लीला गान - मैया मोरी मैं नहिं मा...

’लीलागान’में भगवल्लीकी मनोमोहिनी मनको लुभाती है ।


मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो ॥

भोर भयो गैयनके पाछे, मधुवन मोहि पठायो ।

चार पहर वंशीवट भटक्यो,साँझ परे घर आयो ॥१॥

मैं बालक बहिंयनको छोटो,छींको किहि बिधि पायो ।

ग्वाल- बाल सब वैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो ॥२॥

तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतियायो ।

जिय तेरे कछु भेद उदजिहै, जानि परायो जायो ॥३॥

यह लै अपनी लकुटि कमरिया,बहुतहि नाच नचायो ।

‘सूरदास’ तब बिहँसि यसोदा, लै उर- कंठ लगायो ॥४॥

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Last Updated : January 22, 2014

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