स्वदेशीय नक्षत्रोदयास्त ध्रुव साधन .
दास्त्रादष्ट च मूर्च्छना गजगुणा नन्दाब्धयो दृग्रसाः षट्तर्का युगखेचरा रसदिशोऽद्र्य़ाशा नवार्काः क्रमात् ॥
भाग्यादष्टयुगेन्दवोऽक्षतिथयः खात्ययोंऽशा ध्रुवास्त्र्यष्टाब्जा गजागोभुवो रविदृशः सिद्धाश्र्विनः खत्रिदृक् ॥१॥
मूलात्स्युर्द्विजिनाः शराशुगदृशः क्वङ्गाश्र्विनोऽष्टेषुदृग्बाणर्क्षाणि रसाष्टदृङ्नखगुणास्तत्त्वाग्नयोऽश्र्वामराः ॥
खं दत्तायनदृक्क्रियाः स्युरिह च क्षेपोऽक्षभाघ्नोऽकत्दृत्स्वर्णं प्राक्परतोऽन्यथोत्तरशरे ते स्युः स्वदेशे ध्रुवाः ॥२॥
दिक्सूर्य्येष्विषुदिक्छिवाङ्गखनगाभ्रार्काश्र्च विश्र्वे भवास्त्वाष्ट्राद्दौ नगवह्नयः कुयमलाग्नीभाक्षबाणा द्विषट् ॥
कर्णात्रिंशदारित्रयः खजिनभाभ्रं त्वाष्ट्रहस्ताहिभे द्वीशात्षट्सुकभात्रयं शरलवा याम्या उदक्छेषभे ॥३॥
प्रजापतिब्रह्मत्दृदग्न्यस्त्याऽपांवत्सलुब्धध्रुवकांशकाः स्युः ॥
कुषट् षडक्षास्त्रिशरा नभोऽष्टौ त्र्यष्टेन्दवो भूफणिनः क्रमेण ॥४॥
तेषां क्रमाद्रोशिखिनः खरामा अष्टौ रसाश्र्वाः शिखिनः खवेदाः ॥
शरांशकाः स्युर्मुनिलुब्ध्ब्धयोस्तु याम्यास्तु सौम्याः परिशेषकाणाम् ॥५॥
अर्थ -
ज्या नक्षत्राचा ध्रुव आणावयाचा असेल त्याचा शर घेऊन त्यास पलभेनें गुणावें आणि १२ नीं भागावें म्हणजे अंशादि भागाकार येईल तो त्याच नक्षत्राचे राश्यादि ध्रुवांकांत वजा करावा व मिळवावा म्हणजे वजा बाकी उदयध्रुव आणि बेरीज अस्त ध्रुव होतो . परंतु जर नक्षत्राचा शर दक्षिण आहे तर वजाबाकी अस्त ध्रुव होतो . परंतु जर नक्षत्राचा शर दक्षिण आहे तर वजाबाकी अस्त ध्रुव आणि बेरीज उदय ध्रुव होतो . याप्रमाणेंच प्रजापति , ब्रह्मत्दृत् , अग्नि , अगस्त्य , अपांवत्स , आणि लुब्धक यांचे उदयास्त ध्रुव जाणावें .
उदाहरण .
अश्र्वि . चार शर ० अं . ५अं . ४५प्र . अं . ( =५७ अंगुलें ३० प्रति अंगुलें ) ÷ १२ =४अं . ४७क . ३० विकला यांत ध्रुवांक ० रा . ८ अंश मिळविल्यानें ० रा . १२अं . ४७क . ३०विकला ही बेरीज शर उत्तर आहे म्हणून अश्र्विनीचा अस्तध्रुव झाला आणि ध्रुवांक ० राशि ८ अंश - ४ अंश ४७ कला ३० विकला = ० राशि ३ अंश १२क . ३० विकला ही वजाबाकी अश्र्विनीचा उदय ध्रुव झाला याप्रमाणें सर्वांचे उदयास्त ध्रुव पुढें लिहिले आहेत .
