नवरात्रव्रत
( देवीभागवतादि ) -
ये आश्विन शुक्ल प्रतिपदासे नवमीपर्यन्त होते हैं । इनका आरम्भ अमायुक्त प्रतिपदामें वर्जित है और द्वितीयायुक्त प्रतिपदामें शुभ है । नव रात्रियोंतक व्रत करनेसे ' नवरात्र ' व्रत पूर्ण होता है; तिथिकी ह्लास - वृद्धिसे इनमें न्यूनाधिकता नहीं होती । प्रारम्भके समय यदि चित्रा नक्षत्र और वैधृति हों तो उनके उतरनेके बाद व्रतका प्रारम्भ प्रातःकालमें होते हैं; अतः यदि चित्रादि अधिक समयतक हों तो उसी दिन अभिजीत् मुहूर्तमें आरम्भ करना चाहिये । वैसे तो वासन्ती नवरात्रोंमें विष्णुकी और शारदीय नवरात्रोंमें शक्तिकी उपासनाका प्राधान्य है ही; किंतु ये दोनों ही बहुत व्यापक हैं, अतः दोनोंमें दोनोंकी उपासना होती है । इनमें किसी वर्ण, विधान या देवादिकी भिन्नता नहीं है; सभी वर्ण अपने अभीष्टकी उपासना करते हैं । यदि नवरात्रपर्यन्त व्रत रखनेकी सामर्थ्य न हो तो
( १ ) प्रतिपदासे सप्तमीपर्यन्त ' सप्तरात्र;'
( २ ) पञ्चमीको एकभुक्त, षष्ठीको नक्तव्रत, सप्तमीको अयाचित, अष्टमीमो उपवास और नवमीके पारणसे ' पञ्चरात्र;'
( ३ ) सप्तमी, अष्टमी और नवमीके एकभुक्त व्रतसे ' त्रिराज;'
( ४ ) आरम्भ और समाप्तिके दो व्रतोंसे ' युग्मरात्र ' और
( ५ ) आरम्भ या समाप्तिके एक व्रतसे ' एकरात्र ' के रुपमें जो भी किये जायँ, उन्हींसे अभीष्टकी सिद्धि होती है । आरम्भमें शुभस्थानकी मृत्तिकासे वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूँ बोये । उनपर यथासामर्थ्य सुवर्णादिका कलश स्थापित करे और कलशपर सोना, चाँदी, ताँबा, मृत्तिका, पाषाण या चित्रमय मूर्तिकी प्रतिष्ठा करे । मूर्ति यदि मिट्टी, कागज्या सिन्दूर आदिकी हो और स्त्रानसे उसके नष्ट हो जानेका डर हो तो या तो उसपर दर्पण लगा देना चाहिये या खड़्गादिको उसमें परिणत करना चाहिये । मूर्ति न होनेकी अवस्थामें कलशके पीछेको स्वस्तिक और उसके युग्म - पार्श्वमें त्रिशूल बनाकर दुर्गाका तथा चित्र, पुस्तक या शालग्रामादिको विराजमानकर विष्णुका पूजन करे । पूजा राजसी, तामसी और सात्त्विकी - तीन प्रकारकी होती है; इनमें सात्त्विकीका सर्वाधिक प्रचार है । नवरात्र -व्रत आरम्भ करते समय सर्वप्रथम गणपति, मातृका, लोकपाल, नवग्रह और वरुणका पूजन, स्वस्तिवाचन और मधुपर्क ग्रहण करके प्रधान मूर्तिकी - जो राम - कृष्ण, लक्ष्मी - नारायण या शक्ति, भगवती, देवी आदि किसी भी अभीष्ट देवकी हो - वेदविधि या पद्धतिक्रमसे अथवा अपने साम्प्रादायिक विधानसे पूजा करे । देवीके नवरात्रमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीका पूजन तथा सप्तशतीका पाठ मुख्य है । यदि पाठ करना हो तो देवतुल्य पुस्तकका पूजन करके १, ३, ५ आदि विषम संख्याके पाठ करने चाहिये और पाठमेम विशेष ब्राह्मण हों तो उनकी संख्या भी १, ३, ५ आदि विषम ही होनी चाहिये । फलसिद्धिके लिये १, उपद्रव - शान्तिके लिये ३, सामान्यतः सब प्रकारकी शान्तिके लिये ५, भयसे छूटनेके लिये ७, यज्ञफलकी प्राप्तिके लिये ९, राज्यके लिये ११, कार्यसिद्धिके लिये १२, किसीको वशमें करनेके लिये १४, सुख - सम्पत्तिके लिये १५, धन और पुत्रके लिये १६, शत्रु, रोग और दोषकी शान्तिके लिये २०, बन्धनसे मुक्त होनेके लिये २५ और मृत्युके भय, वस्तुकी सिद्धि एवं देशको नाश आदिसे बचानेके लिये और असाध्य दस हजार और लाख पाठतक करने चाहिये । देवीव्रतोंमें ' कुमारीपूजन ' समाप्तिके दिन कुमारीके चरण धोकर उसकी गन्ध - पुष्पादिसे पूजा करके मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये । एक कन्याके पूजनसे ऐश्वर्यकी; दोसे भोग और मोक्षकी; तीनसे धर्म, अर्थ, कामकी; चारसे राज्यपदकी; पाँचसे विद्याकी; छःसे षट्कर्मसिद्धिकी; सातसे राज्यकी; आठसे सम्पदाकी और नौसे पृथ्वीके प्रभुत्वकी प्राप्ति होती है । दो वर्षकी लड़की कुमारी, तीनकी त्रिमूर्तिनी, चारकी कल्याणी, पाँचकी रोहिणी, छःकी काली, सातकी चण्डिका, आठकी शाम्भवी, नौकी दुर्गा और दसकी सुभद्रास्वरुप होती है । इससे अधिक उम्रकी कन्याको कुमारी - पूजामें नहीं सम्मिलित करना द्रव्य - आँवला और सुगान्धित तैल आदि; द्वितीयाको बाल बाँधनेके लिये नेत्राञ्जन; पञ्चमीको अड्गराग और अलंकार तथा षष्ठीको फूल आदि समर्पण करे । सप्तमीको गृहमध्यपूजा, अष्टमीको उपवासपूर्वक पूजन, नवमीको महापूजा और कुमारीपूजा तथा दशमीको नीराजन और विसर्जन करे । इसी प्रकार राम - कृष्णादिके नवरात्रमें स्तोत्र - पाठ या लीलाप्रदर्शन आदि करे । यह उल्लेख दिग्दर्शनमात्र है, अतः विशेष बातें ग्रन्थान्तरोंसे जाननी चाहिये । इस प्रकार नौ दिनोंतक नवरात्र करके दशमीको दशांश हवन, ब्राह्मणभोजन और व्रतका विसर्जन करे ।
अत ऊर्ध्वं तु याः कन्याः सर्वकार्येषु वर्जिताः । ( स्कन्दपुराण )