राम n. ऋग्वेद में निर्दिश एक राजा, जहाँ दु:शीम पृथवान् एवं वेन नामक राजाओं के साथ इसके दानशूरता की प्रशंसा की गयी है
[ऋ., १०.९३.१४] । लुडविग के अनुसार, इसका पैतृक नाम ‘मायव’ था
[लुडविग. ऋग्वेद का अनुवाद. ३.१६६] ।
राम (औपतस्विनि) n. एक यज्ञवेत्ता आचार्य, जो उपतत्विन् का पुत्र एवं याज्ञ्वल्क्य का समकालीन था । ‘अंसुग्रह’ नामक यज्ञ के संबंधी इसके मतों का निर्देश शतपथ ब्राह्नाण में प्राप्त है
[श. ब्रा. ४. ६.१. ७] ।
राम (क्रातुजातेय) n. एक आचार्य, जो शंग शात्यायनि आत्रेय नामक आचार्य का शिष्य, एवं शंख बाभ्रव्य नामक आचार्य का गुरु था
[जै. उ. ब्रा. ३.४०.१, ४.१६.१] । ‘कतृजात’ एवं व्याघ्रपद’ नामक आचायों का वंशज होने के कारण, इसे ‘क्रातुजातेय’ एवं ‘वैयाध्रषद्य’ पैतृक नाम प्राप्त हुए होगे ।
राम (जामदग्न्य) n. एव वैदिक सूक्त्तद्रष्टा
[ऋ. १०.११०] ; कात्यायन सवांनुक्रमणी । परशुराम जामदस्य एवं यह दोनों एक ही व्यक्ति थे (परशुराम देखिये) ।
राम (दाशरथि) n. अयोध्या का एक सुविख्यात सम्राट. जो भारतीयो की प्रात:स्मरणीय विभूति मानी जाती है । यह अयोध्या के सुविख्यात राजा दशरथ के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र था । ई. पू. २३५०-१९५० यह काल भारतीय इतिहास से अयोध्या के रघुवंशीय राजाओं का काल माना जाता है, जिसके वैभव की परमोच्च सीमा राम दाशरथि के राज्यकाल में हुई ।
राम (दाशरथि) n. एक आदर्श पुरुषश्रेष्ठ मान कर, वाल्मीकि रामायण में राम का चरित्रचित्रण किया गया है । प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार, आदर्शपुत्र. आदर्श पति, आदर्श राजा इन तीनो आदशों का अद्वितीय संगम राम के जीवनचरित्र में हुआ है । एकवचन, एक-पत्नी, एकबाण इन व्रतों का निष्ठापूर्वक आचरण करनेवाला राम सर्वतोपरी एक आदर्श व्याक्ति है, जिसका सारा जीवन-चरित्र आदर्श जीवन का एक वस्तुपाठ है । अहिंसा, दया, अध्ययन, सुस्वभाव. इंद्रियदमन एवं मनोनिग्रह इन छ: गुणो से युक्त एक आदर्श व्याक्ति का जीवनचरित्र लोगों के सम्मुख रखना, यही वाल्मीकि रामायण का प्रमुख हेतु है । इस द्दष्टि से वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ के श्लोक दर्शनीय है, जहाँ वाल्मीकि ऋषि नारद से पृथ्वी के एक आदर्श व्यक्त्ति का जीवनचरित्र सुनाने की प्रार्थना करते है :--- को न्वस्मिन् सांप्रतं लोके, गुणवान् कश्च वीर्यवान् । (इस पृथ्वी में जो गुणसंपन्न, पराक्रमी, धर्मज्ञ, सत्यवक्ता, द्दढव्रत, चारित्र्यवान्, ज्ञाता, लोकप्रिय, संयमी, तेजस्वी ऐसे व्यक्ति का जीवनचरित्र मैं सुनना चहाता हूँ) ।
राम (दाशरथि) n. इस तरह वैयक्तिक सदगुणों का उच्चतम आदर्श, समाज के सम्मुख रखना यह वाल्मीकि प्रणीत रामकथा का प्रमुख उदेश है । इसकी तुलना महाभारत में वर्णित युधिष्ठिर राजा से ही केवल हो सकती है । किन्तु युधिष्ठिर का चरित्रचित्रण करते समय एक तत्त्वदर्शी एवं धर्मनिष्ठ राजा को कौटुंबिक एवं सामाजिक घटक के नाते कदम कदम पर कौनसी कटिनाईयाँ उठानी पडती है, एवं मनस्ताप सहना पडता है, इसका चित्रण व्यास-प्रणीत महाभारत में किया गया है । वहाँ व्यक्तिधर्म को गौणत्व दे कर, समाजधर्म एवं राष्ट्रधर्म का चित्रण प्रमुख उद्देश्य माना गया है । उसके विपरीत, व्यक्तिगत सदगुण एवं वैयक्तिक धर्माचरण का आदर्श राम दाशरथि को मान कर, उसका चरित्रचित्रण वाल्मीकि के द्वारा किया गया है । इस कारण श्रीकृष्ण जैसा राजनीतिज्ञ, अथवा युधिष्ठिर जैसा धर्मज्ञ न होते हुए भी, राम प्राचीन भारतीय इतिहास का एक अद्वितीय पूर्णपुरुष प्रतीत होता है । प्राचीन क्षत्रिय समाज में, जव बहुपत्नीकत्व रूढ था, उस समय एक पत्नीकत्व का आदर्श इसने प्रस्थापित किया था । परशुराम जामदग्न्य के पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा के कारण, सारा क्षत्रिय समाज जब हतप्रभ एवं निर्वीर्य बन गया था, उस समय आदर्श क्षत्रिय व्यक्त्ति एवं राजा का आचरण कैसा हो. इसका वस्तुपाठ राम ने क्षत्रियों के सम्मुख रख दिया । रावण जैसे राक्षसों के आक्रमण के कारण, जव सारा दक्षिण भारत ही नहीं, बल्कि गंगा घाटी का प्रदेश ही भय भीत हो चुका था, उस समय राम ने अपने पराक्रम के कारण, इस सारे प्रदेश को भीतिमुक्त किया, एवं इस तरह केवल उत्तर भारत में ही नही बल्कि दक्षिण भारत में भी आर्य संस्कृति की पुन:स्थापना की । इस तरह एक व्यक्त्ति एवं एक राजा के नाते राम के द्वारा किया गया कार्य अद्वितीय ऐतिहासिक महत्त्व रखता है ।
राम (दाशरथि) n. यद्यपि उत्तरकालीन साहित्य में ‘रामचंद्र’ नाम से राम दाशरथि का निर्देश अनेक बार प्राप्त है, फिर भी वाल्मीकि रामायण में सर्वत्र इसे राम ही कहा गया है । क्वचित एक स्थल में इसे चंद्र की उपमा दी गयी है
[वा. रा. यु. १०२.३२] । संभव है, चंद्र से इस साद्दश्य के कारण, इसे उत्तरकालीन साहित्य में ‘रामचंद्र’ नाम प्राप्त हुआ होगा ।
राम (दाशरथि) n. जैसे पहले ही कहा गया है, ई. पू. २०००-१९५० लगभग यह राम दाशरथि का काल माना गया है । भारतीय परंपरा के अनुसार, वैवस्वत मन्वन्तर के चौवीसत्रे त्रेतायुग में यह उत्पन्न हुआ था
[ह. वं १.४१] ;
[वायु. ७०.४८] ;
[ब्रह्मांड. ३.८.५४] ;
[ब्रह्म. २१३.१२४] ;
[मत्स्य. ४७.२४७] ;
[भा. ९.१०.५२] ;
[पद्म. पा. ३६] । महाभारत के अनुसार, यह अठ्ठाईसवें त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ था
[म. स. परि. १. क्र. २१. पक्त्ति ४९४-४९५] । दशरथ राजा को कौसल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी नामक तीन पत्नियाँ होते हुए भी कोई भी पुत्र न था । इसी अवस्था में पुत्रप्राप्ति के हेतु उसने ऋष्यशृंग ऋषि से एक ‘पुत्रकामेष्टी यज्ञ’ कराया । उस यज्ञ में सिद्ध किये गये ‘चरू’ का आधा भाग दशरथ की पटरानी कौसल्या ने भक्ष किया, जिस कारण यज्ञ के पश्चात एक साल बाद उसके गर्भ से राम दाशरथि का जन्म हुआ । राम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी के दिन दोपहर के बारह बजें, जब पाँच ग्रह उच्चस्थिति में थे उस समय हुआ था । उस समय पुनर्वसु नक्षत्र, कर्क लग्न एवं लग्न में गुरुचंद्र योग था
