धनंजय II. n. अर्जुन का एक नाम । संपूर्ण देशों को जीत कर, कररुप में धन ले कर, उसके बीच में स्थित होने के कारण, अर्जुन का नाम धनंजय हुआ था
[म.वि.३९.११] ; अर्जुन देखिये ।
धनंजय III. n. भगवान शंकरद्वारा स्कंद को दी हुई असुरसेना का नाम
[म.श.२७६] ।
धनंजय IV. n. वसिष्ककुल का एक ब्राह्मण---इसे १०० स्त्रियॉं तथा अनेक पुत्र थे । इसने अपना धन उनमें बराबर बॉंट दिया । फिर भी उन पुत्रों में अनबन बनी रहती थी । उन झंझटों से तंग आ कर, इसका करुण नामक पुत्र, भवनाशिनी नदी के तट पर रहने के लिये गया । अंत में शिवभस्म से इसका उद्धार हुआ ।‘शिवभस्म का माहात्म्य बताने के लिये यह कथा दी गयी है
[पद्म. पा.१.१५२] ।
धनंजय IX. n. विश्वमित्रकुल का एक मंत्रद्रष्टा ब्रह्मर्षि (कुशिक देखिये) ।
धनंजय V. n. एक वैश्य । दक्षिण समुद्र के तट पर यह रहता था । इसकी माता की मृत्यु होने पर, यह उसकी अस्थियॉं ले कर काशी गया । अस्थियॉं ढोनेवाले शबर साथी ने उसे द्रव्य का हॉंडा समझ कर चुरा लाया । तब धनंजय पुनः उस शबर के घर गया । उसकी स्त्री को यथेच्छ द्रव्य देना मान्य कर, उसने वह हॉंडा मॉंगा । परंतु शबर ने वह जंगल में ही छोड दिया था । इसलिये इस वह नहीं मिला
[स्कंद.४.१.३०] ।
धनंजय VI. n. त्रेतायुग का एक ब्राह्मण । इसने विष्णु की अत्यंत भक्ति की । वस्त्रप्रावरण ने होने के कारण, इसने पीपल की एक शाखा तोड कर आग जलाई । पीपल को तोडते हे, विष्णु के शरीर पर जख्म के घाव पड गये । इसके भक्ति से प्रसन्न हो कर विष्णु इसके पास आया । इसने विष्णु के शरीर के जख्मों का कारण उसे पूछा । विष्णु ने कहा, ‘अश्वत्थ की शाखा तोडने के कारण, मेरे शरीर पर ये घाव पडे है’। तब यह अपनी गर्दन तोडने को तैय्यार हो गया । विष्णु ने इसे वर मॉंगने के लिये कहा । इसने वररुप में ‘विष्णुभक्ति’ की ही याचना की
[पद्म. क्रि.१२] । ‘अश्वत्थमाहात्म्य’ बताने के लिये यह कथा दी गयी है ।
धनंजय VII. n. अत्रि के कुल की वंशवृद्धि करनेवाला एक ऋषि ।
धनंजय VIII. n. वर्तमान मन्वन्तर का सोलहवॉं व्यास (व्यास देखिये) ।
धनंजय X. n. कुमारी का पति
[म,.उ.११५.४६० पंक्ति.५] ।