नक्षत्रोंके नाम |
ध्रुव |
शरभाग |
अश्विनी |
राशि |
८अंश |
१० उत्तर |
भरणी |
० |
२१ |
१२ उत्तर |
कृत्तिका |
१ |
८ |
५ उत्तर |
रोहिणी |
१ |
१९ |
५ दक्षिण |
मृगशिर |
२ |
२ |
१०दक्षिण |
आर्द्रा |
२ |
४ |
११ दक्षिण |
पुनर्वसु |
३ |
६ |
६ उत्तर |
पुष्य |
३ |
१६ |
० उत्तर |
आश्लेषा |
३ |
१७ |
७ दक्षिण |
मघा |
४ |
९ |
० उत्तर |
पूर्वा फाल्गुनी |
४ |
२८ |
१२ उत्तर |
उ . फाल्गुनी |
५ |
५ |
१३ उत्तर |
हस्त |
५ |
२० |
११ दक्षिण |
चित्रा |
६ |
३ |
२ दक्षिण |
स्वाती |
६ |
१८ |
३७ उत्तर |
विशाखा |
७ |
२ |
१ दक्षिण |
अनुराधा |
७ |
१४ |
२ दक्षिण |
ज्येष्ठा |
७ |
२० |
३ दक्षिण |
मूल |
८ |
२ |
८ दक्षिण |
पूर्वाषाढा |
८ |
१५ |
५ दक्षिण |
उत्तराषाढा |
८ |
२१ |
५ दक्षिण |
अभिजित |
८ |
१८ |
६२ उत्तर |
श्रवण |
९ |
५ |
३० उत्तर |
घनिष्ठा |
९ |
१६ |
३६ उत्तर |
शततारका |
१० |
२० |
० उत्तर |
पूर्वाभाद्रपदा |
१० |
२५ |
२४ उत्तर |
उ .भाद्रपदा |
११ |
७ |
२७ उत्तर |
रेवती |
० |
० |
० उत्तर |
नाम |
ध्रुव |
शरभाग |
प्रजापति |
२ |
१ . |
३९ उत्तर . |
ब्रह्महृदय |
३ |
२६ |
३० उत्तर |
अग्नि |
१ |
२३ . |
८ उत्तर |
अगस्त्य |
२ |
२० |
७६ दक्षि . |
अपांवत्स |
६ |
३ |
३ उत्तर |
लुब्धक |
२ |
२१ . |
४० दक्षि . |
उदयध्रुव |
अस्तध्रुव |
०रा |
३अं |
१२क |
३०वि |
०रा |
१२अं |
४७क |
३०वि |
० |
१५ |
१५ |
० |
० |
२६ |
४५ |
० |
१ |
५ |
३६ |
१५ |
१ |
१० |
२३ |
४५ |
१ |
२१ |
२३ |
४५ |
१ |
१६ |
३६ |
१५ |
२ |
६ |
४७ |
३० |
१ |
२७ |
१२ |
३२ |
२ |
११ |
१६ |
१५ |
२ |
० |
४३ |
४५ |
३ |
१ |
७ |
३० |
३ |
६ |
५२ |
३० |
३ |
१६ |
० |
० |
३ |
१६ |
० |
० |
३ |
२० |
२१ |
१५ |
३ |
१३ |
३८ |
४५ |
४ |
९ |
० |
० |
४ |
९ |
० |
० |
४ |
२२ |
१५ |
० |
५ |
३ |
४५ |
० |
४ |
२८ |
४६ |
१५ |
५ |
११ |
१३ |
४५ |
५ |
२५ |
१६ |
१५ |
५ |
१४ |
४३ |
४५ |
६ |
३ |
५७ |
३० |
६ |
२ |
२ |
३० |
६ |
० |
१६ |
१५ |
७ |
५ |
४३ |
४५ |
७ |
२ |
२८ |
४५ |
७ |
१ |
३१ |
१५ |
७ |
१४ |
५७ |
३० |
७ |
१३ |
२ |
३० |
७ |
२१ |
२६ |
१५ |
७ |
१८ |
३३ |
४५ |
८ |
५ |
५० |
० |
७ |
२८ |
१० |
० |
८ |
१७ |
२३ |
४५ |
८ |
१२ |
३६ |
१५ |
८ |
२३ |
२३ |
४५ |
८ |
१८ |
३६ |
१५ |
७ |
१८ |
१७ |
३० |
९ |
१७ |
४२ |
३० |
८ |
२० |
३७ |
३० |
९ |
२९ |
२२ |
३० |
८ |
२९ |
१३ |
४५ |
१० |
२ |
४६ |
१५ |
१० |
३० |
० |
० |
१० |
२० |
० |
० |
१० |
१३ |
३० |
० |
११ |
६ |
३० |
१० |
१० |
२४ |
३ |
४५ |
११ |
१९ |
५६ |
१५ |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
उदयध्रुव |
अस्तध्रुव |
१ रा |
१२अं |
१८क . |
४५वि . |
२रा |
१९अं . |
४१क . |
१५वि |
१ |
११ |
८ |
४५ |
२ |
१० |
५१ |
१५ |
१ |
१९ |
१० |
० |
१ |
२६ |
५० |
० |
३ |
२६ |
५ |
० |
१ |
१३ |
३५ |
० |
३ |
१ |
३३ |
४५ |
६ |
४ |
२६ |
१५ |
३ |
१० |
१० |
० |
२ |
१ |
५० |
० |
याम्योत्रर वृत्रस्थ नक्षत्रापासूनगतरात्रिज्ञान .