[वा. रा. बा. १८.८-९] ;
[अ. रा. १.३] ;
[पद्म. उ. २४२] ।
राम (दाशरथि) n. पौराणिक साहित्य में इसे श्री विष्णु का सातवा अवतार कहा गया है । वाल्मीकि रामायण में इसे अनेक बार श्रीविष्णु के सद्दश पराक्रमी कहा गया है
[वा. रा. बा. १.३८] , किन्तु श्रीविष्णु का अवतार कहीं भी नही कहा गया है । क्वचित् एक स्थान पर जहाँ इसे श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है
[वा. रा. यु.१.१७] , वह भाग प्रक्षिप्त प्रतीत होता है । उत्तरकालीन साहित्य में रामभक्ति की कल्पना का जो जो विकास होने लगा. तब उसके साथ साथ राम के अवतारवाद की कल्पना भी द्दढ होती गयीं । रामतापनीय उपनिषद से ले कर अध्यात्मरामायण तक के समस्त राम भक्तिविषयक रचनाओं में राम को केवल विष्णु का ही नहीं, बल्कि साक्षात् परब्रह्म का ही अवतार माना गया है
[अ. रा. बा. १] । इन ग्रंथों के अनुसार, जन्म लेते ही अपनी माता कौसल्या को इसने श्रीविष्णु के रूप में दर्शन दिया था
[अ. रा. बा. १.३.१३-१५] ;
[पद्म. उ. २६९. ८०] ;
[आ. रा. १.२.४] । महाभारत के अनुसार, यह मार्कंडेय के अंश से, एवं हरीवंश के अनुसार विश्वामित्र के अंश से उत्पन्न हुआ था । देवी भागवत में राम एवं लक्ष्मण को नरनारायण का अवतार कहा गया है ।
राम (दाशरथि) n. राम का स्वरूपवर्णन ‘वाल्मीकि रामायण’ में प्राप्त है, जिसका पाठन रामभक्त्त लोग आज भी नित्यपाठ के स्तोत्र की भाँति करते है--- विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु: । महोरस्को महेष्वासो, गूढजत्रुररिंदम: ॥ आजानुबाहु: सुशिग:, सुललाट: सुविक्रम: । सम: समविभक्त्ताङ्ग, स्निग्धवर्ण:प्रतापवान् ॥ पीनवक्षा विशालाक्षो, लक्ष्मीवान् शुभलक्ष्ण: । धर्मज्ञ: सत्यसंधश्व, प्रजानां च हिते रत: ॥ विष्णुना सद्दशो वीर्ये, सोंवत् प्रियदर्शन: । कालाग्निसद्दश: क्रोधे, क्षमया पृथिवीसम: ॥
[वा. रा. बा. १.१०-१८] ।
राम (दाशरथि) n. राम का नामकरण दशरण राजा के कुलगुरु वसिष्ठ के द्वारा हुआ. जिसने ‘रामस्य लोकरामस्य’ कह कर इसका नाम ‘राम’ रख दिया
[वा. रा. बा. १८.२९] । नामकरण एवं उपनयन के पश्चात वसिष्ठ से इसे शस्त्र एवं शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त हुई
[वा. रा. बा. १८.३६-३७] । इसे यजुर्वेद का भी ज्ञान प्राप्त था
[वा. रा. सुं. ३५.१४] राम (दाशरथि) n. शिक्षा समाप्त होने पर सोलह वर्ष का राम तीर्थयात्रा करने के लिए निकला । इस तीर्थयात्रा को समाप्त करने पर, राम के मन में यकायक विरक्त्ति की भावना उत्पन्न हुई, एवं धन, राज्य, माता आदि का त्याग कर प्राणत्याग करने के विचार इसके मन में आने लगे :--- किं धनेन किमम्बाभि: किं राज्येन किमहिया । इति निश्वयमापन्न: प्राणस्यागपर; स्थित: ॥
[यो. वा. १.१०.४६] । राम की यह विलक्षण वैराग्यवृत्ति देख कर वसिष्ठ ने उसे ज्ञानकर्मसमुच्चयात्मक उपदेश प्रदान किया, जो ‘योगवासिष्ठ’ नामक ग्रंथ में समाविष्ट है । वसिष्ठ ने राम से कहा, ‘आत्मज्ञान एवं मोक्षप्राप्ति के लिए अपना दैनंदिन व्यवहार एवं कर्तव्य छोडने की आवश्यकता नही है । जीवन सफल बनाने के लिए कर्तव्य निभाने की उतनी ही जरूरत है, जितनी आत्मज्ञान की है :--- उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गति: । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥ केवलात्कर्मणो ज्ञानाम्रहि मोक्षोऽभिजायते । किन्तूभाभ्यां भवेन्मोक्ष: साधनं तूभयं विदु: ।
[यो. वा. १.१.७-८] । (आकाश में घूमनेबाला पंछी जिस तरह अपने दो पंखों पर तैरता है, उसी तरह ज्ञान एवं कर्मो का समुच्चत करने से ही मनुष्य को जीवन में परमपद की प्राप्ति हो सकती है । केवल ज्ञान अथवा केवल कर्म की उपासना करने से मोक्ष की प्राप्ति होना असंभव है । इसी कारण इन दोनों का समन्वय कर के ही ज्ञानी लोग मोक्ष की प्राप्ति कर लेते है) ।
राम (दाशरथि) n. राम युवावस्था में प्रविष्ट होने पर, एक बार विश्वामित्र महर्षि दशरथ राजा से मिलने आयें । उन्होंने कहा, ‘मैंने दण्डकारण्य में आजकल एक यज्ञ का प्रारंभ किया है, जिसमें मारीच एवं सुबाहु नामक राक्षसों की दुष्टता के कारण, काफी रुकावटें पैदा हो रही है । ये दोंनो राक्षस यज्ञस्थल में आ कार खडा हुआ रक्त एवं माँस की वर्षा करते है, एवं यज्ञ में बाधा उत्पन्न करते हैं । उन राक्षसों का वध तुम्हारे नवयुवा, पुत्र राम एवं लक्ष्मण ही केवल कर सकते हैं । उन्हें मेरी सहाय्यता के लिए दण्डकारण्य में भेजने की आप कृपा करे’ । वसिष्ठ की सूचना के अनुसार, दशरथ राजा ने विश्वामित्र की यह प्रार्थना मान्य कर दी, एवं राम लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी । कमर को विजयशाली तलवार एवं कंधे पर धनुष्य एवं बाण लगाये हुए राम एवं लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ दण्डकारण्य की ओर चल पडे । दण्डकारण्य जाते समय इन्होने सर्व प्रथम सरयू नदी पार की । उसी नदी के तट पर विश्वामित्र ने रामलक्ष्मण को ‘बल’ एवं ’अतिबल’ नामक मंत्रों का ज्ञान कराया, जिनके कारण भूख एवं प्यास को सहन करने की ताकद इन्होंमें उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् अंगदेश में स्थित कामाश्रम में ये पहुँचे, जहाँ विश्वामित्र ने इन्हें मदनदाह की कथा सुनाई
[वा. रा. बा. ३२-४८] ।
