श्रीपञ्चमी
( भविष्योत्तर ) -
यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमीसे आरम्भ किया जाता है । एतन्निमित्त कमलपुष्प हाथमें लिये हुए कमलासनपर विराजमान और दो गजेन्द्रोंके छोड़े हुए दुग्ध या जलसे स्त्रान करती हुई लक्ष्मीका हदयमें ध्यानकर सुवर्णादिकी मूर्तिके समक्ष व्रत करनेका नियम करे और तीन प्रहर दिन बीतनेके बाद गङ्गा या कुएँ आदिपर स्त्रान करके उक्त मूर्तिको सुवर्णादिके कलशपर स्थापित करके सर्वप्रथम देव और पितरोंको तृप्त करे ( अर्थात् गणपति - पूजन, मातृका - पूजन और नान्दीश्राद्ध करे ) फिर उस ऋतुके फल - पुष्पादि लेकर यथाप्राप्त उपचारोंसे लक्ष्मीका पूजन करे । उसमें गन्ध - लेपनके पहले १ चञ्चला, २ चपला, ३ ख्याति, ४ मन्मथा, ५ ललिता, ६ उत्कण्ठिता, ७ माधवी और ८ श्री - इन आठ नामोंसे १ पाद, २ जंघा, ३ नाभि, ४ स्तन, ५ भुजा, ६ कण्ठ, ७ मुख और ८ मस्तककी अङ्गपूजा करके नैवेद्य अर्पण करे और सौभाग्यवती स्त्रीके तिलक करके उसे मधुरान्नका भोजन करावे तथा उसके पतिको ' श्रीर्मेप्रीयताम् ' का उच्चारण करके प्रस्थ ( लगभग एक सेर ) चावल और घी देकर भोजन करे । इस प्रकार १ मार्गशीर्षमें श्री, २ पौषमें लक्ष्मी, ३ माघमें कमला, ४ फाल्गुनमें सम्पत् , ५ चैत्रमें पद्मा, ६ वैशाखमें नारायणी, ७ ज्येष्ठमें धृति, ८ आषाढ़में स्मृति, ९ श्रावणमें पुष्टि, १० भाद्रपदमें तुष्टि, ११ आश्विनमें सिद्धि और १२ कार्तिकमें क्षमा - इन बारह देवियोंका यथापूर्व और यथाक्रम पूजन करके मण्डपादि बनवाकर उसमें वस्त्र आभूषण और वर्तन आदिसे समन्वित शय्यापर लक्ष्मीका पुनः पूजन करके सवत्सा गौसहित विद्वान् ब्राह्मणको दे और फिर भोजन करे तो इस व्रतसे सुत - सुख - सौभाग्य और अचल लक्ष्मी प्राप्त होती है ।