मातरिश्वन n. ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक देवता, जो प्रायः अग्नि तथा अग्नि को उत्पन्न करनेवाले देवता से समीकृत की गयी है । इस देवता का निर्देश ऋग्वेंद के तृतीय मंडल में पॉंच बार्म एवं षष्ठ मंडल में एक बार प्राप्त है । उनमें से तीन स्थलों पर इसे अग्नि का ही नामाण्तर बताया गया है
[ऋ.३.५.९, २६.२] । ऋग्वेद में अन्यत्र तनूनपात्, नराशंस, यम एवं मातरिश्वन् को अग्नि के ही नामाण्तर बताये गये हैं
[ऋ.१.१६४,३.२९] ।
मातरिश्वन n. ऋग्वेद के प्रथम मंडल के अनुसार, मातरिश्वन् अग्नि के एक दिव्य रुप का मूर्तिकरण प्रतीत होता है । वहॉं इसे आकाश से पृथ्वीपर आनेवाला विवस्वत् का दूत बताया गया है, एवं इसके द्वारा गुप्त अग्नि को पृथ्वी पर लाने का संकेत भी किया गया है
[ऋ.१.२८.२, ३.५.९, ६.८.४] । मातरिश्वन् को विद्युत् से से समीकृत किया गया प्रतीत होता है । ऋग्वेद के विवाहसूक्त में दो प्रेमियों के हृदय को संयुक्त करने के लिए मातरिश्वन् का आवाहन किया गया है
[ऋ.१०.८५.४७] । अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ एवं उनके उत्तरकालीन साहित्य में मातरिश्वन् नाम वायु की उपाधि के रुप में प्रयुक्त किया गया है । इसे वायु के समान वेगवान्, एवं सर्प की भॉंति फूँफकार मारता हुआ बताया गया है
[ऋ.१.६.६०,३.२९.११] ;
[जै.उ.ब्र.४.२०.८] ।
मातरिश्वन n. भाषाशास्त्रीय दृष्टि से मातरिश्वन् शब्द का अर्थ, ‘जिसका अपनी माता में निर्माण हुआ हो’ किया जाता है । यहॉं माता शब्द से गर्जन करनेवाले मेघ का आशय हो सकता है, क्योकि, मातरिश्वन् आकाश से आ सकते है । यास्क के अनुसार, मातरिश्वन् की व्युत्पत्ति, ‘जो अंतरिक्ष में (मातरि)सॉंस लेता है (श्वन्)’ ऐसी की गयी है । वहॉं इसे वायु में सॉंस लेनेवाला पवन माना गया है
[नि.७.२६] ।
मातरिश्वन II. n. एक सुविख्यात यज्ञकर्ता, जिसका निर्देश ऋग्वेद के वालखिल्य सूक्त में मेध्य एवं पृषध्र नामक आचार्यो के साथ प्राप्त है
[ऋ.८.५२.२] । सांख्यायन श्रौतसूत्र में इसका निर्देश पृषध्र, मेध्य मातरिश्वन्, एवं मातरिश्व नाम से किया गया है
[सां.श्रौ.१६.११.२६] । किन्तु वे दोनों पाठ योग्य नहीं प्रतीत होते हैं, क्यों कि, पृषध्र एवं मेध्य ये दोनो मातरिश्वन् से अलग व्यक्ति थे । ऋग्वेद में अन्यस्थान पर दध्यड को मातरिश्वपुत्र कहा गया है
[ऋ.१०.४८.२] ।
मातरिश्वन III. n. गरुड की प्रमुख सन्तानों में से एक
[म.उ.९९.१४] ।