सुखमनी साहिब - अष्टपदी २२

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान क्र. २९२ )

श्लोक

जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ।
नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥

पद १ ले

आपि कथै आपि सुननैहारु ।
आपहि एकु आपि बिसथारु ॥
जा तिसु भावै ता स्त्रिसटि उपाए ।
आपनै भाणै लए समाए ॥
तुम ते भिंन नही किछु होइ ।
आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥
जा कउ प्रा जीउ आपि बुझाए ।
सचु नामु सोई जनु पाए ॥
सो समदरसी तत का बेता ।
नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥

पद २ रे

जी अ जं त्र सभ ता कै हाथ ।
दीन दइआल अनाथ क नाथु ॥
जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ।
सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥
तिसु तजि अवर कहा को जाइ ।
सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥
जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ।
अंतरि बाहरि जानह साथि ॥
गुन निधान बेअंत अपार ।
नानक दास सदा बलिहार ॥२॥

पद ३ रे

पूरनि पूरि रहे दइआल ।
सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥
अपने करतब जानै आपि ।
अंतरजामी रहिओ बिआपि ।
अंतरजामी रहिओ बिआपि ॥
प्रतिपालै जीअन बहु भाति ।
जो जो रचिओ सु तिसहि धिआति ॥
जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ।
भगति करहि हरि के गुण गाइ ॥
मन अंतरि बिस्वासु करि मानिआ ।
करनहारु नानक इकु जानिआ ॥३॥

पद ४ थे

जनु लागा हरि एकै नाइ ।
तिस की आस न बिरथी जाइ ॥
सेवक कउ सेवा बनि आई ।
हुकमु बूझि परम पदु पाई ॥
इस ते ऊपरि नही बीचारु ।
जा कै मनि बसिआ निरंकारु ॥
बंधन तोरि भए निरवैर ।
अनदिनु पूजहि गुर के पैर ॥
इह लोक सुखीए परलोक सुहेले ॥
नानक हरि प्रभि आपहि मेले ॥४॥

पद ५ वे

साध संगि मिलि करहु अनंद ।
गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥
राम नाम ततु करहु बीचारु ।
दुलभ देह का करहु उधारु ॥
अंम्रित बचन हरि के गुन गाउ ।
प्रान तरन का इहै सुआउ ॥
आठ प्रहर प्रभ पेखहु नेरा ।
मिटै अगिआनु निनसै अंधेरा ॥
सुनि उपदेसु हिरदै बासावहु ।
मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥

पद ६ वे

हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ।
राम नामु अंतरि उरि धारि ॥
पूरे गुर की पूरी दीखिआ ।
जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥
मनि तनि नामु जपहु लिव लाइ ।
दूखु दरदु मन ते भउ जाइ ॥
सचु वापारु करहु वापारी ।
दरगह निबहै खेप तुमारी ॥
एका टेक रखहु मन माहि ।
नानक बहुरि न आवहि जाहि ॥६॥

पद ७ वे

तिस ते दूरि कहा को जाइ ।
उबरै राखनहारु धिआइ ॥
निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।
प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ॥
जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख ।
नामु जपत मनि होवत सूख ॥
चिंता जाइ मिटै अंहकारु ।
तिसु जन कउ कोइ न पहुचनहारु ॥
सिर ऊपरि ठाठा गुरु सूरा ।
नानक ता के कारज पूरा ॥७॥

पद ८ वे

मति पूरी अंम्रित जा की द्रिसटि ।
दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥
चरन कमल जा के अनूप ।
सफल दरसनु सुंदर हरि रुप ॥
धंनु सेवा सेवकु पर वानु ।
अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥
जिसु मनि बसै सु होत निहालु ।
ता कै निकटि न आवत कालु ॥
अमर भए अमरा पदु पाइआ ।
साध संगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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