यास्क n. निरुक्त नामक सुविख्यात ग्रंथ का कर्ता, जो ‘शब्दार्थतत्त्व’ का परमज्ञाता माना जाता है । यस्क ऋषि का शिष्य होने से इसे संभवत: ‘यास्क’ नाम प्राप्त हुआ होगा । इसने प्रजापति कश्यप के द्वारा लिखित निघंटु नामक ग्रंथ पर विस्तृत भाष्य लिखा था, जो ‘निरुक्त’ नाम से प्रसिद्ध है । इसके द्वारा लिखित यह ग्रंथ वेदार्थ का प्रतिपादन करनेवाला सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ माना जाता है । महाभारत के अनुसार, दैवी आपत्ति से विनष्ट हुआ निरुक्त ग्रंथ इसे विष्णुप्रप्ताद के कारण पुन: प्राप्त हुआ
[म. शां. ३३०.८-९] । इसी कारण इसने अनेक यज्ञों में श्रीविष्णु का शिपिविष्ट नाम से गान किया है
[म. शां, ३३०.६-७] । बृहदारण्यक उपनिषद में यास्क को आसुरायण नामक आचार्य का समकालीन एवं भारद्वाज ऋषि का गुरु कहा गया है
[वृ. उ. २.५.२१, ४.६.२७. माध्यं] ;
[श. ब्रा, १४.५,५,२१] । संभवत: निरुक्तकार यास्क एवं उपनिषदों में निर्दिष्ट यास्क दोनो एक ही व्यक्ति होगें । उसी ग्रंथ में अन्यत्र इसके शिष्य का नाम जातूकर्ण्य दिया गया है
[बृ. उ. २.६.३, ४.६.३] । निरुक्त के अंत में यास्क को ‘पारस्कर’ कहा गया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह पारस्कर देश में रहनेवाला था । पाणिनि के व्याकरणंग्रंथ में यास्क शब्द की व्युत्पत्ति प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, यह पाणिनि के पूर्वकालीन था
[पा, स. २.४.६३] । पिंगल के छंदःसूत्र में एवं शौनक ऋकप्रातिशाख्य में इसका निर्देश प्राप्त है ( छं. सू. ३.३० ); शौनक देखिये इसका काल लगभग ई. पू. ७७० माना जाता है ।
यास्क n. वेदों में प्राप्त मंत्रों का शब्दव्युत्पत्ति, शब्दरचना आदि के द्दष्टी से अध्ययन करनेवाले शास्त्र को ‘निरूक्त’ कहते है । यद्यपि आग्रायण, औदुंबरायण, औपमन्यव, शाकपूणि आदि प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञों ने निरुक्तों की रचना की थी, तथापि उनके ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है । प्राचीन निरुक्त ग्रंथो में से यास्क का निरुक्त ही आज उपलब्ध है, निसमें ऋग्वेद के कई मंत्रों के अर्थ का स्पष्टीकरण. एवं देवताओं के स्वरुप का निरुपण किया गया है । इस ग्रंथ में गार्ग्य, औदुंबरायण एवं शाकपूणि नामक पूर्वाचायों का निर्देश प्राप्त है । निरुक्त तथा व्याकरण ये दोनों शास्त्र शब्दज्ञान एवं शब्दव्युत्पत्ति से ही संवंधित है । वेदमंत्रों का अर्थ जानने के लिए पहले उनकी ‘निरुक्ति’ जानना आवश्यक होता है । इसी कारण, जो कठिण शब्द व्याकरणशास्त्र से नही सुलझते थे, उनके अर्थज्ञान के लिए निरुक्त की रचना की गयी है । यारक के पहले ‘निघंटु’ नामक एक वैदिक शब्दकोश था, जिस पर इसने निरुक्त नामक अपने भाष्य की रचना की । वेदों में प्राप्त विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थ में क्यों रुढ है, इसकी निरुक्ति इस ग्रंथ में की गय़ी है । इसी कारण वर्णागम, वर्णविषर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश, आदि विषयों का का प्रतिपादन निरुक्त में किया गया है । यास्क ने वैदिक शब्दो को धातुज नाम कर उनकी निरुक्ति की है, जिस कारण वह एक असाधारण ग्रंथ वन गया है । इस ग्रंथ में वैदिक शब्दों की व्याख्या के साथ व्याकरण, भाषाविज्ञान, साहित्य आदि विषयों की जानकारी भी प्राप्त हैं । निरुक्त में नैघंटुक, नैगम एवं दैवत नामक तीन काण्ड है, जो बाहर अध्यायों में विभक्त किये गये है ।
यास्क n. यास्क ने अपने ‘निरुक्त’ में इस विषय के वारह निम्नलिखित पूर्वाचायों का निर्देश किया है---औदुस्वरायण, औपमन्यव, वाष्यांयणि, गाग्यं, आग्रहायण, शाकष्ठणि, और्णवाभ, तैटीकि, गालव, स्थालाष्ठीवि, क्रौष्टु एवं कात्धक्य ।
यास्क n. एक प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञ के नातें, यारक भाषाशास्त्रीय विचारप्रणालियों का आद्य आचार्य माना जाता है । इसका मत था, कि जो शब्द भाषा के प्रचलित लौकिक शब्दों के समान रहते है, वे ही अर्थवान् बनते है ( अर्थवन्त: शब्दसाम्यात नि. १.१६ )। अपने ग्रंथ में वैदिक मंत्रों का अशुद्ध उच्चारण करनेवाले व्यक्तियो की यास्क ने कटु आलोचना की है । इसने कहा है, स्वर एवं वर्ण से भ्रष्ट हुयें मंत्र इंद्रशत्रु की भाँति वागवज्र हो कर यजमान को विनष्ट कर देते है । वैदिकमेत्रो का प्रथम दर्शन करनेवाले प्रतिभावान् व्यक्ति को इसने मंत्रद्रष्टा अथवा ऋषि कहा है ऋषिर्दर्शनात्. ऋषय: मंत्रद्रष्टार;
[नि. २.११] ।