खमध्यगर्क्षधु्रवतोऽस्फुटं चरं ततो दिनार्द्धान्निजभोदयैस्तनुः ॥
भवेत्तदा लग्नमथो तदङ्गभान्वितार्कमध्ये घटिका निशागताः ॥६॥
अर्थ -
याम्योत्तर वृत्तावरील नक्षत्राचा ध्रुवांक घेऊन त्यास शर संस्कार न करितां त्यापासून चर आणावें , त्या चरापासून दिनार्ध साधावें म्हणजे तो इष्टकाल होतो . नंतर नक्षत्र ध्रुवांकास रवि कल्पून त्यापासून स्वदेशीय उदयांनी इष्टकालाचें लग्न आणावें ; म्हणजे तें ख मध्यस्थ लग्न होतें . तें लग्न व सुमारें त्यावेळचा षड्शियुक्त सूर्य यांपासून त्रिप्रश्र्नाधिकारांत सांगितल्याप्रमाणें इष्ट काल साधावा म्हणजे त्या काला इतकी रात्र गेली असें समजावें .
उदाहरण .
या म्योनत्तर तृत्तस्थ अश्र्विनीचा ध्रुव ० रा . ८अं .+अयनांश १८ ..१०क .=० रा . २६अं . १०क . ०वि . यापासून आणलेलें चर ४९प +१५घ . ४९प . हें अश्र्विनी नक्षत्राचें दिनार्ध झालें . आतां , अश्र्विनी ध्रुव ० रा . ८अं . + अयनांश १८क . १० =० रा . २६अं . १०क . हा रवि मानून व दिनार्ध (१५ घ . ४९प .) इष्टकाल मानून आणलेला भोग्यकाल २८ पलें व सायन लग्न ४ रा . १अं . ५४क . ४६विक . या रीतीनें प्रत्येक नक्षत्राचें दिनार्धव ख मध्यस्थ निरयन लग्न आणलीं तर ती पुढील प्रमाणें येतात .