राम (दाशरथि) n. तदोपरान्त गंगा नदी पार कर ये दण्डकारण्य में आ पहुँचे, जहाँ विश्वामित्र ने इन्हें दण्ड्कारण्य का पूर्व इतिहास वताया, एवं कहा, ‘आज जहाँ तुम घना जंगल देख रहे हो, वहाँ की सारी वस्ती आज उजड गयी है । ताटका में बीस हाथियों का बल है, जिसकारण उसे समस्त पौरजन डरते है । ऋषिमुनियों को पीडा देनेबाली उस राक्षसी का वध करने के लिए ही मैं आज तुम्हें यहाँ लाया हूँ’ । ताटका स्त्री होने के कारण, उसके हाथ एवं पैर ही तोड कर उसे हतबल बनाने का पहले इसका विचार था । किन्तु ताटका के द्वारा आकाश में से पत्थरों का मारा किये जाने पर, इसने अपना एक बाण छोड कर उस महाकाय एवं विरूप राक्षसी का बध किया, एवं उसके द्वारा विजय किये गये मलद एवं करुषक देशों को पुन: आबाद बनाया
[वा. रा. बा. २४] ।
राम (दाशरथि) n. ताटकावध के पश्चात् विश्वामित्र रामलक्ष्मणों को साथ ले कर सिद्धाश्रम में गये, जहाँ उनका यज्ञसमारोह चल रहा था । वहाँ पहुँचने पर विश्वामित्र ने इससे कहा, ‘यह वही स्थान है, जहाँ बलि वैरोचन के बध के लिए भगवान् विष्णु ने वामनावतार धारण किया था । इस स्थान पर मेरा आश्रम बसा हुआ है, एवं यहाँ मैंनें यज्ञ समारोह भी प्रारंभ किया है । किन्तु मारीच एवं सुबाहु राक्षसों के कारण, यज्ञकार्य आज असम्भव हो रहा है । इस कारण मेरी यही इच्छा है कि, तुम उनसे युद्ध कर उन्हें परास्त करो’ । विश्वामित्र की आज्ञा के अनुसार, राम एवं लक्ष्मण ने छ: दिन अहोरात्र यज्ञमंडप में कडा पहारा किया । छटे दिन प्रात:काल के समय, मारीच एवं सुबाहु ने यज्ञभूमि पर आक्रमण किया । राम ने मानवास्त्र का प्रयोग कर, मारीच को शतयोजन की दूरी पर समुद्र में फेंक दिया, एवं ‘अग्नि अस्त्र’ से सुबाहु का वध किया ।
राम (दाशरथि) n. इस प्रकार विश्वामित्र का कार्य समाप्त कर, राम एवं लक्ष्मण ने अयोध्या नगरी के लिए पुन: प्रस्थान किया । मार्ग में विश्वामित्र ने इन्हें गंगा नदी को कथा सुनाई । कान्यकुब्ज देश, शोण नदी, भागीरथी नदी, विशाला नगरी आदि तीर्थस्थानों का दर्शन लेते हुत ये मिथिला नगरी के समीप ही स्थित गौतमाश्रम में आ पहुँचे । वहाँ विश्वामित्र ने राम को अहल्या की कथा सुनाई, एवं तत्पश्चात् राम ने अपने पदस्पर्श से उस शापित स्त्री का उद्धार किया
[वा. रा. वा. २७] । कई अभ्यासकों के अनुसार, राम के द्वारा किये गये ताटकावध एवं अहिल्योद्धार. ये दोनो कथाएँ रूपकात्मक हैं । दण्डकारण्य प्रदेश प्राचीन काल में गंगा नदी तक फैला हुआ था । उसे राक्षसों की पीडा से मुक्त्त कर वहाँ की बंजर भूमि को राम ने पुन: सुजला एवं सुफला बना दिया, यही इन दोनो कथाओं का वास्तव अर्थ प्रतीत होता है (अहल्या देखिये) ।
राम (दाशरथि) n. पश्चात् विश्वामित्र की सूचना के अनुसार, ईशान्य की ओर मुड कर राम एवं लक्ष्मण सीरध्वज जनक राजा की मिथिला नगरी में सीतास्वयंवर के लिए पधारे । वहाँ राम ने जनक राजा के द्वारा लगायी गयी सीतास्वयंवर की शर्त के अनुसार, शिवधनुष को लीलया उठा कर उसे बाण लगाया, जिस समय शिव धनुष भंग हो कर उसके दो दुकडे हुयें । पश्चात् जनक राजा ने राम को सीता विवाह में दे दी, एवं कहा :--- इयं सीता मम सुता, सहधर्मचरी तव ॥ प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते, पाणिं गृह्नीष्व पाणिना । पतिव्रता महाभागा, छायेवानुगता सदा ॥
[वा. रा. बा. ७३.२६-२७] (मेरी कन्या सीता आज से धर्म मार्ग पर चलते समय तुम्हें साथ देगी । साया के समान वह तुम्हारे साथ रहेगी । उसका तुम स्वीकार करो) उत्तर भारते में विवाहान्तर्गत कन्यादान के समय इन श्लोकों का आज भी बडी श्रद्धा भाव से पठन किया जाता हैं । राम के विवाह के समय, जनक राजा नें राम के भाई लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न के विवाह क्रमश: ऊर्मिला, मांडवी एवं श्रुतकीर्ति से करायें । उनमें से उर्मिला स्वयं जनक की, एवं माण्डवी एवं श्रुतकीर्ति, जनक के छोटे भाई शुशध्वज की कन्याएँ थी
[वा. रा. बा. ७३] । वाल्मीकि रामायण में अन्यत्र लक्ष्मण अविवाहित होने का, एवं भरत का विवाह सीतास्वयंवर के पहले ही होने का निर्देश प्राप्त है
[वा. रा. अर. १८३] ; बा. ७३.४ । इन निर्देशों को सही मान कर, कई अभ्यासक राम के साथ साथ उसके अन्य भाईयों का विवाह होने का वाल्मीकि रामायण में प्राप्त निर्देश प्रक्षिप्त मानते हैं ।
राम (दाशरथि) n. विवाह के पश्चात अयोध्या आते समय, यकायक परशुराम ने राम के मार्ग का अवरोध किया । उसने राम से कहा, ‘मेरे गुरु शिव के धनुष का भंग कर तुमने उनका अवमान किया है । मैं यही चाहता हूँ कि, मेरे हाथ में जो विष्णु का धनुष्य है उसका भी भंग कर तुम्हारें ताकद की प्रचीति मुझे दो’ । इस पर राम ने परशुराम से कहा, ‘अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए पृथ्वी के समस्त क्षत्रियों की नाश करने के लिए आप उद्यत हुए है, किन्तु अन्य क्षत्रियों की भाँति मैं आपकी शरण में न आऊँगा’ । इतना कह कर राम ने परशुराम के विष्णुधनुष का भी भंग किया, जिस पर परशुराम इसकी शरण में आया । इस तरह बडी उद्दण्डता से क्षत्रियसंहार के लिए तुले हुए परशुराम को राम ने परास्त किया, एवं पृथ्वी पर बचे हुए क्षत्रियों का रक्षण किया
[वा. रा. बा.७६-७७] ।
राम (दाशरथि) n. विवाह के समय, राम एवं सीता की आयु पंद्रह एवं छ: वर्षों की थी । अयोध्या में आने के पश्चात् बारह वर्षो तक राम तथा सीता का जीवन परस्परों के सहवास में अत्यंत आनंद से व्यतीत हुआ । अपने सदगुण एवं धर्मपरायणता के कारण यह अपने पौरजनों में भी काफी लोकप्रिय बना था । इसकी आयु सत्ताइस वर्षो की होने पर, दशरथ राजा ने इसे यौवराज्याभिषेक करने का निश्चय किया । इस समय उसने अपने सभाजनों से कहा, ‘राम राजकारण में कुशल है, एवं शौर्य में इसकी बराबरी करनेबाला क्षत्रिय आज पृथ्वी पर नहीं है । इसी कारण मैं अपने सारे पुत्रों में से राम को ही यौवराज्याभिषेक का दिन चैत्र माह में पुष्यनक्षत्र में निश्चित किया गया । यौवराज्याभिषेक के अगले दिन रात्रि में राम तथा सीता ने उपोषण किया एवं दर्भासन पर निद्रा की । तत्यश्चात होमहवनादि धार्मिक विधि भी कियें । दूसरे दिन प्रात:काल में यह यौवराज्याभिषक के लिए निकल ही रहा था, इतने में दशरथ राजा की ओर से सुमंत्र की हाथों इसे बुलावा आया ।
