हे दयामय ! दीनबन्धो !! दीन को अपनाइये ।
डूबता बेड़ा मेरा मझधार पार लँघाइये ।
नाथ ! तुम तो पतितपावन, मैं पतित सबसे बड़ा ।
कीजिये पावन मुझे, मैं शरणमें हूँ आ पड़ा ॥२॥
तुम गरीबनिवाज हो यों जगत् सारा कह रहा ।
मैं गरीब अनाथ दु:ख-प्रवाहमें नित बह रहा ॥३॥
इस गरीबीसे छुड़ाकर, कीजिये मुझको सनाथ ।
तुम सरीखे नाथ पा फिर, क्यों कहाऊँ मैं अनाथ ॥४॥
हो तृषित आकुल अमित प्रभु ! चाहता जो बूँद नीर ।
तुम तृषाहारी अनोखे उसे देते सुधा-क्षीर ॥५॥
यह तुम्हारी अमित महिमा सत्य सारी है प्रभो !
किसलिये मैं रहा वंचित फिर अभी तक हे विभो ! ॥६॥
अब नहीं ऐसा उचित प्रभु ! कृपा मुझ पर कीजिये ।
पापका बन्धन छुड़ा नित-शान्ति मुझको दीजिये ॥७॥