कच n. एक महर्षि
[म.अनु.२६.८] ।
कच II. n. वर्तमान मन्वन्तर में अंगिरापुत्र बृहस्पति का पुत्र । परंतु इसकी माता कौन थी इसका पता नहीं चलता है क्यो कि, बृहस्पति की शुभा तथा तारा नामक दोनों स्त्रियों की संतति में इसका नाम नहीं है ।
कच II. n. एक बार देव एवं दैत्यों मैं त्रैलोक्य का आधिपत्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये तुमुल युद्ध हुआ । उसमें दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य संजीवनी विद्या के कारण मृत राक्षसों को तत्काल जीवित कर देते थे । इस कारण दैत्यों की शक्ति कम नहीं होती थी । देवगुरु बृहस्पति को यह विद्या प्राप्त न होने के कारण, देवताओं का बहुत नुकसान होता था । तब इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने कच से प्रार्थना कर कहा, कि तुम शुक्राचार्य तथा उसकी तरुण कन्या देवयानी को प्रसन्न कर, संजीवनी विद्या सीख कर आवो । तुम्हारा शील, सौंदर्य, माधुर्य, मनोनिग्रह तथा आचरण देवयानी को प्रसन्न करने के साधन है । देवयानी को वश करने का कारण यही है कि, यदि वह प्रसन्न हो गयी तो विद्याप्राप्ति में विलंब न होगा क्यों कि, देवयानी शुक्राचार्य का दूसरा प्राण है । यह बता कर देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया ।
कच II. n. कच विद्यासंपादन के लिये देवताओं को छोड कर शुक्राचार्य के पास आया । शुक्राचार्य ने पूछा, ‘तुमे कौन हो? कहॉं से आये हो?’ तब कच ने बडी नम्रता से कहा, ‘मैं बृहस्पतिपुत्र कच हूँ तथा विद्यासंपादन के हेतु आया हूँ ।’ शुक्राचार्य ने उसे अतिथि समझ कर तथा गुरुपुत्र होने के कारण, वंदनीय मान कर अपने पास रख लिया । तत्पश्चात् वह गुरुभक्ति से तथा ब्रह्मचर्य से सेवा करने लगा । शुक्राचार्य की तरुण कन्या देवयानी के मनोरंजन के लिये कच, गाना, वाद्य बजाना, नाचना, पुष्प तथा फल लाना एवं बताये हुए काम तथा गायें चराना आदि काम करने लगा । इस प्रकार शुक्राचार्य तथा उसकी प्रिय कन्या देवयानी के कार्य में कहीं भी न्यूनता न रखते हुए, कडे ब्रह्मचर्यव्रत से कच ने उन की ५०० वर्षो तक उत्तम सेवा की । इससे आचार्य उस पर प्रसन्न हो गये, तथा देवयानी तो उसे अपना बहिश्वर प्राण समझने लगी ।
कच II. n. १. देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच अपने आचार्य के पास विद्या संपादनार्थ आया है । अवश्य ही यह संजीवनी विद्या संपादन करने के लिये आया होगा, यह सोच कर दैत्यों ने उसका वध करने का निश्चय किया । एक दिन उन्हों ने उसे गौओं को चराते हुए देखा । क्रोधावशात् उन्हों ने इसे पकडा तथा इसके शरीर के खंडशः टुकडे कर सियारों को खिला दिये तथा वे वापस अपने स्थान पर लौट आये । इधर सूर्यास्त होने पर भी कच घर लौट नहीं आया, यह देख कर देवयानी ने यह खबर पिता तक पहुँचाई । इस पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया । तत्काल सियारों के शरीर फाड कर कच सजीव हो कर आचार्य तथा देवयानी के समक्ष आ कर खडा हो गया । कच को आया जान कर देवयानी ने विलंब का कारण पूछा । तब उसने दैत्यों का सारा कृत्य उसे बताया । २. एक बार पुनः देवयानी के कथनानुसार जब कच अरण्य में गया था, तब राक्षसों ने उसे देखा । पुनः उसके टुकडे कर के, उन्होंने समुद्र में फेंक दिये । इस समय भी पिता को बता कर देवयानी ने इसे पूर्ववत् सजीव कराया । ३. इस समय इसे मार कर, इसका चूर्ण बना कर राक्षसों ने जलाया सुरा के पात्र में वह रक्षा मिलाई । वही पात्र शुक्राचार्य को पीने के लिये दिया तथा अपने अपने घर चले गये ।