राम (दाशरथि) n. उस बुलावे के अनुसार, कैकेयी के महल में बैठे हुए अपने पिता से मिलने जाने पर, दशरथ ने इससे कोई भी भाषण न किया । फिर कैकेयी ने राम से कहा, ‘दशरथ राजा तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, किन्तु तुम्हारे प्रेम के कारण, कह नहीं पातें । इस अवस्था में तुम्हारा यही कर्तव्य है, कि उनकी इच्छा का तुम पालन करो’ । इसपर दशरथ राजा की हर एक इच्छा का पालन करने का अपना द्दढनिश्चय व्यक्त्त करते हुए राम ने कहा :--- ‘अहं हि वचनाद्राज्ञ:, पतेयमपि पावके ॥ भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं, पतेयमपि चार्णवे । नियुक्त्तो गुरुणा पित्रा, नृपेणा च हितेन च ॥ तदब्रूहि वचनं देवि, राज्ञो यदभिकांक्षितम् । करिष्ये प्रतिजाने च, रामो द्विर्नाभिभाषते ॥
[वा. रा. अयो. १८.२८-३०] । (दशरथ के द्वारा आज्ञा किये जाने पर, मैं अग्निप्रवेश, विषभक्षण आदि के लिए भी सिद्ध हूँ । क्यो कि, दशरथ राजा मेरा पिता, गुरु, एवं हितदर्शी है । अत: राजा का मनोगत बताने की कृपा आप करें । उसका तुरंत ही पालन किया जाएगा, यही मेरी आन है । मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ, एवं प्रतिज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझता हूँ ।) राम के इस कहने पर कैकेयी ने देवासुरयुद्ध के समय, दशरथ राजा के द्वारा दिये गये दो वरों की कथा कह सुनाई, एवं कहा, ‘ये वर मैंने राजा से आज माँग लिये है, जिसके अनुसार अयोध्या का राज्य मेरे पुत्र भरत को प्राप्त होगा, एवं तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वनबास जाना पडेगा’ इस पर राम ने जीवनमुक्त्त सिद्ध की भाँति ‘शुभ छत्र’ एवं अन्य राजभूषणों का त्याग किया, एवं स्वजन एवं पौरजनों से विदा ले कर वन की ओर प्रस्थान किया ) वा. रा. अयो. २०.३२-३४) । राम का वनगमन का यह निश्चय सुन इसकी माला कौसल्या, एवं बन्धु लक्ष्मण ने इसे इस निश्चय से परावृत्त करने का काफी प्रयत्न किया । लक्ष्मण ने इसे कहा, ‘बुढाप के कारण, दशरथ राजा की बुद्धि विनष्ट हो चुकी है । इस कारण, उसकी आज्ञा का पालन करने की कोई भी जरुरत नही है’ । इन आक्षेपों को उत्तर देते समय, एवं अपनी तात्विक भूमिका का विवरण करते हुए राम ने कहा --- धर्भोहि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम् । धर्मसंधितमप्येतत्पिर्तुवचतमुत्तमम ॥
[वा. रा. अयो. २१.४१] । (इस संसार में धर्म सर्वश्रेष्ठ है, एवं धर्म ही सत्य का अधिष्ठान है । मेरे पिता ने जो आज्ञा मुझे दी है, वह भी इसी धर्म का अनुसरण करनेबाली हें) । राम ने आगे कहा, ‘राजा का यही कर्तव्य है कि वह सत्यमार्ग से चले । राजा के द्वारा असत्याचरण किये जाने पर, उसकी प्रज्ञा भी असत्यमागे की ओर जाने की संभावना हैं’ ।
राम (दाशरथि) n. राम के साथ इसका भाई लक्ष्मण, एवं इसकी पत्नी सीता इसके साथ वनवास में गये । ये तीनों अयोध्या छोड कर सायंकाल के समय पैदल ही तमसा नदी पर आयें । जहौ अयोध्या के समस्त पौरजन वनवासगमन की इच्छा से इनके साथ आये । प्रात:काल के समय वनवासगमन के लिए उत्सुक पौरजनों को भुलावा दे कर राम, सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे बढे । तत्पश्चात् वेदश्रुति, स्पंदिका, गोमती आदि नदियो को पार कर, ये दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे
[वा. रा. अयो. ४९] । अयोध्या राज्य के सीमा पर पहुँचते ही इसने अयोध्या एवं वहाँ की देवताओं को पुन: एकबार वंदन किया । पश्चात शृंगवेरपुर नगरी के समीप भागीरथी नदी को पार कर, निपादराज गुह ने इसे दक्षिण की ओर पहुँचा दिया । वहाँ पहुँचते ही राम ने पुन: एकबार लक्ष्मण को अयोध्या लौट जाने के लिए कहा, किन्तु लक्ष्मण अपने निश्चय पर अटल रहा
[वा. रा. अयो. ५३] । बाद में प्रयाग आ कर राम ने भरद्वाज से मुलाकात की, एवं वनवास के चौदह साल शान्तता से कहाँ बिताये जा सकेंगे, इसके संबंध में उस मुनि की सलाह ली । भरद्वाज ने इन्हें चित्रकूट पर्वत पर पर्णकुटी बना कर रहने की सलाह दी । इस सलाह के अनुसार, कालिंदी नदी को पार कर यह चित्रकूट पर्वत पर पहूँच गया, जहाँ पर्णकुटी बना कर रहने लगा । तत्पश्चात् भरद्वाज ऋषि को साथ ले कर, भरत इससे मिलने चित्रकूट आया । वहाँ दशरथ राजा की मृत्यु की वार्ता उसने इसे सुनाई, एवं अयोध्या नगरी को लौट आने की इसकी बार बार प्रार्थना की । इसने उसे कहा, ‘जो कुछ हुआ है, उसके संबंध में अपने आप को दोष दे कर, तुम दुःखी न होना । जो कुछ हुआ है उसनें किसी मानव का दोष नहीं, वह ईश्वर की इच्छा है । इस कारण तुम वृथा शोक मत करो, बल्कि अयोध्या जा कर, राज्य का सम्हाल करो । यही तुम्हारा कर्तव्य है ’ ।
राम (दाशरथि) n. भरत के अयोध्यागमन के पश्चात राम को चित्रकूट पर्वत पर रहने में उदासीनता प्रतीत होने लगी । इस कारण, इसने चित्रकृट पर्वत को छोड कर दक्षिण में स्थित दण्डकारण्य में प्रवेश किया । वहाँ सर्वप्रथम यह अत्रि ऋषि के आश्रम में गया, एवं उसका एवं उसकी पत्नी अनसूया का दर्शन लिया । आगे चल कर घोर अरण्य प्रारंभ हुआ. जहाँ इसने विराध नामक राक्षस का वध किया । तत्पश्चात् यह शरभंग ऋषि के आश्रम में गया, जहाँ उस ऋषि ने अपनी सारी तपस्या का दान कर, इसे पुन: राज्य प्राप्त करा देने का आश्वासन दिया । किन्तु इसने अत्यंत नम्रता से उसका इन्कार किया, एवं यह सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम में गया । वहाँ जाते समय इसे राक्षसों के द्वारा मारे गये तपस्वियों की हड्डियों का डेर दिखाई दिया, तब इसने वहाँ स्थित ऋषियों को आश्चासन दिया, ‘में अब इसी वन में रह कर राक्षसों की पीडा से तुम्हारी रक्षा करूँगा ’
[वा. रा. अर. ७] ।