|
दिनाद्ध |
लग्न |
नाम |
घ . |
प . |
रा . |
अं . |
क . |
वि . |
अश्विनी |
१५ |
४९ |
३ |
१३ |
४४ |
४६ |
भरणी |
१६ |
११ |
३ |
४ |
५३ |
३६ |
कृत्तिका |
१६ |
३७ |
४ |
९ |
३४ |
२० |
रोहिणी |
१६ |
४७ |
४ |
१९ |
४८ |
१२ |
मृगशिर |
१६ |
५५ |
५ |
२ |
२० |
२६ |
आर्द्रा |
१६ |
५८ |
५ |
६ |
११ |
१९ |
पुनर्वसु |
१६ |
४७ |
६ |
३ |
८ |
४८ |
पुष्य |
१६ |
३६ |
६ |
१४ |
१६ |
१८ |
आश्लेषा |
१६ |
३६ |
६ |
१५ |
१८ |
४१ |
मघा |
१६ |
७ |
७ |
४ |
२१ |
१८ |
पूर्वाफा . |
१५ |
७ |
७ |
१९ |
५४ |
१३ |
उ .फा . |
१५ |
७ |
७ |
२५ |
३ ‘ |
३ |
हस्त |
१४ |
८ |
८ |
७ |
५३ |
९ |
चित्रा |
१४ |
८ |
८ |
१९ |
१४ |
४ |
स्वाती |
१३ |
९ |
९ |
५ |
१९ |
१२ |
विशाखा |
१३ |
९ |
९ |
१८ |
१४ |
११ |
अनुराधा७१४२ दक्षिण |
१३ |
० |
० |
२ |
३५ |
३ |
|
दिनाद्ध |
लग्न |
नाम |
घ . |
प . |
रा . |
अं . |
क . |
वि . |
ज्येष्ठा |
१३ |
१२ |
१० |
१० |
१७ |
३० |
मूळ |
१३ |
५ |
१० |
२७ |
३४ |
४७ |
पूर्वाषाढा |
१३ |
१ |
११ |
६ |
४३ |
१२ |
उ . षाढा |
१३ |
४ |
११ |
२९ |
१६ |
२० |
अभि . |
१३ |
२ |
११ |
२० |
५५ |
४१ |
श्रवण |
१३ |
३ |
५ |
१५ |
१ |
१९ |
घनिष्ठा |
१३ |
२४ |
० |
२९ |
१ |
३७ |
शतता . |
१३ |
१९ |
२ |
४ |
२ |
१४ |
पू .भाद्र . |
१४ |
२९ |
२ |
८ |
३४ |
३६ |
उ .भाद्र . |
१४ |
५१ |
२ |
१८ |
४० |
३१ |
रेवती |
१५ |
३४ |
३ |
७ |
१६ |
१७ |
प्रजापति |
१६ |
५५ |
५ |
१ |
२६ |
४३ |
ब्रह्महृदय |
१६ |
५१ |
४ |
२६ |
३१ |
११ |
अग्नि |
१६ |
५० |
४ |
२३ |
४४ |
३७ |
अगस्त्य |
१६ |
५६ |
५ |
२९ |
४२ |
५० |
अपा .त्स |
१४ |
२९ |
८ |
१९ |
१४ |
४ |
लुब्धक |
१६ |
५६ |
५ |
१९ |
४१ |
५६ |
पुनः अश्र्विनी नक्षत्र याम्योत्तर वृत्तीं असतां निरयन लग्न ३ रा . १३अं . ४४क . ४६वि . + अयनांश १८क . १० =४ रा . १अं . ५४क . ४६विक . आणि त्यादिवसचा स्पष्ट सूर्य ६ रा . २५अं . ५०क . ३०वि . + अयनांश १८क . १० +६रा = १रा . १४अं . ० क . ३० विक .; रविभोग्य काल १३४ पलें + लग्नभक्तकाल २२ पलें + (दोघांच्या मधील उदय ) मिथुनोदय ३०४ पलें + कर्कोदय ३४२ पलें = ८०२ पलें = १३ घटी २२ पलें हा रात्रिगत काल झाला .
उदय लग्न आणि अस्त लग्न .
उद्यद्भध्रुवकः स्वदेशजोऽस्तं वा प्राप्नुवतः सषडूग्रहः ।
स्यात्तत्कालविलग्नकं ततः प्राग्वत्स्युघ्रटिका निशागताः ॥७॥
अर्थ -
उदय पावणार्या नक्षत्राचा जो स्वदेशीय उदय ध्रुव तें त्याचें उदय लग्न असतें आणि अस्त पावणार्या नक्षत्राचा स्वदेशीय अस्तध्रुव घेऊन त्यांत ६ राशि मिळवाव्या म्हणजे तें त्या नक्षत्राचें अस्त लग्न होतें .
उदाहरण .
अश्र्विनीचा उदय ध्रुव ० रा . ३अं . १२क . ३० विकला , हेंच अश्र्विनीचें उदय लग्न झालें आणि अस्त ध्रुव ० रा . १२अं . ४७क . ३०विक . + ६रा . = १२अं . ४७क . ३० विकला हें अश्र्विनीचे अस्त लग्न झालें .