कच II. n. दिन का अवसान हो गया । रात हुई, किन्तु कच नहीं आया । यह देख, देवयानी ने पिता से कहा कि, अभी तक कच नहीं आया । हो न हो, उसे अवश्य राक्षसों ने मार डाला होगा । उसे तत्काल जीवित कर के आश्रम में लाने के लिये, देवयानी हठ करने लगी । तब शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि, बार बार जीवित करने पर भी कच की मृत्यु हो जाती है, इस लिये भला मैं क्या कर सकता हूँ? अब तुम रुदन मत करो । कच की मृत्यु के लिये दुःख मनाने का अब कुछ प्रयोजन नहीं है । तब देवयानी ने उसके रुपगुणों का रसभरा वर्णन किया एवं शोकावेग्न से वह प्राणत्याग करने के लिये प्रवृत्त हो गई । देवयानी का यह अविचारी कृत्य देख कर शुक्राचार्य असुरों को बुला लाये । तथा उनसे बोला, “मेरे पास विद्याप्राप्ति के हेतु आये हुए मेरे शिष्य को मार कर तुम लोग क्या मुझे अब्राह्मण बनाना चाहते हो? तुम्हारे पापों का घडा भर गया । प्रत्यक्ष इन्द्र आदि का भी घात ब्रह्महत्या के कारण होगा है फिर तुम्हारी क्या हस्ती?" क्रोध से ऐसा कह कर, शुक्राचार्य ने कच को पुकारा । तब संजीवनी विद्या के प्रभाव से शुक्राचार्य के उदर में जीवित कच ने वह उदर में किस प्रकार आया, तथा दैत्यों ने किस प्रकार उसे मारा वह बताया । तदनंतर उसने कहा, ‘गुरुहत्या के पाप का भागीदार मैं न बनूँ तथा देवयानी का मेरा एवं संपूर्ण विश्व का अकल्याण न हो, इस हेतु से मैं गर्भवास ही स्वीकार करता हूँ’। तब शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा, ‘अगर तुम्हें कच चाहिये तो मेरा वध होना आवश्यक है । अगर मैं तुम्हें प्रिय हूँ तो उदरगत कच का बाहर आना असंभव है’ तब देवयानी ने कहा कि, ‘तुम दोनों मुझे प्रिय हो । दोनों में से किसी का भी विरह मेरे लिये दुखदायी ही होगा’। प्रथमतः शुक्राचार्य ने कच को उदर में, संजीवनी विद्या का उपदेश किया तथा बाहर आने के बाद अपने को जीवित करने के लिये कहा । तदनंतर संजीवनीविद्याप्राप्त कच शुक्राचार्य का उदरविदारण कर बाहर आया तथा उसी विद्या से तत्काल उसने शुक्राचार्य को जीवित क्रिया । अपना पिता शुक्राचार्य तथा कच दोनों को जीवित देख कर, देवयानी को अत्यंत आनंद हुआ । सुरापान के कारण यह भी समझ में न आया कि, मैं कच की राख पी रहा हूँ । इसके लिये शुक्राचार्य को अत्यंत खेद हुआ । सुरादेवी पर क्रोधित हो कर शुक्राचार्य ने मद्यपान पर निम्नलिखित निर्बध लगा दिया। “जो ब्राह्मण आज से भविष्य में व्यसनी लोगों के चंगुल में फँस कर मुर्वत से अथवा मूर्खता से सुरापान करेगा, वह धर्मभ्रष्ट हो कर ब्रह्महत्या के पातक का भागीदार बनेगा । उसे इहपरलोक में अप्रतिष्ठा तथा अनंत कष्ट भोगने पडेंगे।” इस प्रकार धर्ममर्यादा स्थापित कर के उसने दैत्यों से कहा, ‘तुम्हारी मूर्खता के कारण मेरे प्रिय शिष्य कच को यह संजीवनी विद्या प्राप्त हो गई । इस प्रकार हजार वर्षो तक गुरु के पास रहने के बाद कच ने देवलोक में जाने के लिये गुरु की आज्ञा मांगी । शुक्राचार्य ने कच को जाने की आज्ञा दी । कच देवलोक जा रहा है यह देख कर, देवयानी ने उससे प्रार्थना की । ‘हम दोनों समान कुलशीलवाले है । मेरी तुम पर अत्यंत प्रीति है । इस प्रीति के कारण ही तीन बार राक्षसों द्वारा मारे जाने पर भी मैंने तुम्हें जीवित किया, इसलिये मेरा पाणिग्रहण किये बिना तुम्हारा देवलोक जाना ठीक नही है’। कच ने उसे बहुत ही समझाया, कि हम दोनों का जन्म एक ही उदर से होने के कारण धर्मदृष्टि से तुम मेरी गुरुभगिनी हो । तस्मात् तुम मुझे गुरु के समान पूज्य हो । इतना कहने पर भी देवयानी ने अपना हठ नहीं छोडा । तब कच ने कहा, ‘अपने पुत्र के भॉंति तुमने मुझे प्यार किया । तुम्हारा तथा मेरा जन्म एक ही पिता से हुआ है, अतएव तुम मेरे द्वारा पाणिग्रहण की कामना मत करो’ इतना कह कर कच ने देवयानी को दृढ मनोभाव से शुक्राचार्य की सेवा करने के लिये कहा तथा उससे आशीर्वाद मांगा ।
कच II. n. भग्नमनोरथ देवयानी ने अत्यंत संतप्त हो कर उसे शाप दिया कि, मेरी प्रार्थना अमान्य कर बडे अहंकार से, जो विद्या प्राप्त कर तुम जा रहे हो वह तुम्हें कभी फलद्रूप न होगी । तब कच ने शांति से कहा, ‘चूँकि तुम गुरुभगिनी हो एवं मैं सात्त्विक ब्राह्मण हूँ, मैं तुम्हें प्रतिशाप नहीं देता । यह शाप कामविकारजन्य है । अर्थात् तुम्हारा वरण ब्राह्मण पुत्र करे, यह तुम्हारी इच्छा कभी सफल नहीं हो सकती । मेरी विद्या मुझे फलद्रूप नहीं होगी, ऐसा शाप तुमने दिया । ठीक है । जिसे यह विद्या में सिखाऊँगा, उसे वह फलद्रूप होगी’।
कच II. n. इतना कह कच देवायानी से विदा ले कर देवलोक गया । इस प्रकार विद्या संपादन कर के जब वह देवलोक वापस आया-तब देवों ने तथा इन्द्र ने इसका स्वागत किया तथा यज्ञ का भाग इसे दिया
[म.आ.७१.७२] ;
[मत्स्य. २५-२६] ।