राम (दाशरथि) n. राक्षस संहार की राम की इस प्रतिज्ञा को सुन कर सीता ने इसे इस प्रतिज्ञा से परावृत्त करने का प्रयत्न किया । उसने कहा, ‘राक्षसों का संहार कर, ऋषिकुलो का रक्षण करना चतुरंगसेनाधारी राजा का कर्तव्य है; हमारे जैसे एकाकी एवं शस्त्र-विहीन वनवासियों का नहीं । इसी कारण, स्वसंरक्षण के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से भी राक्षसों का वध करना इमारे वनवासधर्म के लिए योग्य नहीं है’ । इस पर राम ने कहा, ‘ब्राह्मणों को अभयदान देना, यह हर एक क्षत्रिय का कर्तव्य है, चाहे वह राज्य पर हो या न हो । मैंने ऋषियों को अभयदान दिया है । अब चाहे आकाश भी गिर पडे; मैं अपनी प्रतिज्ञा से हरनेबाला नहीं हूँ’ । राम के इसी प्रतिज्ञा के कारण, दण्डकारण्यनिवासी राक्षसों से इसका शत्रुत्व उत्पन्न हुआ, एवं सीताहरण, रावण से युद्ध आदि अनेकानेक आपत्तियाँ इसके वनवास काल में उत्पन्न हुयी । इस तरह दण्डकारण्य के, ऋषियों के सहबास में राम ने अपने वनवास के दस साल बितायें । कई आश्रम में यह तीन महिनें रहा, तथा कहीकही यह एक साल तक भी रहा । जहाँ जहाँ यह गया, वहाँ इसका हार्दिक स्वागत ही हुआ । इस प्रकार दस साल बडे ही आनंद से बिताने के बाद, यह अगस्त्य एवं लोपामुद्रा के दर्शन के लिए अगस्त्य आश्रम में गया । वहाँ अगस्त्य ने इसे विश्वकर्मा के द्वारा भगवान् विष्णु के लिए बनाया गया दिव्य धनुष्य, एवं अक्षय्य तुणीर प्रदान कियें, एवं पंचबटी में रह कर वहाँ के राक्षसों का संपूर्ण नाश करने का आदेश इसे दिया
[वा. रा. अर. १२.२४-३०] ।
राम (दाशरथि) n. तत्पश्चात् राम पंचबटी में पर्णकुटी बाँध कर रहने लगा । वहाँ गरुड के भाई अरूण का पुत्र जटायु इनसे मिला, एवं उसने रामलक्ष्मण का आश्रम में न होने के काल में, सीता के संरक्षण का भार स्वीकार लिया
[वा. रा. अर. १४] ।
राम (दाशरथि) n. पंचवटी में वास करते समय, एक बार लंकाधिपति रावण की बहन शूर्पणखा राम से मिलने आई । इसे देख कर उसकी कामवासना जागृत हुई, एवं उसने इससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की । फिर इसकी आज्ञा के अनुसार, लक्ष्मण ने उस राक्षसीके नाक एवं कान काट दियें; तथा उसके भाई खर एवं उसके दूषण, त्रिशिरस आदि चौदा सेनापतियो का भी वध किया । पंचवटी में हुयें राक्षससंहार से अकंपन नामक एक राक्षस ही केवल बच सका, जिसने एवं शूर्पणला ने लंकाधिपति रावण को जनस्थान प्रदेश में पंचवटी ग्राम में राम के द्वारा किए गये राक्षससंहार की वार्ता कह सुनाई ।
राम (दाशरथि) n. इस पर रावण ने मारीच नामक अपने ‘कामरूपधर’ (मन चाहे रूप धारण करनेवाले) मित्र से कांचनमृग का रूप धारण करने के लिए कहा, एवं उसकी सहाय्यता से रामलक्ष्मण को आश्रम से बाहर निकाल कर, ऋषिवेश में सीता का दूरण किया । उसी समय सीता के द्वारा पुकारे जाने पर जटायु ने रावण से युद्ध किया । किंतु रावण ने उसके दोनों पंख काट लियें, जिस कारण वह आहत हो कर मूर्च्छित गिर पडा । बाद में जब रामलक्ष्म सीता को ढूँढने के लिए निकले, तब जटायु ने इन्हें रावण के द्वारा सीता के हरण किये जाने की, एवं दक्षिण की ओर प्रस्थान करने की वार्ता कह सुनाई । इतना कह कर जटायु ने देहत्याग किया । जटायु की मृत्यु देख कर राम अत्यधिक विह्णल हुआ, एवं इसने उसे साक्षात अपना पिता मान कर उसका दाहसंस्कार किया
[वा. रा. अर. ७२] ।
राम (दाशरथि) n. जटायु के दाहकर्म के पश्चात, सीता की खोज करते हुए राम एवं लक्ष्मण अगस्त्थाश्रम की ओर मुडे । मार्ग में इन्हें कबंध नामक एक राक्षस मिला. जिसका राम ने वध किया । मरते समय, कबंध ने सीता की मुक्ति के लिए, ऋष्यमूक पर्वत पर पंपा सरोवर के किनारे वनवासी अवस्था में रहनेवाले सुग्रीव वानर की सहाय्यता लेने की राम को सलाह दी । तदनुसार राम ऋष्यमूक पर्वत की ओर मुडा, जहाँ जाते समय, इसने मतंगाश्रम में मतंग ऋषि कि शिष्या शबरी के आतिथ्य का स्वीकार किया ।
राम (दाशरथि) n. बाद में यह सप्तसागर तीर्थ पर जा कर, पंपा सरोवर की ओर चल पडा, जहाँसे यह ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँच गया । अपने भाई वालि के द्वारा विजनवासी किया गया सुग्रीव, राम को देख कर शंकित हुआ, जिस कारण उसने अपने मंत्री हनुमत् को राम के पास भेज दिया । हनुमत ने बडी कुशाग्र बुद्धि से इसका परिचय पूछा एवं अंत में अपनी पीठ पर बिठा कर सुग्रीव के पास ले आया । सुग्रीव एवं राम ने आपस में मिल कर बात की, एवं पश्चात अग्नि की सौगंध खा कर, परस्परों को सहाय्यता करने की प्रतिज्ञा की । सीताहरण के समय गिरें हुए आभूषण सुग्रीव ने इसे बतायें । इसी समय, राम ने वालि के वध की प्रतिज्ञा की । पश्चात वालि एवं सुग्रीव का घमासान युद्ध होते समय, वही सुअवसर मान कर, वृक्ष के पीछे से इसने एक बाण वालि पर छोड दिया, एवं उसका वध किया
[वा. रा. कि. २६.१४] ।
राम (दाशरथि) n. राम ने वालिवध करते समय जो कपटाचरण किया, वह क्षत्रिययुद्धनीति के विरुद्ध माना गया है । इस युद्ध के पूर्व वालि ने अपनी पत्नी तारा से राम के संबंध में कहा था --- ‘धर्मज्ञश्व कृतज्ञश्व कथं पापं करिष्यति’ ।
[वा.रा. कि. १६] । (राम धर्मज्ञ एवं कृतज्ञ होने के कारण, उसके हाथों कौनसा भी पापकर्म होना असंभव है) । इसी कारण, मृत्यु के समय, वालि ने राम को उसके कपटाचरण के लिए काफी दोष दिया, जिसका कोई भी उत्तर राम न दे सका । राम ने उसे इतना ही कहा, ‘अपने भाई के राज्य एवं पत्नी का अपहरण करनेवाले तुम., अत्यंत पापी हो, जिस कारण मैंने तुम्हारा वध किया है
[वा. रा. कि. १७-१८] । रे. बुल्के के अनुसार, राम-वालि संवाद के ये दोनों सर्ग प्रक्षिप्त है (राम-कथा पृ. ४७९) ।
राम (दाशरथि) n. वालिवध के पश्वात्, राम ने किष्किंधा के राज्य पर सुग्रीव को राज्याभिषेक किया । अनन्तर वर्षाऋतु अर्थात श्रावण से कार्तिक मास तक के चार महिने राम ने प्रस्त्रवणगिरि के एक गुफा में बितायें
