सुखमनी साहिब - अष्टपदी ५

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब प्रान क्र. २६८ )

श्लोक

देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ।
नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाई ॥१॥

पद १ ले
दस बसतू ले पाछै पावै ।
एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥
एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ।
तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥
जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ।
ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥
जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ।
सरब सूक ताहू मनि वूठा ॥
जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ।
सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥

पद २ रे

अगनत साहु अपनी दे रासि ।
खात पीत बरतै अनद उलासि ॥
अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ।
अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥
अपनी परतीति आप ही खोवै ।
बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥
जिस की बसतु तिसु आगै राखै ।
प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥
उस ते चउगुण करै निहालु ।
नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥

पद ३ रे

अनिक भाति माइआ के हेत ।
सरपर होवत जानु अनेत ॥
बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ।
ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥
जो दीसै सो चालनहारु ।
लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥
बटाऊ सिउ जो लावै नेह ।
ता कउ हाथि न आवै केह ॥
मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ।
करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥

पद ४ थे

मिथिआ तनु धनु कुटंबु सबाइआ ।
मिथिआ उउमै ममता माइआ ॥
निथिआ राज जोबन धन माल ।
मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥
मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ।
मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥
मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥
असथिरु भगति साध की सरन ।
नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥

पद ५ वे

मिथिआ स्त्रवन पर निंदा सुनहि ।
मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥
मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रुपाद ।
मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥
मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ।
मिथिआ मन पर लोभु लुभावहि ॥
मिथिआ तन नही पर उपकारा ।
मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥
बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ।
सफल देह नानक हरि नाम लए ॥५॥

पद ६ वे

बिरथी साकत की आरजा ।
साच बिना कह होवत सूचा ॥
बिरथा नाम बिना तनु अंध ।
मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥
बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ।
मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥
गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ।
जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥
धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिलो हरि नाउ ॥
नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥


पद ७ वे

रहत अवर कछु अवर कमावत ।
मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥
जाननहार प्रभू परबीन ।
बाहरि भेख न काहून भीन ॥
अवर उपदेसै आपि न करै ।
आवत जावत जनमै मरै ॥
जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ।
तिस की सीख तरै संसारु ॥
जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ।
नानक उन जन चरन परात ॥७॥

पद ८ वे

करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ।
अपना कीआ आपहि मानै ॥
आपहि आप आपि करत निबेरा ।
किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥
उपाव सिआनप सगल ते रहत ।
सभु कछु जानै आतम की रहत ॥
जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ।
थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥
सो सेवकु जिसु किरपा करी ।
निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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