हिन्दी पदावली - पद ९१ से १००

संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।


९१
कांइ रे भूले मूढे जना । चांमद करवा नहीं आपना ॥टेक॥
लोही रक्ता मंझा घनां । तुम जिनि जानौ तन अपना ॥१॥
भणत नांमदेव नाराइनां । रामनाम बिन धृग जीवना ॥२॥

९२
आव कलंदर केसवा । धरि अबदालव भेष बाबा ॥टेक॥
ताज कुलह ब्रह्मांडै कीन्हां । पाव सप्त पतांल जी ।
चमर पोस मृत मंडल कीन्हां । इहि बिधि बनै गोपाल जी ॥१॥
अठारै भार का मुंदगर कीन्हा । सहनक सब संसार जी ।
छप्न कोटि का परहन कीन्हा । सोलह सहस इजार जी ॥२॥
माया मसीति मन मुलानां । सहज निवाजि गुजार जी ।
कंवला सेती काइण पढीया । निराकार आकार जी ॥३॥
सहर विसहर सबै तुम फिरीया । तेरा किन हूं मरम न पाया ।
नामदेव का चित हरि सूं लागा । आसण करौ रामराया जी ॥४॥

९३
बैस्नौं ते मैं में ते वैस्नौं । सुनि नारद रिष सांच ।
जे भगता मेरे गुन गावै । ताकै अंतरिथ कौ मैं नाचौं नारद ॥टेक॥
नारद कहै सुनौ नाराइण । बैकुंठ बसौ कि कविलास ।
जहाँ मम कथा तहाँ मैं निहचै । बैस्नौ मंदिर बास नारद ॥१॥
गंगा सकल तीरथ करै । गुण चास कोटि करि आवै ।
ऐकादशी सहित संजम करै । ते मोंहि सुपने कदे न पावै नारद ॥२॥
जोगी जती तपी सन्यासी । ऐक मुनि ध्यान बईठा ।
जजै जग्य बेंद धुनि औचरै । तिनहूं कदे न दीठा नारद ॥३॥
जोग जग्गि तप नेम धरम व्रत । जब लगि इनकी आसा ।
बसुधा आदि देह दहिणांदिक । नहीं मम चरन निवासा नारद ॥४॥
जे भगता नृमल जस गावै । ते भगता भम सारं ।
जीया जीऊं पीया पीऊं । वैस्नौ मम परिवार नारद ॥५॥
बैस्नौ मैं दोई नाहीं नारद । प्रीति किया तैं आऊँ ।
भगति हेत यौ व्रत धर्‍यौ है । बैस्नौ हाथि बंधाऊ नारद ॥६॥
विसवाबीस आगै बरताऊं । निज जन नांव सूं राता ।
नामांनौ स्वामी परम पद आपै । भगति मुक्ति दोऊ दाता नारद ॥७॥

९४
माधौ भीतरि मार दुहेली ।
अबला कौ बल कहा गुंसाई । परतषि जाइ न पेली ॥टेक॥
ऐ अनेक मैं एक गुसाई । कहौ कहा बस मेरा ।
षेत की पहुंचि कहां लौ राषै । षसम न करही फेरा ॥१॥
तुम से बैद न औषदि औरे । मंत्र और नहीं जाना ।
व्याधि असाधि दयानिधि । पचि पचि गये सयांना ॥२॥
जिनकूं तुम हरि कारी कीन्हीं । बिथा औरि नहीं व्यापी ।
नामदेव कहै नहीं बस मेरा । कृपा करौ दुष कापी ॥३॥

९५
अवधू बेली विरधि करैली ।
निरगुण जाइ निरंजन लागी । मारीहूं न मरैली ॥टेक॥
सहज समाधै बाडी रे अवधू । सतगुरु बाही बेली ।
अमीमहारस सीचण लागा । तत तरवर जाइ चढैली ॥१॥
अमर बेलि अनभै जाइ लागी । टारी हू न टलैली ।
रुप रेष ताकै कछु नाहीं । चंदहिं कोटि फलैली ॥२॥
पांचूं मृघ पचीसूं मृघी । सूंघत देषि मरैली ।
निराकार नांमा तेरी बेली । अनंत अमर फल देली ॥३॥

