वीतहव्य n. (सू. निमि.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार सुनय राजा का पुत्र था । भागवत में इसे शुनक राजा का पुत्र कहा गया है ।
वीतहव्य (आंगिरस) n. एक राजा, जो ऋग्वेद के कई सूक्तों का प्रणयिता माना जाता है
[ऋ. ६.१५] । ऋग्वेद में सुदास राजा के समकालीन के रूप में, एवं भरद्वाज ऋषि के साथ साथ इसका निर्देश प्राप्त है
[ऋ. ६.१५.२-३, ७.१९.१३] । अर्थवेद में, एक गाय (अथवा ब्राह्मण स्त्री) का हरण करने के कारण, इसका एवं इसके ‘वैतहव्य’ नामक अनुगामियों का पराजय होने की एक संदिग्ध कथा प्राप्त है । वहाँ उस गाय का संबंध जमदग्नि एवं असित ऋषियों के साथ निर्दिष्ट है
[अ. वे. ५.१७.६-७, १८.१०-१२] । किन्तु इस कथा का सही अर्थ अस्पष्ट है । अथर्ववेद में अन्यत्र इसे सृंजयो का राजा बताया गया है, एवं इसीके द्वारा भृगुऋषि का वध होने का निर्देश वहाँ प्राप्त है
[अ. वे. ५.१९.१] । संभवतः इस कथा का संकेत परशुराम के पिता जमदग्नि भार्गव की मृत्यु से होगा, एवं इस कथा में निर्दिष्ट वीतहव्य हैहय वंशीय होगा। यदि यह सच हो, तो हैहयवंशीय वीतहव्य एवं यह दोनों एक ही होंगे (वीतहव्य २. देखिये) ।
वीतहव्य (श्रायस) n. एक राजा
[तै. सं. ५.६, ५.३] ;
[का. सं. २२.३] ;
[पं. ब्रा. २५.१६.३] । यह संभवतः वीतहव्य आंगिरस के वंश में ही उत्पन्न हुआ होगा। पंचविंश ब्राह्मण में इसे ‘निर्वासित जीवन व्यतीत करनेवाला’ (निरुद्ध) राजा बताया गया है
[पं. ब्रा. ९.१.९] । किन्तु भाष्यकार इसे एक राजा नहीं, बल्कि एक ऋषि मानते है । संतति प्रदान करनेवाले की प्रशंसा करते समय, इसका निर्देश उदाहरण के रूप में प्राप्त है, जहाँ ऐसा ही एक यज्ञ करने के कारण इसे १००० पुत्र उत्पन्न होने की जानकारी दी गयी है ।
वीतहव्य II. n. (सो. सह.) एक राजा, जो हैहयवंशीय तालजंघ राजा का पुत्र था । यह सुविख्यात हैहय सम्राट कार्तवीर्य अर्जुन का प्रप्रौत्र, एवं जयध्वज राजा का पौत्र था । इसे कुल सौ भाई थे । परशुराम के द्वारा किये गये क्षत्रियसंहार के समय यह अपना राज्य छोड़ कर भाग गया। रास्ते में इसने अपने पिता तालंजघ को देखा, जो परशुराम के बाणों से आहत हुआ था । उसे रथ पर बिठा कर यह हिमालय प्रदेश में गया, एवं वही एक दर्रे में छिप गया। आगे चल कर क्षत्रियसंहार से परशुराम के निवृत्त होने पर, यह हिमालय से लौट आया, एवं इसने माहिष्मती नामक नगरी की स्थापना की। पश्र्चात् इसने अयोध्या पर आक्रमण किया, एवं वहॉंके इक्ष्वाकुवंशीय फल्गुतंत्र राजा को पराजित किया। आगे चल कर, इसने काशि देश पर आक्रमण किया, किन्तु यह उस देश पर विजय न पा सका, एवं इसका एवं काशिराजाओं का युद्ध पीढ़ियों तक चलता रहा।
वीतहव्य II. n. इस ग्रंथ में इसे हैहय कहा गया है, एवं इसकी दस पत्नीयों का निर्देश वहाँ प्राप्त है । अपनी इन पत्नीयों से इसे प्रत्येक से दस पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्होंने काशि देश के हर्यश्र्व, सुदेव एवं दिवोदास राजाओं को पराजित किया। आगे चल कर, काशि के दिवोदास राजा को भरद्वाज मुनि के कृपाप्रसाद से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रतर्दन ने इसके सारे पुत्रों का वध किया, एवं इस पर भी इतना जोरदार आक्रमण किया कि, यह भृगु ऋषि के आश्रम में जा कर छिप गया। इसका पीछा करते हुए, प्रतर्दन भृगुऋषि के आश्रम में पहुँच गया, एवं इसे ढूँढ़ने लगा। इस पर भृगुऋषि ने प्रतर्दन से कहा कि, उसके आश्रम में रहनेवाले सारे लागे ब्राह्मण ही है, एवं वहाँ क्षत्रिय कोई भी नहीं है । पश्र्चात् भुगुऋषि के कहने पर इसने अपने क्षत्रियधर्म को छोड़ दिया, एवं यह ब्राह्मण बन गया।
वीतहव्य II. n. आगे चल कर भृगुऋषि के कृपाप्रसाद से यह ब्रह्मर्षि बन गया, एवं इसे गृत्समद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ
[म. अनु. ३०.५७-५८] । इसका गोत्र भार्गव था एवं यह उस गौत्र का मंत्रकार भी था । वीतहव्य नामक एक जीवन्मुक्त ऋषि की कथा वसिष्ठ ने राम से कथन की थी, जो संभवतः इसीकी ही होगी। कई अभ्यासक, वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट वीतहव्य आंगिरस नामक ऋषि एवं यह दोनों एक ही मानते है ।