नक्षत्र छायादि साधन .
इति नैजदेशपलभावशतो ह्युदयं खमध्यमथवाऽस्तमयम् ॥
व्रजदश्र्विभादिषु सुखार्थमिह स्थिरलग्नकानि विदधीत सुधीः ॥८॥
निजदेशभवाद् ध्रुवाच्च बाणाच्छाया यंत्रलवादि खेटवत्स्यात् ॥
छायादेरपि चेह रात्रियातं नक्षत्रग्रहयोग उक्तवच्च ॥९॥
अर्थ -
गणित सौलभ्या करितां स्वदेशाच्या पलभे वरून अश्र्विन्यादिनक्षत्रांच्या उदय , मध्य व अस्त या कालांची स्थिर लग्नें आणून ठेवावी . नक्षत्र वेध करणें असल्यास नक्षत्राचा ध्रुव व शर यांपासून ग्रह छायाधिकारांत सांगितल्याप्रमाणें छायादि आणावें .
इष्टनक्षत्रीं अभीष्टग्रहागमन काल .
द्ध्युचरभधृवकांत्तरलिप्तिकाद्ध्युगतिभुक्तित्द्धृताहिगतागतैः ॥
फलदिनैर्द्ध्य्चरेधिकहीनकेयुतितिहेतरथाखलुवक्रिणि ॥१०॥
अर्थ -
ग्रह आणि नक्षत्राचा ध्रुव यांचे अंतर करून त्याच्या कला कराव्या आणि त्यांस ग्रहाच्या गतीनें भागून भागाकार दिनादि येईल ; नंतर नक्षत्र ध्रुवापेक्षां ग्रह अधिक असेल तर आलेले दिवस , तो ग्रह त्या नक्षत्रीं येऊन झाले आणि ग्रह ध्रुवकापेक्षां कमी आहे तर आलेल्या दिवसांनीं तो ग्रह त्या नक्षत्रीं येईल असें जाणावें . परंतु जर ग्रहवक्री असून ध्रुवापेक्षां अधिक असेल तर आलेल्या दिवसांनी ग्रह नक्षत्रीं येईल आणि कमी असेल तर आलेले दिवस ग्रहनक्षत्रीं येऊन झाले असें जाणावें .
ग्रह रोहिणीशकट भेदकाल .
गवि नगकुलवे खगोऽस्य चेद्यमादिगिषुः खशरांगुलाधिकः ॥
कभशकटमसौ भिनत्त्यसृक्छनिरुडुपो यदि चेज्जनक्षयः ॥११॥
अर्थ -
कोणता ही ग्रह वृषभ राशीचे १७ अंश परिमित असून जर त्याचा दक्षिण शर ५० अंगुलांपेक्षा अधिक आहे तर तो ग्रह रोहिणी शकटाचा भेद करील असें जाणावें . जेव्हां मंगळ , शनि आणि चंद्र यांतून कोणताही ग्रह रोहिणी शकटाचा भेद करतो तेव्हां लोकांस मोठी पीडा होते असें भविष्यवादी लोकांचा समज आहे .
चंद्र रोहिणी शकट भेदकाल .
स्वर्भानावदितिभतोऽष्टऋक्षसंस्थे शीतांशुः कभशकटं सदा भिनत्ति ॥
भौमार्क्योः शकटभिदा युगान्तरे स्यात्सेदानीं नहि भवतिदृशि स्वपाते ॥१२॥
अर्थ -
जेव्हा राहु पुनर्वस्क्त नक्षत्रापासून पुढील आठ नक्षत्रांपर्यंत असतो तेव्हां चंद्र नेहमीं रोहिणी शकटाचा भेद करितो . परंतु मंगळ आणि शनि यांचे पात (अस्तोदयाधिकार श्र्लोक १२ ) पुनर्वसक्त नक्षत्रा पासून पुढील आठ नक्षत्रांपर्यंत असतांही ते रोहिणी शकट भेद करीत नाहींत . याचे शकट भेद मागील युगांत झाले होते असें म्हणतात .
नक्षत्र छायाधिकार समाप्त .