९६
अनेक मरि भरि जाहिंगे अवधू । ऐक रांम नांम तत रहैला ॥टेक॥
मुई जु आसा मुई जु त्रिस्ना । मुई जु मनसा माई ।
लोभ हमारी बहनी मूंई । तिनका सोच हम नाहीं रे अवधू ॥१॥
माई का गोत मद मछार मूवा । बापका गोत अहंकार ।
काम क्रोध भाई भतीजा मरि गया । तिनका सोच हम नाहीं रे अवधू ॥२॥
जा कारनी जोगेस्वर मूवा । तास घरनि मैं जाऊंगा ।
नांमदेव सतगुरु साहीला । गोविंद चरन निवासा रे अवधू ॥३॥

९७
बैरागी रामहिं गाऊंगा ।
सबद अतीत अनाहद राता । अकुला कै घरि जाऊंगा ॥टेक॥
तीरथ जाऊं न जल मैं पैसूं । जीव जंत न सताऊंगा ।
अठसठि तीरथि गुरु लषाये । घट ही भीतरि न्हाऊंगा ॥१॥
पाती तोडि न पाहन पूजी । देवल देव न घ्याऊंगा ।
पांनि पांनि परसोतम राता । ताकूं मैं न सताऊंगा ॥२॥
वेद पुरान सास्त्र गीता । गीत कबीत न गाऊगा ।
अषंड मंडल निराकार मैं । अनहद बेनि अजाऊंगा ॥३॥
जडी न बूटी ओषद साधूं । राजबैद न कहांऊंगा ।
पूरण बैद मिल्यौ बनमाली । नित उंठि नाडि दिषांऊंगा ॥४॥
सदा संतोष रहूं आनंद मैं । साइर बूंद समाऊंगा ।
गगन मंडल मैं रहनि हमारी । पुनरपि जनमि न आऊंगा ॥५॥
इडा पिंगला सुषमनि नारी । पवनां मंझि रहाऊंगा ।
चंदसूर दोऊ समिकरि राषूं । ब्रह्म ज्योति मिलि जऊंगा ॥६॥
पांच सुभाई मन की सोभा । भला बुरा न कहांऊंगा ।
नामदेव कहै मैं केसव घ्याऊं । सहजि समाधि लगाऊंगा ॥७॥

९८
पुरिष हाजिर वरणि नाहीं । दूरि ठाढा बोलै मांहीं ॥टेक॥
ग्यांन ध्यांन रह्‌‍त षेलै । अदृष्टि मांह दृष्टि मेलै ॥१॥
संग लागा भेष काछै । सारीषा आगै अरु पाछै ॥२॥
निगंध रुप विवरजित बासा । प्रणवत नांमदेव हरि दासा ॥३॥

९९
देवा पातुर बाजै मादल नाचै । येवढा अंचंभा दीठा ।
पूछौ पढिया पंडिता । जल बैसंदर बूठा ॥टेक॥
चींटी ब्याई हस्ती जाया । येवढा अचंभा थाया ।
ऊभी ऊभी नांषीला । मैंमत घूमत आया ॥१॥
पांइन पंषि बिनाही उडिया । कैरुं डाली बैठा ।
नींब सदाफल सुफल फलिया । सो मोंहि लागै मीठा ॥२॥
ससै सींग मछै षुरी । भेड तडका कांनां ।
मांषी काजल सारन लागी । ऐसा ब्रह्म गियाना ॥३॥
गाई बियाई बछी जाई । गाई बछी कूं धावै ।
प्रणवत नामदेव गुरु परसादै । जो पोजै सो पावै ॥४॥

१००
आज कोई मिलसी मुनै राम सनेही । तब पावै हमारी देही ॥टेक॥
भाव भगति मन मैं उपजावै । प्रेम प्रीति हरि अंतरि आवै ॥१॥
आपा पर दुविधा सबनासै । सहजै आतम ग्यान प्रकासै ॥२॥
जन नांमा मन षरा उदास । तब सुष पावै मिलै हरिदास ॥३॥

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Last Updated : January 02, 2015

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