बलराम n. (सो. वृष्णि.) वसुदेव तथा रोहिणी का पुत्र, जो भगवान् श्रीकृष्ण का अग्रज, एवं शेष का अवतार था
[म.आ.६१.९१] । भगवान् नारायण के श्वेत केश से इसका अविर्भाव हुआ था
[म.आ.१८९.३१] । वसुदेव देवकी कंस के द्वारा कारागार में बन्दी थे । उसी समय देवकी गर्भवती हुयी, तथा बलराम उसके गर्भ में सात महीने रहा । इसके उपरांत योगमाया से यह वसुदेव की द्वितीय पत्नी रोहिणी के गर्भ में चला गया, जो उस समय गोकुल में थी । वहीं इसका जन्म हुआ
[भा.९.२४.४६, १०.२.८] ;
[पद्म. उ.२४५] । एक गर्भ से दूसरे गर्भ में जाने के कारण, इसे संकर्षण नाम प्राप्त हुआ । यह देखने में अत्यंत सुन्दर था, अतएव इसे ‘राम’, तथा बलपौरुष के कारण ‘बलराम’ कहा गया । यह शत्रुओं के दमन के लिये सदैव हल तथा मूसल धारण करता था । अतएव इसे ‘हली’, ‘हलायुध’, ‘सीरपाणी’, ‘मूसली’ तथा ‘मुसलायुध’ भी कहते है । बलराम कृष्ण से तीन माह बडा था तथा सदैव कृष्ण के साथ रहता था
[म.आ.२३४] । यह बाल्यावस्था से ही परमपराक्रमी, युद्धवीर एवं साहसी था, तथा इसने धेनुक तथा प्रलंब नामक असुरों का वध किया था
[म.स.परि.१.क्र.२१., पंक्ति.८१९-८२०] ;
[विष्णु. ५.८-९] ;
[भा.१०.१८] ;
[ह.वं.२.१४.६२] । यह सदैव नीलवस्त्र धारण करता था, तथा इसके शरीर में सदैव कमलों की माला रहती थी । ये सारी चीजे इस यमुना नदी से प्राप्त हुयी थी, जिसकी कथा निम्न प्रकार से विष्णुपुराण में दी गयी है । एक बार इसने भावातिरेक में आ कर यमुना से भोग करने की अच्छा प्रकट की । यमुना तैयार न हुयी, तब क्रोध में आ कर इसने मथुरा के पास उसका प्रवाह मोड दिया, जिसे विष्णु में ‘यमुनाकर्ष’ कहा गया है । तब यमुना ने बलराम को शरीर में धारण करने के लिए नील परिधान, तथा कमलों की माला दे कर इसे प्रसन्न किया
[विष्णु.५.२५] ।
बलराम n. सांदीपनि ऋषि के यहॉं कृष्ण के साथ इसने वेदविद्या, ब्रह्मविद्या तथा अस्त्रशस्त्रादि का ज्ञान प्राप्त किया । यह गदायुद्ध में अत्यधिक प्रवीण था । इसकी शक्तिसाहस के ही कारण, कृष्ण जरासंध को सत्रह बार युद्ध में पराजित कर सका । जरासंध का वध करने के लिये, इसने तपस्या कर ‘संवर्तक’ नामक हल, एवं ‘सौनंद’ नामक मुसल प्राप्त किया था
[ह.वं.२.३५.५९-६५] ;
[विष्णु.५.२२.६-७] । विद्याध्ययन के उपरांत, ककुद्यीकन्या रेवती से इसका विवाह हुआ, तथा अधिकाधिक यह आनर्त देश में अपने श्वसुर के यहॉं रहता था । जरासंध इतने बार कृष्ण से हार चुका था, फ्रि भी चिन्ता का कारण बना हुआ था; अतएव कृष्ण ने मथुरा से हटकर अपनी राजधानी द्वारका बनायी । एक बार यह नंद तथा यशोदा से मिलने के लिये गोकुल गया था, तथा वहॉं दो माह रहा भी था । यह आसवपान का बडा शौंकीन था, अतएव इसके लिये उसकी भी व्यवस्था की गयी थी ।
