लीला गान - झीनी -झीनी प्रेमकी डोरी...

’लीलागान’में भगवल्लीकी मनोमोहिनी मनको लुभाती है ।


झीनी-झीनी प्रेमकी डोरी मोपे, तोरी न छोड़ी जाय ॥ टेर॥

साँकर होय तो तोर दिखाऊँ, वज्र होय तो पीस उड़ाऊँ ।

पर्वत होय तो धार दिखाऊँ, धनुष होय तो तोडूँ छिनमें -

प्रीति न तोड़ी जाय ॥१॥

सागर होय तो बाँध बनाऊँ, खंभ होय तो चीर दिखाऊँ ।

तीन लोक लेऊँ नाप पाँव ते, प्रीति न नापी जाय ॥२॥

बीस भुजा छिन माँहि उखारुँ, सहस्त्र बाहुको काट मैं डारुँ ।

हृदय चीर हिरणाकुश मारुँ, भौहें मरोड़ उलट दूँ सृष्टि -

प्रीति न उलटी जाय ॥३॥

योग चाहे तो योग दे डारुँ, भोग चाहे तो भोग दे टारुँ ।

मुक्ति चाहे तो मुक्ति दे तारुँ, परम भक्त मेरी प्रेम डोरसों -

बँध्यो न बाँध्यो जाय ॥४॥

सब अनाथ मैं नाथ कहायो, सबही हार मोहे शीश नवायो ।

मोइ मायोको पार न पायो, सो मैं चाकर बनूँ भगतको - ।

प्रेमानंद बलि जाय ॥५॥

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Last Updated : January 22, 2014

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