सुखमनी साहिब - अष्टपदी २०

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८९ )

श्लोक

फिरत फिरत प्रभ आइआ, परिआ तउ सरनाइ ॥
नानक की प्रभ बेनती, अपनी भगती लाइ ॥१॥

पद १ ले

जाचकु जनु जाचै प्रभ दानु ।
करि किरपा देवहु हरि नामु ॥
साध जना की सागउ धूरि ।
पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥
सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ।
सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥
चरन कमल सिउ लागै प्रीति ।
भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥
एक ओट एको आधारु ।
नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥

पद २ रे

प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ।
हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥
जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ।
पूरन पुरख नही डोलाने ॥
सुभर भर प्रेम रस रंगि ॥
परे सरनि आन सभ तिआगि ।
अंतरि प्रगास अनुदिनु लिव लागि ॥
बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ।
नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥

पद ३ रे

सेवक की मनसा पूरी भई ।
सतिगुर ते निरमल मति लई ॥
जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ।
सेवकु किनो सदा निहालु ॥
बंधन काटि मुकति जनु भइआ ।
जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥
इछ पुनी सरधा सभ पूरी ।
रवि  रहिआ सद अंगि हजूरी ॥
जिसका सा तिनि लीआ मिलाइ ।
नानक भगती नामि समाइ ॥३॥

पद ४ थे

सो किउ बिसरै जि घाल न भानै ।
सो किउ बिसरै जि कीआ जानै ॥
सो किउ बिसैरे जिनि सभु किछु दीआ ।
सो किउ बिसरै जि जीवन जीआ ॥
सो किउ बिसरै जि अगनि महि राखै ।
गुर प्रसादि को बिराअ लाखै ॥
सो किउ बिसरै जि बिखु त काढै ।
जनम जनम का टुटा गाढै ॥
गुरि पूरै ततु इहै बुझाइआ ।
प्रभु अपना नानक जन धिआइआ ॥४॥

पद ५ वे

साजन संत करहू इहु कामु ।
आन तिआनि जपहु हरि नामु ॥
सिमरि सिमरि सिमरि सुख पावहु ।
आपि जपहु अवरह नामु जपावहु ॥
भगति भाइ तरीऐ संसारु ।
बिनु भगती तनु होसी छारु ॥
सरब कलिआण सूख निधि नामु ।
बूडत जात पाए बिस्रामु ॥
सगल दूख का होवत नासु ।
नानक नाम जपहु गुनतासु ॥५॥

पद ६ वे

उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ।
मन तन अंतरि इही सुआउ ॥
नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ।
मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥
भगत जना कै मनि तनि रंगु ।
बिरला कोऊ पावै संगु ॥
एक बसतु दीजै करि मइआ ।
गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥
ता की उपमा कही न जाइ ।
नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥

पद ७ वे

प्रभ बखसंद दीन दइआल ।
भगति वछल सदा किरपाल ॥
अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ।
सरब घटा करत प्रतिपाल ॥
आदि पुरख कारण करतार ।
भगत जना के प्रान अधार ॥
जो जो जपै सु होइ पुनीत ।
भगति भाइ लावै मन हीत ॥
हम निरगुनीआर नीच अजान ।
नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥

पद ८ वे

सरब बैकुंठ मुकति मोख पाए ।
एक निमख हरि के गुन गाए ॥
अनिक राज भोग बडिआई ।
हरि के नाम की कथा मनि भाई ॥
बहु भोजन कापर संगीत ।
रसना जपती हरि हरि नीत ॥
भली सु करनी सोभा धनवंत ।
हिरदै बसे पूरन गुर मंत ॥
साध संगि प्रभ देहु निवास ।
सरब सूख नानक परगास ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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