त्रसदस्यु (पौरुकुत्स्य) n. (सो. पूरु.) एक सूक्तद्रष्टा
[ऋ.४.४२,५. २७, ९.११०] । यह ‘पूरुओं का राजा’ था
[ऋ.५.३३.८, ७.१९.३, ८. १९. ३६] । इसका ‘पौरुकुत्सि’
[ऋ.७.१९.३] । तथा ‘पौरकुत्स्य’
[ऋ.५.३३.८] नामों से उल्लेख आया है । इसक पैतृक नाम गौरीक्षित था । यह पुरुकुत्स का पुत्र था
[ऋ.४.४२.८,७.१९.३] । एक अत्यंत महान विपत्ति के समय, पुरुकत्स की पत्नी पुरुकुत्सानी के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ
[ऋ.४.२३८.१] । सायण के मत में, इसके जन्म के समय पुरुकुत्स कारागार में बन्दी या उसकी मृत्यु हो गयी थी । यह गिरीक्षित का वंशज था
[ऋ.५.३३.८] , एवं इसका पिता पुरुकुत्स दुर्गह का वंशज था । अतः इसका वंशक्रम इस प्रकार प्रतीत होता हैः--दुर्गह, गिरीक्षित, पुरुकुत्स, एवं त्रसदस्यु । त्रसदस्यु को हिरणीन नामक एक पुत्र था
[ऋ.५.३३.७] , एवं तृक्षि का यह पूर्वज था
[ऋ.८.२२.७] । त्रसदस्यु का पिता पुरुकत्स सुदास का समकालीन था । किंतु वह सुदास का मित्र था, या शत्रु
[लुडविग, ३. १७४] , यह निश्चित रुप से नही कह सकते । सुदास क पूर्वज दिवोदास के साथ पूरु लोगों का एवं तृत्सुओ का शत्रुत्व था, यह दाशराज्ञयुद्ध से जाहिर होता है । तथापि यह युद्ध पुरुकुत्स के समय ही समाप्त हो गया था । त्रसदस्यु का इस युद्ध से कुछ भी संबंध नहीं था । कालान्तर में कुरु तथा पूरु दोनों लोग एक हो गये । इसका प्रमाण त्रसदस्युपुत्र कुरुश्रवण के नाम से जाहिर होता है । कुरुश्रवण तथा तृक्षि
[ऋ.८.२२.७] , दोनों को भी ‘त्रासदस्यव’ (त्रसद्रस्यु का पुत्र) कहा गया है । द्रुह तथा पूरु लोगों के साथ, साथ एक स्थान पर
[ऋ.६.४६.८] , तृक्षि का भी उल्लेख प्राप्त है । जब तक कुछ विरोधी साक्षी नहीं मिलती, तब तक यह माननें में कुछ हर्ज नहीं है कि, कुरुश्रवण एवं तृक्षि दोनों भाई भाई थे । कुरु लोगों का निवासस्थान मध्यदेश में था । पूरु लोग सरस्वती के किनारे रहते थे । यह सरस्वती भी मध्यदेश की ही है । यह भी कुरु-पूरुओं का साध्यर्म्य एवं एकरुपता दर्शाता है । इसने अपनी पचास कन्याएँ सौभरि काण्व को पत्नी के रुप में दी थीं
[ऋ.८.१९.३६] । ऋग्वेद में, त्रिवृषन्, त्र्यरुण त्र्यैवृष्ण तथा अश्वमेध
[ऋ.५. २७. ४-६] ये सारे समानार्थक, एवं एक ही व्यक्ति के नामांतर माने गये है । किंतु त्रिवृषन् अथवा त्र्यरुण के साथ, त्रसदस्यु का वास्तव में क्या संबंध था, यह वैदिक ग्रंथो से नही समझता । प्राचीन काल में, प्रसिद्ध यज्ञ करने वाले के रुप में, त्रसदस्यु पर आटणार, वीतहव्य श्रायस तथा कक्षीवत् औशिज के साथ त्रसदस्यु का उल्लेख आया है
[तै.सं.५.६.५.३] ;
[क.सं.२२.३] ;
[पं.ब्रा.१३.३] । इन सब को पुरातन थोर राजा (‘पूर्वे महाराजाः’) कहा गया है
[जै.उ.ब्रा.२.६.११] । एक बार त्र्यरुण राजा अपना पुरोहित वृश जान को साथ ले कर रथ में जा रथा था । पुरोहित के द्वारा रथ द्रुत गति से चलाया जाने से, एक ब्राह्मण-पुत्र की रथ के नीचे मृत्यु हो गई । तब राजा ने पुरोहित से कहा, ‘तुम रथ जब हॉंक रहे थे, तब लडका मृत हुआ । इसलिये इस हत्या के लिये जिम्मेवार, तुम हो।’ । परंतु पुरोहित ने कहा, ‘रथ तुम्हारा होने के कारण, इस हत्या के जिम्मेवार तुम ही हो’। इस प्रकार लडते झगडते दोनों इक्ष्वाकु राजा के पास गये । इक्ष्वाकु राजा ने कहा ‘चूँकि रथ पुरोहित के द्वारा हॉंका जा रहा था, इसलिये हत्या करनेवाला वृश जान ही है’। तदनंतर वार्श साम नामक स्तोत्र कह कर, वृश जान ने उस बालक को पुनः जीवित किया । फिर भी इक्ष्वाकु राजा ने पक्षपात कर वृश जान को ही दोषी ठहराया, इसलिये इक्ष्वाकु राजा के घर से अग्नि गुप्त हो गया । यज्ञयाग बंद हो गये । पूछताछ करने पर राजा को पता चला कि, वृश जान को मैं ने दोषी कहा, इसलिये अग्नि मेरे घर से चला गया है । बाद में राजा वृश जान के पास गया । तब उसने वार्श सामसूक्त कह कर अग्नि को वापस लाया । इससे इक्ष्वाकु राजा के घर के यज्ञयाग पूर्ववत प्रारंभ हो गये
[ऋ.५.२१] ; सायण भाष्य में सें ‘शाटयायण ब्राह्मण’;
[अतांडक.५.२.१] । इस कथा का ऋग्वेद से
[ऋ.५.२] संबंध दर्शाया गया है । यहॉं त्र्यरुण, त्रैवृष्ण तथा त्रसदस्यु को एक ही माना गया है, एवं उसे ऐश्वाक कहा है । परंतु यह बात सायणाचार्य मान्य नहीं करते
[ऋ.५.२७.३] ;
[बृहद्दे.५,१३-२२] । इसका पुत्र कुरुश्रवण
[ऋ.१०.३३.४] । इसे हिरणिन् नामक और भी एक पुत्र होगा । परंतु सायण के मतानुसार ‘हिरणिन्’ धनवान् के अर्थ का विशेषण है
[ऋ. ५.५३.८, ६.६३.९] । यह अंगिरस् गोत्रीय मंत्रकार था ।
त्रसदस्यु (पौरुकुत्स्य) II. n. (सू.इ.) पुरुकुत्स एवं नर्मदा का पुत्र
[वायु.८८.७४] । मस्य में इसे वसुद कहा है । भविष्य में इसके लिये त्रिंशदश्व पाठभेद है । मत्स्य में नर्मदा को त्रसदस्यु की पत्नी बताया है
[मत्स्य. १२.३६] ;
[ब्रह्म. ७.९५] । यह सूर्यवंश का था ।