[वा. रा. कि. २७-२८] । वर्षाकाल समाप्त होने पर भी, जब सुग्रीव ने सीताशोध के संबंध में कोई प्रयत्न नहीं शुरु किया, तब राम ने लक्ष्मण के द्वारा उसकी काफी निर्भत्सना की । फिर सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए नाना दिशाओं में अपने निम्नलिखित वानर सेनापति भेज दियें:--- उत्तर दिशा में-शतबली; पूर्व दिशा में-विनत; पश्चिम दिशा में-सुषेण: दक्षिण दिशा में-हनुमत्, तार एवं वालिपुत्र अंगद
[वा. रा. कि. २९-४७] । हनुमत के साथ गयें वानरसैन्य में निम्नलिखित वानर भी शामिल थे:--- अनंग, नील, सुहोत्र, शरारि, शरगुल्म, नज, गवाक्ष, गवय, वृषभ, सुषेण, मैंद, द्विविद. गंधमादन, उल्कामुख, एवं जांबवत्
[वा. रा. कि. ४१] । उपर्युक्त सेनापतियों में से हनुमत् की योग्यता जान कर राम ने उसे ‘अभिज्ञान’ के रूप में ‘स्वनामाकोपशोभित’ अंगुठी सौंप दी थी
[वा. रा. कि. ४४.१२] । रे. बुल्के के अनुसार, वाल्माकि रामायण में प्राप्त वानरों के प्रेषण की अधिकांश सामग्री प्रक्षिप्त है
[रामकथा पृ.४८६] । हनुमत् एवं उसके साथियों ने विंध्य पर्वत की गुफाओं में, एवं ऋक्षबिल गुफा में, सीता का शोध किया । वह न लगने पर, सभीं वानर निरुत्साहित हो कर प्रायोपवेशन करने लगे । इतने में जटायु के भाई संपाति ने एक सौ योजना की दूरी पर समुद्र में निवास करनेवाले रावण का पता वानरों को बताया । फिर हनुमत् ने समुद्र लाँघ कर सीता का शोध लगाया । इस कालवधी में सारे वानर एक पैर पर खडे हो कर तपस्या करते रहे
[वा. रा. कि. ६७.३४] ।
राम (दाशरथि) n. सीता को ढूँढ निकालने के उपलक्ष्य में राम ने हनुमत् की बडी प्रशंसा की, एवं लंका के बारे में सारी जानकारी भी प्राप्त की । पश्वात् नील को सेनापति बना कर, उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के सुमुहूर्तपर इसने लंका की ओर प्रयाण किया । इस तरह यह महेन्द्रपर्यत के शिखर पर आ पहूँचा
[वा. रा. यु १-५] जब हनुमत् सीता से मिल कर वापस आया, तब उसके पराक्रम के कारण, रावण, के मंत्रिमंडल में काफी कोलाहल मच गया । रावण के छोटे भाई विभीषण ने उसे सलाह दी कि, सीता को जल्द वापस किया जाए । रावण के द्वारा उसे इन्कार किये जाने प अपने अनल, पन, संपाति एवं प्रमति नामक चार प्रधानों के साथ, विभीषण राम के पक्ष में शामिल होने के लिए उपस्थित हुआ ।
राम (दाशरथि) n. बद्धांजलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् । न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रुं परंत ॥
[वा. रा. यु. १८.२७] (शरण में आये हुए किसी भी व्यक्ति को, उसके सारे प्रमादों की माफी कर उसे अभयदान देना, यह मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ ।) राम ने आगे कहा, ‘इस समय, साक्षात् रावण भी मेरी शरण में आएगा, तो उसे भै मैं अभयदान दूँगा’ । विभीषण के द्वारा किया गया रावण पक्ष का त्याग, एवं राम के द्वारा उसे दिया गया अभयदान, ये दोनों प्रसंग वैष्णव धर्म की परंपरा में ‘भगवद्रीता’ के समान ही महत्त्वपूर्ण एवं पवित्र माने जाते हैं । पश्वात् इसने विभीषण को रावण का वध कर, उसे लंका का राजा बनाने का आश्वासन दिया । विभीषण ने भी इसे वचन दिया कि, वह रावणवध में इसकी सहाय्यता करेगा
[वा. रा. यु. १७-१९] । राम के द्वारा लंका पर आक्रमण होने के पूर्व, रावण ने अपने शुक नामक गुप्तचर के द्वारा, सुग्रीव को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न किया, किन्तु सुग्रीव ने उसकी उपेक्षा की ।
राम (दाशरथि) n. लंका में पहुँचने के लिए समुद्र पार करना आवश्यक था । समुद्र में मार्ग प्राप्त करने के लिए, इसने कुशासन पर आधिष्ठित हो कर, एवं तीन दिनों तक प्रायोपवेशन कर, समुद्र की आराधना की । किन्तु समुद्र ने इसे मार्ग न दिया, जिस कारण इसने क्रुद्ध हो कर समुद्र पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया
[वा. रा. यु. २१] । तत्पश्वात् समुद्र इसकी शरण में आया, एवं विश्वकर्मापुत्र नल के द्वारा समुद्र पर वृक्षों तथा पत्थरों से एक सेतु बाँधने की उसने इसे सलाह दी । नील के द्वारा निर्माण किया गया यह सेतु सौ योजन लंबा था, जो उसने पाँच दिनों में, प्रतिदिन चौदह, बीस, इक्कीस, बाइस, तेइस योजन इस क्रम से तैयार किया था । इस सेतु के द्वारा, ससैन्य, समुद्र को लाँध कर यह लंका पहुँच गया
[वा. रा. यु. २०.४१.-७७] । वहाँ ‘सुवेल पर्वत’ के समीप इसने पडाव डाले
[वा. रा. यु.अ २३-२४] ।
राम (दाशरथि) n. वानर सेना के समुद्र पार करने के बाद, रावण ने शुक, सारण एवं शार्दूल नामक अपने गुप्तचरों को वानरवेश से राम सेना की ओर भेज दिया, तथा रामसेना की गणना करने के लिए कहा । कितु विभीषण ने उनको पहचान लिया, एवं राम के संमुख पेश किया । पश्वात् वे शरण आने के कारण, राम ने उन्हें जीवनदान दिया
[वा. रा. यु. २५-२७] । रे. बुल्के के अनुसार, वाल्मीकि रामायण में प्राप्त गुप्तचरों का यह वृत्तांत, एवं तत्पश्वात् दिया गया राम के कटे हुए मायाशीर्ष का वृत्तांत प्रक्षिप्त है
[रामकथा पृ. ५५५-५५६] । युद्ध के पूर्व, राम ने अपनी सेना को सुसंघटित बनाया, जिसमें अंगद को लंका के दक्षिण द्वार पर, हनुमत् को पश्चिम द्वार पर, एवं नील को पूर्व द्वार पर आक्रमण के लिए नियुक्त किया गया । लंका के उत्तर द्वार पर, लक्ष्मण की सहाय्यता से राम ने रावण से स्वयं ही सामना देने का निश्चय किया
[वा. रा. यु. ३७] ।
राम (दाशरथि) n. रावण से युद्ध शुरू करने के पूर्व, राम ने सुवेल पर्वत पर चढ कर लंका का निरीक्षण किया । उसी समय, सुग्रीव सहसा पर्वत पर चढ कर लंका का के गोपुर पर कूद पडा, एवं वहाँ अकेले ही उसने रावण को द्वंद्वयुद्ध में परास्त किया