बलराम n. यह वीरपराक्रमी एवं अजेय था, उसी तरह यह इतना भाबुक एवं जल्दबाज भी था कि, उतावलेपन में ऐसा कार्य कर बैठा कि, जिससे परिवार के लोक तंग आ जाते । इसमें किसी चीज के सोचने समझने की विवेकपूर्ण समझदारी न थी । हस्तिनापुर में दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा के विवाह के संबंध में स्वयंवर था । बलराम के भतीजे कृष्णपुत्र सांब ने स्वयंवर में जा कर, लक्ष्मणा का हरण किया । किन्तु दुर्योधन द्वारा हस्तिनापुर में दोनों पकड कर लाए गये । दुर्योधन कौरववंशीय होने के कारण, कभी न चाहता था कि उसकी कन्या यादववंशीय कृष्णपुत्र सांब को व्याही जायी । उक्त घटना को सुनते ही बलराम हस्तिनापुर गया । क्रोधाग्नि में सारे कौरवपक्षीय राजाओं को इसने पराजित किया, एवं इसने हस्तिनापुर को अपने हल से खीच उसकी रचना ही घुमायी, एवं उसको तेढामेढा बना दिया
[विष्णु.५.३५] ;
[भा.१०.६८] ; लक्ष्मणा २. देखिये । यही कारण है कि, हस्तिनापुर का धरातल आज भी उँचानीचा अजीब तरह का है । यादववंशीय राजा सत्राजित् के पास स्यमंतक मणि था, जिसे कृष्ण चाहता था । पर सत्राजित् ने उसे देने से इन्कार कर दिया । उस मणि के संबंध में सत्राजित् एवं कृष्ण के दरम्यान हुए झगडे में, बलराम ने सत्राजित का पक्ष स्वीकार लिया, एवं लोगों के सामने कृष्ण को दोषी ठहराते हुए आरोप लगाया, ‘तुम मणि के इच्छुक थे, तुमने ही स्यमंतक चुराया है’। इस घटना के कारण बलराम कृष्ण से इतना नाराज हुआ कि, बिना कुछ कहे मिथिला चला गया, एवं इसने दुर्योधन को गदायुद्ध की शिक्षा भी दी
[विष्णु४.१३] ;
[भा.१०.५७] ; सत्राजित् देखिये । बलराम के नाराज होने की यह कधा भागवत में नहीं दीं गयी है । दुर्योधन एवं भीम उसके शिष्य थे । अतएव यह नहीं चाहता था कि, इसके दोनो शिष्य आपस में लडकर मृत्यु को प्राप्त हो । इसी कारण भारतीय युद्ध के प्रारंभ में, जब दुर्योधन कृष्ण की मदद मॉंगने के लिये आया तहा, तब इसने कृष्ण से कहा था, ‘कौरव एवं पांडव हमारे लिये एकसरीखे है । इसी कारण सहाय्यता करनी ही हो, तो वह हमने दुर्योधन की करने चाहिये’। किन्तु कृष्ण ने इसकी बात न सुनी । इस कारण, भारतीय युद्ध के पूर्व ही, यह कृष्ण से क्रुद्ध हो कर, तीर्थयात्रा के लिये चला गया ।
बलराम n. बलराम की तीर्थयात्रा का विस्तृत वर्णन भागवत तथा महाभारत शल्यपर्व में दिया गया है । भागवत की तीर्थयात्रावर्णन में विभिन्न प्रकार के तीर्थस्थानों का विवरण प्राप्त है । बलराम का प्रथम संकल्प ‘प्रतिलोम सरस्वती यात्रा’ करने का था । इस निश्चय के अनुसार यह प्रभास, पृथूदक, बिंदुसर, त्रितकूप, सुदर्शन, विशाल, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ, सरस्वती, यमुना एवं गंगा नदी के तट पर स्थित तीर्थो की यात्रा कर के, नैमिषारण पहुँच गया । नैमिषारण्य में ऋषिमुनियों की पुराणचर्चा चल रही थी । सारे मुनियों ने उत्थापन दे कर, इसके प्रति आदरभाव प्रकट किया । किन्तु पुराणचर्चा में मुख्य सूत का काम करनेवाला रोमहर्षण नामक ऋषि धर्मकार्य में व्यस्त होने के कारण, इसे उत्थापन न दे सका । इस कारण क्रोधित हो कर, शराब के नशे में इसने उसका वध किया
