दिवोदास n. (सो. काश्य.) भागवत तथा विष्णुमत में भीमरथपुत्र तथा विष्णुमत में अभिरथपुत्र । ब्रह्म तथा वायु मत में यह भीमरथ का ही दूसरा नाम है । महाभारत में इसे काशीपति सौ देव कहा गया है । इसका पितामह हर्यश्व हो कर, पिता सुदेव अथवा भीमरथ था । इसका पराजय हैहय वीतहव्य ने किया । तब यह भरद्वाज ऋषि की शरण में गया । इसके द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने पर, इसे प्रतर्दन वा अप्रतिरथ नामक शत्रुनाशक पुत्र हुआ । उसने हैहय वीतहव्यों का पराभव किया तथा वीतहव्य को भृगु के आश्रम में छिपने के लिये मजबूर कर दिया
[म.अनु.८ कुं.] । प्रतर्दन के साथ भारद्वाज ऋषि का स्नेहसंबंध था
[क.सं.२१.१०] । इसकी पत्नी का नाम दृषद्वती । इसे दृषद्वती से ही प्रतर्दन हुआ था
[ब्रह्म.११.४०.४८] । प्रतर्दन, अप्रतिरथ, शत्रिजित्, ऋत्वध्वज, तथा कुवलाश्व ये सारे एक ही है
[भा.९.१७.६] । इसे ययातिकन्या माधवी से प्रतर्दन हुआ, यह कथा महाभारत में दी गयी है
[म.उ.११५.१.१५] । किंतु कालदृष्टि से वह विसंगत अतएव असंभव मालूम पडते है । यह यमसभा का एक सदस्य था
[म.स.८.११] । ‘भास्करसंहिता’ के ‘चिकित्सादर्पणतंत्र’ का यह कर्ता है
[ब्रह्मवै. २.१६] । धन्वन्तरि के आगे दिवोदास शब्द जोडा जाता है । वह शब्द वंशदर्शक होगा ।
दिवोदास (अतिथिग्व) n. (सो.नील.) वैदिक युग का एक प्रमुख राजा । यह वध्र्यश्व का पुत्र, एवं भरतवंशान्तर्गत तृत्सु लोगों का सुविख्यात राजा सुदास का पिता (वा पितामह) था । ‘अतिथिग्व’ का शब्दशः अर्थ है ‘अतिथि का सम्मान करनेवाला’ । यह उपाधि दिवोदास एवं सुदास को लगायी जाती थी
[ऋ.१.५१.६,७.१९.८] । ‘अतिथिग्व’ की उपपात्ते सायणाचार्य ने ‘अतिथिगु का पुत्र’ ऐसी दी है
[ऋ.१०.४८.८] । सरस्वती की कृपा से वध्र्यश्व को दिवोदास पुत्ररुप में प्राप्त हुआ
[ऋ.६.३१.१] । यह भरतों में से एक था
[ऋ.६.१६.४,५.१९] , एवं तुर्वशों तथा यदुओं का विरोधी था
[ऋ.७.१९.८,९.६१.२] । संभवतः इसके पुत्र का नाम ‘पिजवन’ हो कर, सुदास इसका पौत्र था । वध्र्यश्व, दिवोदस, पिजवन, तथा सुदास इस प्रकार इसका वंशक्रम होगा । इसका महान् शत्रु शंबर एक दास एवं किसी पर्वतीय जाति का प्रधान था
[ऋ.१.१३०.७,२.१२.११,६. २६.५,७.१८.२०] । इसने शंबर का कई बार परभव किया
[ऋ.१.५१.६] ; शंबर देखिये । अपने पिता वध्र्यश्व के समान, यह भी अग्नि का उपासक था
[ऋ.६.१६.५, १९] । इस लिये अग्नि को दैवोदास अग्नि नाम पडा
[ऋ.८.१०.२] । परुच्छेप के सूक्त में इसका संबंध दिखता है
[ऋ.१.१३०.१०] । भरद्वाज के छठवें मंडल में इसके काफी महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं । इसका पुरोहित भरद्वाज था । आयु एवं कुत्स के साथ, यह इंद्र के हाथों मे पराजित हुआ था । किंतु अदारसृत नामक साम के प्रभाव से, यह पुनः वैभवसंपन्न हुआ
[पं.ब्रा.१५.३.७] । भरद्वाज के साथ इसका संबंध पुराणादि में भी बार बार आया है । यह तथा दिवोदास नील वंशज एक ही होगे । वध्र्यश्व को मेनका से एक कन्या तथा एक पुत्र हुआ । उनमें से पुत्र का नाम दिवोदास, एवं कन्या का नाम अहल्या था । अहल्या शरद्वत गौतम को दी गयी थी
[ह.वं.१.३२] । भागवतमत में यह मुद्नल का, विष्णु मत में वध्र्यश्व का, वायुमत में ब्रध्न्यश्व का, तथा मत्स्यमत में विंध्याश्व का पुत्र था । पुराणों में इसका पुत्र मित्रयु दिया गया है । परंतु वेदों में
[ऋ.८.६८.१७] । इसका पुत्र इंद्रोत दिया है । ऋक्ष अश्वमेघ, पूतक्रतु, प्रस्तोक तथा सौभरि ये लोग इसके समकालीन थे ।
दिवोदास (अतिथिग्व) II. n. भृगुकुल का एक ऋषि, प्रवर तथा मंत्रकार (भृगु देखिये) । यह प्रथम क्षत्रिय था । बाद में ब्राह्मण बना
[मत्स्य. १९५.४२] ; परुच्छेप दैवादासि देखिये ।
दिवोदास (अतिथिग्व) III. n. दिव्यादेवी देखिये।
दिवोदास II. n. (सो. काश्य.) काशी देश का राजा । यह सुदेव का पुत्र तथा अष्टारथ का पिता था । परंतु ब्रह्म तथा महाभारत के सिवा अन्य स्थान की वंशावलि में, इतनी जानकारी भी नहीं मिलती । हैहयवंशो से तुलना करने पर काश्यवंश में दो दिवोदासों को मान्यता देना अनिवार्य प्रतीत होता है । इसने भद्रश्रेण्य से काशी जीत ली, एवं वहॉं अपना राज्य स्थापित किया । किंतु निकुंभ के शाप से, इसे काशी छोड कर, गोमती तीर पर दूसरी राजधानी स्थापित करने पडी । अतः हैहय तथा काश्य घरानों का झगडा कुछ काल के लिये स्थगित हुआ । किंतु भद्रसेण्य का पुत्र दुर्मद बडा होने पर, उसने दिवोदास का पराभव किया
[म.अनु,३०] ;
[ब्रह्म ११.४८,१३.५४] ;
[ह.वं. १.२९] ;
[ब्रह्मांड.३.६७] ;
[वायु.९२.२६] । इसकी पत्नी का नाम सुयशा तह । उससे इसे अष्टारथ नामक पुत्र हुआ थ
[ब्रह्म१३.३१] ।