[वा. रा. य. ४०] । तप्तश्चात् विभीषण के परामर्श पर, राम ने अंगद के द्वारा रावण को संदेश भेजा, ‘यदि तुम सीता को नहीं लौटाओंगे, तो मैं सारे राक्षसों के साथ तुम्हारा संहार करूँगा’ । अंगद के मुँह से राम का यह संदेश सुन कर, रावण ने उसका वध करने का आदेश दिया । चार राक्षसों ने अंगद को पकडना चाहा, किंतु अंगद उन चारों को उठा कर इतने वेग से एक भवन पर कूद पडा कि, वे राक्षस निःसहाय्य भूमि पर गिर पडे । पश्चात् अंगद उस भवन ढहा कर, सुरक्षितता से राम के पास आ पहुँचा । राम ने जब समझ लिया कि, किसी प्रकार मित्रता के साथ युद्ध टालना असंभव है, तब इसने अपने सेनापति नील को युद्ध शुरु करने की आज्ञा दे दी
[वा. रा. यु. ४१-४२] ।
राम (दाशरथि) n. लंका को वानरसेना से अवरुद्ध जान कर, रावण ने उसका सामना करने के लिए अपनी सैना को भेज दिया । इस समय राम एवं इसके सहयोगियों के द्वारा निम्नलिखित राक्षस योद्धा मारे गये---राम के द्वारा-अग्निकेतु, रश्मिकेतु, मित्रघ्न एवं यज्ञकेतु: प्रजंघ के द्वारा-संपाति; सुग्रीव-प्रघस; लक्ष्मण-विरुपाक्ष; मैंद-वज्रमुष्टि: नील-निकुंभ; द्विविद-अशनिप्रम; सुषेण-विद्युन्मालिन्; गजवर-तपन; हनुमत-जंबु मालिन्; नल-प्रतपन
[वा. रा.यु. ४३] । सायंकाल के समय, प्रथम दिन का युद्ध समाप्त हुआ, किंतु राक्षसों के द्वारा पुन: युद्ध प्रारंभ किये जाने पर राम ने यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, शुक एवं सारण आदि राक्षसों का पराजय किया ।
राम (दाशरथि) n. तत्पश्वात् अंगद ने रावण के पुत्र इंद्रजित् से युद्ध प्रारंभ कर उसे परास्त किया । फिर इंद्रजित् ने ब्रह्मा के वरदान से अद्दश्य हो कर, राम एवं लक्ष्मण को नागमय शरों से आहत किया, जिस कारण ये दोनों निश्चेष्ट पडे रहे । तब इंद्रजित् ने इन दोनों को मृत समझ कर वैसी सूचना रावण को दी
[वा. रा. यु. ४२-४६] । यह सुन कर रावण ने सीता एवं त्रिजटा को पुष्क विमान में बैठा कर, रणभूमि मे मूर्च्छित पडे हुए राम-लक्ष्मण को दिखलाया । सीता इन दोनों को मृत समझ कर विलाप करने लगी. किन्तु त्रिजटा ने उसको वास्तव परिस्थिति का ज्ञान दिला कर सांत्वना दी
[वा. रा. यु. ४७-४८] । बाद में राम को जैसे ही होश आया. यह लक्ष्मण को मूर्च्छित देख कर विलाप करने लगा
[वा. रा. यु. ४९] । पश्चात् सुषेण ने राम को कहा कि, ओषधि लाने के लिए हनुमत् को द्रोणाचल भेज दिया जाये । किन्तु इसी समय, गरुड का युद्धभूमि में आगमन हुआ. जिसको देखते ही नागपाश के सारे नाग भाग गयें, एवं उसके स्पर्शमात्र से ही राम एवं लक्ष्मण स्वस्थ हो गयें
[वा. रा. यु. ५०] । रे. बुल्के के अनुसार, गरुड के आगमन का यह कथाभाग प्रक्षिप्त है
[रामकथा. ५६२] राम (दाशरथि) n. युद्ध के दूसरे दिन हनुमंत ने रावणपक्षीय योद्धा धूम्राक्ष का वध किया
[वा. रा. यु. ५१-५२] । तीसरे दिन अंगद ने वज्रदंष्ट्र आदि राक्षसों का वध किया
[वा. रा. यु. ५३-५४] । चौथे दिन हनुमत् ने अकं-पनादि राक्षसों का वध किया
[वा. रा. यु. ५५-५६] । पाँचवे दिन रावण का प्रमुख सेनापति प्रहस्त, अग्निपुत्र नील वानर के द्वारा मारा गया, एवं उसके सैन्य में से नरान्तक, महानंद, कुंभहनु आदि राक्षसों का भी संहार हुआ
[वा. रा. यु. ५७-५८] । युद्ध के छ्ठवें दिन, रावण स्वयं अपना पुत्र इंद्रजित् एवं अतिकाय आदि राक्षसों के साथ स्वयं युद्धभूमि मे प्रविष्ट हुआ । उसने सुग्रीव, गवाक्ष आदि वानरों को परास्त किया, एवं ‘अग्नि-अस्त्र’ के द्वारा नील वानर का पराजय किया । तत्पश्वात् रावण एवं लक्ष्मण का युद्ध हुआ, जिसमें ‘ब्रह्मास्त्र’ के द्वारा उसने लक्ष्मण को मूर्च्छित किया । रावण उसे उठा कर ले जाने लगा, किंतु हनुमत् लक्ष्मण को रणभूमि से उठा कर राम के पास ले आया । तत्पश्चात् राम ने हनुमत् के स्कंध पर आरूढ हो कर, रावण को आहत किया, एवं उसके मुकुट को बाण मार कर नीचे गिरा दिया । पश्वात् राम ने रावण को रणभूमि से भाग जाने पर मजबूर कर दिया
[वा. रा. यु. ५९] । उसी दिन शाम को राम ने कुंभकर्ण का भी वध किया, जिस समय इसने सर्वप्रथम उसकी भुजाएँ, तत्पश्वात् उसके पैर, एवं अंत में उसका सिर अपने बाणों से काट दिया मृत्यु की पश्चात्, कुंभकर्ण का सिर सूर्योदयकालीन चंद्रमा के समान आकाश में दिखाई पडा, एवं वह स्वयं पृथ्वी पर गिर कर, उसके प्रचंड देह के कारण अनेक भवन गिर पडे । युद्ध के सातवें दिन रामपक्षीय वानरों ने देवान्तक. नरांतक, त्रिशिरस एवं अतिकाय नामक चार रावणपुत्रों का वध किया । महोदर एवं महापार्श्व नामक रावण के भाईयों का भी वध किया गया । उनमें से नरान्तक का वध अंगद के द्वारा, देवान्तक एवं त्रिशिरस् का वध हनुमत के द्वारा, महोदर का वध नील के द्वारा, एवं अतिकाय का वध लक्ष्मण के द्वारा हुआ
[वा. रा. यु. ६९-७१] ।
राम (दाशरथि) n. युद्ध के आठवें दिन रावण का पुत्र इंद्रजित अद्दश्य रूप से रणभूमि में आया, एवं उसने वानरसेना पर ऐसा जोरदार हमला किया कि, उसमें ६८ करोड वानर मारे गयें । इंद्रजित् के द्वारा छोडे गये ब्रह्मास्त्र के कारण, राम एवं लक्ष्मण मूर्च्छित हुयें
[वा. रा. यु. ७३] । रात्री के समय विभीषण एवं हनुमत् मशाल ले कर युद्धभूमि में आये, एवं उन्होने देखना शुरू किया कि, कौन मरा एवं कौन बचा । उस समय उन्हें सर्वप्रथम जांबवत् मिला, जिसने हनुमत् से आज्ञा दी, ‘इसी समय, हिमालय के ऋषभ शिखर पर जा कर, वहाँसे संजीवनी, विशल्यकरिणी, सुवर्णकरिणी एवं संधानी नामक चार ओषधियाँ लाने के उपरान्त, जांबवत् ने राम एवं लक्ष्मण को होश में लाया, एवं संपूर्ण वानरसेना को पुन: जीवित किया
[वा. रा. यु. ७४] । युद्ध के नौंवें दिन वानरों ने लंका में घुस कर, उसे आग लगा दी, एवं कुंभ, निकुंभ, यूपाक्ष आदि राक्षसों का वध किया
[वा. रा. यु. ७५-७७] । इसी दिन राम के द्वारा मकराक्ष राक्षस मारा गया
[वा. रा. यु. ७८-७९] । बाद में इंद्रजित ने अपने मायावी युद्ध के कारण, वानरसेना में हाहाःकार मचा दिया, एवं उन्हे घबराने के लिए, उनकी आँखो के सामने सीतावध का मायावी द्दश्य निर्माण किया । तत्पश्वात वह निकुंभिला नामक स्थान में जा कर, वानरसंहार के लिए आसुरी-यज्ञ करने लगा । विभीषण की सलाह के अनुसार, लक्ष्मण ने वहाँ जा कर इंद्रास्त्र छोड कर उसका वध किया । पश्चात् इस युद्ध में मूर्च्छित एवं मृत हुयें वानरों को सुषेण ने पुन: जीवित किया
