शाकल n. देवमित्र (वेदमित्र) शाकल्य नामक आचार्य के शिष्यों का सामूहिक नाम । इसी सामूहिक नाम के कारण इस शिष्यपरंपरा के आचार्य एवं उनके द्वारा संस्कारित ऋग्वेद संहिता ‘शाकल शाखान्तर्गत’ मानी जाती है । पाणिनि के अष्टाध्यायी में भी ‘शाकल’ शब्द का अर्थ भी ‘शाकत्य का शिष्य’ किया गया है ।
शाकल n. ऐतरेय ब्राह्मण में ‘शाकल’ शब्द का अर्थ एक प्रकार का साँप ऐसा दिया गया है, जो शाकल्य के शिष्यों की ही व्यंजना प्रतीत होती है । वहाँ अग्निष्टोम यज्ञ, रथचक्र के सदृश आदि एवं अंतविरहित होता है, इस कथन के लिए चक्राकार बैठे हुए ‘शाकल’ की उपमा दी गयी है
[ऐ. ब्रा. ३.५] ।
शाकल n. पाणिनि, कात्यायन, एवं पतंजलि के ग्रंथों में ‘शाकल’ का निर्देश प्राप्त है
[पा. सू. ४.१.१८, ३.१२८, ६.१.१२७] , जहाँ सर्वत्र ‘शाकल’ का निर्देश एक सामूहिक नाम के नाते से प्राप्त है । ऋग्वेद प्रातिशाख्य में ‘शाकल’ का निर्देश अनेक बार प्राप्त है
[ऋ. प्रा. ६५, ७६, ३९०, ४०३, ६३१, ६३३] । मॅक्स मूलर आदि पाश्र्चात्य वैदिक अभ्यासक, शाकलको एक आचार्य मानते है, जिसने शाकलशाखान्तर्गत प्रचलित ऋकसंहिता का निर्माण किया था । किंतु यह अभिमत भारतीय वैदिक परंपरा के दृष्टि से भ्रममूलक प्रतीत होता है; क्यों कि, जैसे पहले ही कहा जा चुका है, कि शाकल नामक कोई भी आचार्य प्राचीन वैदिक परंपरा में नहीं था ।
शाकल n. वर्तमानकाल में प्राप्त ऋग्वेद की संहिता शाकल शाखा की मानी जाती है । वायु के अनुसार, देवमित्र (वेदमित्र, विदग्ध) शाकल्य के निम्नलिखित पाँच शाखाप्रवर्तक शिष्य थेः---१. मुद्गल; २. गालव; ३. शालीय, ४. वात्स्य, ५. शैशिरेय (शैशर, अथवा शैशिरी) । शाकल्य के यही पाँच शिष्य ऋग्वेद के शाखाप्रवर्तक आचार्य नाम से सुविख्यात हुए। इन आचार्यों के द्वारा प्रणीत ऋग्वेद की विभिन्न शाखाओं की जानकारी निम्नप्रकार हैः-- (१) मुद्गल शाखा---इस शाखा की ऋग्वेद संहिता ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्त है । किंतु उस शाखा का निर्देश ‘प्रपंचहृदय’ आदि ग्रंथों में प्राप्त है । इस शाखा के प्रवर्तक भर्म्याश्र्व मुद्गल नामक आचार्य का निर्देश ऋग्वेद एवं बृहद्देवता में प्राप्त है
[ऋ. १०.१०२] ;
[बृहद्दे. ६.४६] । इसका वंशक्रम निम्नप्रकार माना जाता हैः-- भृम्यश्र्व-मृद्गल-वध्ऱ्यश्र्व-दिवोदास। (२) गालव शाखा---इस शाखा के प्रवर्तक गालव अथवा बाभ्रव्य पांचाल का निर्देश ‘अष्टाध्यायी’, ‘ऋक्प्रातिशाख्य’, ‘निरुक्त’, ‘बृहद्देवता’ आदि ग्रंथों में प्राप्त है । इस शाखा की संहिता, ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्य हैं। (३) शालीय शाखा---‘काशिका वृत्ति’ में शलीय का निर्देश एक शाखाप्रवर्तक आचार्य के नाते प्राप्त है । किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य है । (४) वात्स्य शाखा---पतंजलि के ‘व्याकरणमहाभाष्य’ में वात्सी नामक आचार्य का निर्देश प्राप्त है
[महा. ४.२.१०४] । किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य है
[भा. २. पृ. २९७] । (५) शैशिरेय शाखा---इस शाखा के संहिता का निर्देश ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी में प्राप्त है । शौनक के ‘अनुवाकानुक्रमणि’ के अनुसार इस शाखा के संहिता में ८५ अनुवाक, १०१७ सूक्त, २००६ वर्ग एवं १०४१७ मंत्र थे । इस शाखा का एक ‘प्रातिशाख्य’ भी उपलब्ध है, जो शौनक के द्वारा विरचित है । इस प्रातिशाख्य में वेदमित्र शाकल्य का निर्देश ‘शाकल्यपिता’ एवं ‘शाकल्यस्थविर’ नाम से किया गया है
[ऋ. प्रा. १.२२३,१८५] । शौनक स्वयं शैशिरेय शाखा का ही आचार्य था, जिस कारण उसके द्वारा विरचित प्रातिशाख्य ग्रंथ ‘शाकल प्रातिशाख्य’ अथवा ‘शैशिरेय प्रातिशाख्य’ नाम से सुविख्यात था । शौनक के द्वारा विरचित एक ‘अथर्वप्रातिशाख्य’ भी प्राप्त है, जो ‘चतुराध्यायिका’ नाम से सुविख्यात है ।
शाकल n. शाकल शाखा की आद्यसंहिता ‘शाकल्य संहिता’ थी, जिसका निर्देश ‘व्याकरणमहाभाष्य’ में प्राप्त है
[महा. १.४.८४] । कात्यायन की ‘ऋक्सर्वानुक्रमणी’ एवं शाकल्य का पदपाठ इसी संहिता को आधार मान कर लिखा गया है । इस पदपाठ के अनुसार, शाकल्य के मूल संहिता में १५३८२६ पद थे ।