[भा.१०.७८.२८] ; रोमहर्षण देखिये । पुराणचर्चा समारोह मे एक ही कोलाहल मच गया, एवं सारे ऋषियों ने इसे ब्रह्महत्या के पातक से दोषी ठहराया । इस पातक से छुटकारा पाने के लिये, यह ग्यारह वर्षो की यात्रा करने के लिये पुनः निकला । मार्कडेय के अनुसार, सूत का वध इसके द्वारा द्वारका के समीप स्थित रैवतोद्यान में हुआ
[मार्क.६.७,३५-३६] । किन्तु महाभारत एवं भागवत में यह वधस्थान नैमिषारण्य ही बताया गया है । यह वध बलराम के यात्र के मध्य में हुआ, ऐसा भागवत का कथन है; किन्तु मार्कडेय के अनुसार, यह वध बलराम के यात्रारंभ में ही हुआ था । अपने द्वितीय यात्रा के लिये यह निकलनेवाला ही था कि, शल्य ने इसके सम्मुख आकर भीम एवं दुर्योधन के गदायुद्ध की वार्ता इसे सुनाई । अपने दोनों प्रिय शिष्यों के युद्ध की वार्ता सुन कर, यह शीघ्र ही द्वैपायन हृद नामक युद्धस्थान में चला आया । इसने उस युद्ध को टालने का काफी प्रयत्न किया, किन्तु दोनो प्रतिपक्षियों ने इसकी एक न सुनी । इस पर क्रुद्ध हो कर, यह द्वारका चला गया
[भा.१०.७८-७९] । महाभारत के अनुसार, दुर्योधन एवं भीम के दरम्यान हुए गदायुद्ध में भीम ने कपट से दुर्योधन का वध किया । इस कारण बलराम भीम पर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं भीम को मारने दौडा । किन्तु कृष्ण ने इसे दुर्योधन के सारे कुकृत्यों याद दिला कर, इसका क्रोध शान्त किया
[म.श>५९-१४-१५] ।
बलराम n. भागवत में इससे की गयी यात्रा के द्वितीय पर्व का सविस्तृत वर्णन प्राण्त है । उस यात्रा में इसने निम्नलिखित पवित्र स्थानों के दर्शन कियेः---सरयु, हरिद्वार, गोंती, गंडकी, विपाशा, शोणभद्र, गया, परशुराम क्षेत्र, सप्तगोदावरी, वेणा, पंपा, भीमरथी शैलपर्वत, वेंकटगिरी, कामोष्णी, कांची, कावेरी, श्रीरंग, मदुरा, सेतुंबंध, कृतमाला, ताम्रपर्णी, अगस्त्याश्रम, दुर्गादेवी, अनंतपुत्र, पंचाप्सरा, केरल, त्रिगर्त, गोकर्ण, अर्यादेवी, शूर्पारक, तापी, पयोष्णी, निर्विध्या, दंडकारण्य, नर्मदा, एवं मनु । इन सारे स्थानों की यात्रा समाप्त कर, यह कुरुक्षेत्र वापस आया । श्रीकृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध का विवाह विदर्भराजा रुक्मिन् की पौत्री रोचना से संपन्न हुआ । उस समय, रुक्मिन् ने बलराम के साथ कपट से द्यूत खेलना चाहा, एवं उसने इसके काफी निंदा भी की । क्रोधाविष्ट हो कर, बलराम ने द्यूत का सुवर्णमय पट रुक्मिन् को मार कर, उसका वध किया
[ह.वं.२.६१] ; रुक्मिन् देखिये । नरकासुर कामित्र द्विविद नामक वानर का भी इसने वध किया था
[विष्णु ५.३६] । भारतीय युद्ध के पश्चात्, इसने द्वारकापुरी में मद्यपाननिषेध की आज्ञा जारी की थी
[म.मौ.१.२९] । किंतु इसके अनुयायी यादवों ने इसकी एक न सुनी, एवं वे आपसमें लडकर मारे गये । इस तरह सारे यादवों का संपूर्ण विनाश होने पर, इसने प्रभास क्षेत्र में योगिकमार्ग से देहत्याग किया
[म.मौ.५.१२.-१५] ;
[भा.११.३०] । इसकी मृत्यु के पश्चात् इसके मुख से एक विशालकाय श्वेतसर्प बाहर निकला. जिसका श्रीकृष्ण को दर्शन हुआ
[म.मौ.५.१२-१६] । इसके मृत देह पर इसकी पत्नी रेवती सती हो गयी
[पद्म. उ,२५२] ।
बलराम II. n. एक महाबली नाग
[म.अनु.१३२.८] ।