जो रस बरस रह्यो बरसाने सो रस तीन लोकमें नाहिं ।
तीन लोकमें नाहिं वो रस वैकुण्ठहूमें नाहिं ॥ टेक॥
सँकरी गली बनी पर्वतकी, दधि लै चली कुमारि कीरतिकी ।
आगे गाय चरै गिरधरकी, दीने सखा सिखाय ॥ जो रस ॥
दैजा दान कुमरि मोहनकौं, तब छोडूँ तेरे गोहनकौं ।
राज यहाँ वनमें गिरिधरको, दान लइँगे धाय ॥ जो रस ॥
इनके संग सखी मदमाती, उनके संग सखा उत्पाती ।
घेरि लई ग्वालिन रसमाती, मनमें अति हरषाय ॥ जो रस॥
सुर तैंतीसनकी मति बौरी, भजिकै चले बिरजकी ओरी ।
देखि देखि या ब्रजकी खोरी, ब्रह्मादिक ललचाय ॥ जो रस ॥