरि वथु ॥इहु धनु संचहु होवह भगवंत ।संत जना का निरमल मंत ॥एक आस राखहु मन माहि ।सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥पद २ रेजिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ।सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ।सो सुखु साधू संगि परीति ॥जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ।सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥अनिक उपावी रोगु न जाइ ।रोगु मिटै हरि अवखघु लाइ ॥सरव निधान महि हरि नामु निधानु ।जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥पद ३ रेमनु परबोधहु हरि कै नाइ ।दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥ता कउ बिघनु न लागै कोइ ।जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥कलि ताती ठांडा हरि नाउ ।सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ।भउ बिनसै पूरन होइ आस ।भगति भाइ आतम परगास ॥तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ।कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥पद ४ थेततु बीचारु कहै जनु साचा ।जनमि मरै सो काचो काचा ॥आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ।आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥इउ रतन जनम का होइ उधारु ।हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥अनिक उपाव न छूटनहारे ।सिंम्रिति सासत बेद बीचारे ॥हरि की भगति करहु मनु लाइ ।मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥पद ५ वेसंगि न चलिसि तैरे धना ।तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥सुत मीत कुटंब अरु बनिता ।इन तो कहहु तुम कवन सनाथा ॥राज रंग माइआ बिसथार ।इन ते कह्हु कवन छुटकार ॥असु हसती रथ असवारी ।झूठा डंफु झूठु पासारी ॥जिनि दिए तिसु बुझै न बिगाना ।नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥पद ६ वे गुर की मति तूं लेहि इआने ।भगति बिना बहु डुबे सिआने ॥हरि की भगति करहु मन मीत ।निरमल होइ तुमारो चीत ॥चरन कमल राखहु मन माहि ।जनम जनम के किलबिख जाहि ॥आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ।सुनत कहत रहत गति पावहु ॥सार भूत सति हरि को नाउ ।सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥पद ७ वेगुन गावत तेरी उतरसि मैलु ।बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥होहि अंचितु बसै सुख नालि ।सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥छाडि सिआनप सगली मना ।साध संगि पावहि सचु धना ॥हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ।ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥सरब निरतरि एको देखु ॥कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥पद ८ वेएको जपि एको सालाहि ।एको सिमरि एको मन आहि ॥एकस के गुन गाउ अनंत ।मनि तनि जापि एक भगवंत ॥एको एकु एकु हरि आपि ।पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥अनिक बिसथार एक ते भए ।एकु अराधि पराछत गए ॥मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ।गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 28, 2013 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP