नाथ ! थारै सरण पड़ी दासी ।
(मोय) भवसागरसे त्यार काटद्यो जनम-मरण फाँसी ॥टेक॥
नाथ ! मैं भोत कष्ट पाई ।
भटक-भटक चौरासी जूणी मिनख-देह पाई ।
मिटाद्यो दु:खाँकी रासी ॥१॥
नाथ ! मैं पाप भोत कीना ।
संसारी भोगाँकी आसा दु:ख भोत दीना ।
कामना है सत्यानासी ॥२॥
नाथ ! मैं भगति नहीं कीनी।
झूठा भोगाँकी तृसनामें उम्मर खो दीनी ।
दु:ख अब मेटो अबिनासी ॥३॥
नाथ ! अब सब आसा टूटी ।
(थोर) श्रीचरणाँकी भगति एक है संजीवन-बूटी ।
रहूँ नित दरसणकी प्यासी ॥४॥