झीनी-झीनी प्रेमकी डोरी मोपे, तोरी न छोड़ी जाय ॥ टेर॥
साँकर होय तो तोर दिखाऊँ, वज्र होय तो पीस उड़ाऊँ ।
पर्वत होय तो धार दिखाऊँ, धनुष होय तो तोडूँ छिनमें -
प्रीति न तोड़ी जाय ॥१॥
सागर होय तो बाँध बनाऊँ, खंभ होय तो चीर दिखाऊँ ।
तीन लोक लेऊँ नाप पाँव ते, प्रीति न नापी जाय ॥२॥
बीस भुजा छिन माँहि उखारुँ, सहस्त्र बाहुको काट मैं डारुँ ।
हृदय चीर हिरणाकुश मारुँ, भौहें मरोड़ उलट दूँ सृष्टि -
प्रीति न उलटी जाय ॥३॥
योग चाहे तो योग दे डारुँ, भोग चाहे तो भोग दे टारुँ ।
मुक्ति चाहे तो मुक्ति दे तारुँ, परम भक्त मेरी प्रेम डोरसों -
बँध्यो न बाँध्यो जाय ॥४॥
सब अनाथ मैं नाथ कहायो, सबही हार मोहे शीश नवायो ।
मोइ मायोको पार न पायो, सो मैं चाकर बनूँ भगतको - ।
प्रेमानंद बलि जाय ॥५॥