वरचतुर्थी
( स्कन्दपुराण ) -
पूर्वोक्त कृच्छ्रचतुर्थोके समान यह व्रत भी मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थोसे आरम्भ होकर चार वर्षमें पूर्ण होता है । प्रथम वर्षमें प्रत्येक चतुर्थीको दिनार्द्धके समय एक बार अलोन ( बिना नमकका ) भोजन, दूसरे वर्षमें नक्त ( रात्रि ) भोजन, तीसरेमें अयाचित भोजन और चौथेमें उपवास करके यथापूर्व समाप्त करे । यह व्रत सब प्रकारकी अर्थसिद्धि करनेवाला है । परिमित भोजनके विषयमें किसीने ३२ ग्रास और किसीने २९ ग्रास बतलाये हैं । ' स्मृत्यन्तर ' में
' अष्टौ ग्रासा मुनेर्भक्ष्याः षोडशारण्यवासिनः । द्वात्रिंशद् गृहस्थया परिमितं ब्रह्मचारिणः ॥'
मुनिको आठ, वनवासियोंको सोलह, गृहस्थोंको बत्तीस और ब्रह्मचारियोंको अपरिमित ( यथारुचि ) ग्रास भोजन करनेकी आज्ञा है । ग्रासका प्रमाण है एक आँवलेके बराबर अथवा जितना सुगमतासे मुँहमें जा सके, उतना एक ग्रास होता है । न्यून भोजनके लिये ( याज्ञवल्क्यने ) तीन ग्रास नियत किये हैं ।