[वा. रा. यु.९१] । अपने पुत्र इंद्रजित् के वध की वार्ता सुन कर रावण अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं अपने खड्ग से सीता का वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ । किन्तु सुपार्श्व नामक उसके आमात्य ने इस पापकर्म से उसे रोंक लिया, एवं चैत्र कृष्ण १४ का दिन युद्ध की तैयारी में व्यतीत कर, अमावास्या के दिन राम पर आखिरी हमला करने की सलाह उसने उसे दी
[वा. रा. यु. ९२.६२] ।
राम (दाशरथि) n. चैत्र अमावास्या के दिन रावण ने राक्षसों के जय के लिए हवन शुरु किया, किन्तु वानरों ने उसके यज्ञकार्य में त्राधा उत्पन्न की । फिर क्रोध में तगमगाता हुआ रावण, महापार्श्व, महोदर एवं विरुपाक्ष नामक तीन सेनापतियों के साथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ । राम ने उसके साथ घमासान युद्ध किया । उस समय राम की सहाय्यार्थ आये हुए विभीषण एवं लक्ष्मण को रावण ने मूर्च्छित किया । सुषेण ने हिमालय से प्राप्त वनस्पतियों से उन दोनों को पुन; होश में लाया
[वा. रा. यु. १०२] । तत्पश्वात् राम इंद्र के द्वारा दिये गये दिव्य रथ पर आरूढ हुआ, एवं अगस्य के द्वारा दिये गये ब्रह्मास्त्र से रावण का हृदय विदीर्ण कर इसने उसका वध किया
[वा. रा. यु. ११०] ;
[म. व. २७४.२८] । वाल्मीकि रामायण के दक्षिणात्य पाठ के अनुसार, अगस्त्य ऋषि ने राम को ‘आदित्य हृदय’ नामक स्तोत्र सिखाया था, जिसके पाठन से रावण का वध करने में यह यशस्वी हुआ । राम-रावण के इस अंतीम युद्ध में रावण के सिर पुन: पुन: उत्पन्न होने की कथा वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । इस कथा के अनुसार, राम ने रावण के कुल एक सौ सिर काट दियें (एकमेव शतं छिन्नं शिरसा तुल्यवर्चस:)
[वा. रा. यु. १०७.५७] । अध्यात्म रामायण के अनुसार, रावण के नाभिप्रदेश में अमृत रखा था । विभीषण की सलाह के अनुसार, राम ने ‘आग्नेय अस्त्र’ छोड कर उस अमृत को सुखा दिया, एवं रावण का वध किया
[आ. रा. युद्ध. ११.५३] ;
[आ. रा. १.११.२७८] महाभारत के अनुसार, रावण ने अंतीम युद्ध के समय राम एवं लक्ष्मण का रूप धारण कनेबाले बहुत से मायामय योद्धाओं का निर्माण किया था । किन्तु राम ने अपने ब्रह्मास्त्र से इन सारे योद्धाओं को रावण के साथ ही जला दिया, जिस कारण उनकी राख भी शेष न रही
[म. व. २७४.८, ३१] । रावणवध से राम-रावण युद्ध समाप्त हुआ । तत्पश्चात् राम के अनुरोध पर, विभीषण ने अपने भाई रावण का विधिवत् अग्निसंस्कार किया
[वा. रा. यु. १११] । मंदोदरी आदि रानियों को सांत्वना दे कर इसने उन्हें लंका के लिए रवाना किया । रावण की अंतीम क्रिया होने के उपरान्त, राम ने लक्ष्मण के द्वारा विभीषण को लंका का राजा बना कर उसका राज्याभिषेक किया । बाद में, राम ने समुद्र में बनाया हुआ सेतु भी तोडा, जिससे आगे चल कर लंका को परकीय आक्रमण का भय न रहे
[पद्म. सृ. ३८] ।
राम (दाशरथि) n. तत्पश्चात् विभीषण के द्वारा सीता को शिबिका में बैठा कर राम के पास लाया गया । इस समय राम ने सीता से कहा, ‘रावण से युद्ध कर मैंने तुझे आज विमुक्त किया है । मैंने आज तक किया हुआ युद्ध तुम्हारे आसक्ति के कारण नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय के नाते मेरा कर्तव्य निमाने के लिए किया है । तुझे पुन: प्राप्त करने में मुझे आनंद जरूर हुआ है; किन्तु इतने दिनों तक के अन्य पुरुष के घर तुम्हारे रहने के कारण, तुम्हारा पुन; स्वीकार करना असंभव है’ । राम का यह कथन सुन कर, सीता ने अपने सतीत्व की सौगंध खाय़ी; एवं लक्ष्मण के द्वारा चिता तैयार कर, वह अग्निपरीक्षा के लिए सिद्ध हुई
[वा. रा. यु. ११६] । इतने में अनेक देवता के सम्मुख अग्नि देवता नें सीता के सतीत्व का साक्ष दिया, एवं उसका स्वीकार करने के लिए राम से कहा । तव राम ने सीता के अग्निपरीक्षा के संबंध में अपनी भूमिका विशद करते हुए कहा, ‘मुझे सीता पर संदेह नहीं है, एवं कभी नहीं था । मैंने यह सब कुछ इसलिये कहा कि, कोई भी सीता के चरित्र पर आक्षेप न करें
[वा. रा. यु. ११८] ।
राम (दाशरथि) n. इस तरह रावण से युद्ध कर, उसका वध करने के कारण, राम का वनवास पाण्डबों के वनवास की भाँति केवल एक वनवास ही न रह कर, दक्षिण भारत की विजययात्रा में परिणत हुआ । अपने चौदह वर्षों के वनवास में से १२॥ वर्ष इसने पंचवटी में वनवासी तपस्वी की भाँति व्यतीत कियें । वनवास के बाकी बचे हुए १॥ वर्ष इसने राक्षसों के संग्राम में व्यतीत किया, जो कार्तिक कृष्ण १० के दिन शूर्पणखा-वध से प्रारंभ हुआ, एवं अगले साल के वैशाख शुक्ल १२ के दिन रावणवध से समाप्त हुआ । इस राक्षससंग्राम के कारण, रावण के द्वारा लंका में स्थापित बलाढय राक्षस साम्राज्य विनष्ट हुआ । दक्षिण भारत का सारा प्रदेश राक्षसो के भय से विसुक्त हो कर, वहाँ दाक्षिणात्य वानरों का राज्य प्रस्थापित हुआ, एवं अगस्त्य के द्वारा दक्षिण भारत मे प्रस्थापित किये गये आर्य संस्कृति का द्दढ रूप से पुनरुस्थान हुआ । इस तरह राम का दक्षिण दिग्विजय अनेकानेक द्दष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है । इस द्दष्टि से सीता के अग्नि-परीक्षा की कथा भी रूपकात्मक प्रतीत होती है, जो संभवत: राम के द्वारा शुरु किये गये दक्षिण भारत की आबादी एवं पुनर्वसन के कार्य की यशस्विता प्रतीकरूप से दर्शाती है । सीता शब्द का शब्दश: अर्थ भी भूमि ही है (सीता देखिये) ।
राम (दाशरथि) n. राम एवं रावण का युद्ध कुल ८७ दिनों तक चलता रहा, उनमें से पंद्रह दिन कोई युद्ध न हुआ था, जिस कारण राम-रावण का प्रत्यक्ष युद्ध ७२ दिनों अक हुआ प्रतीत होता है । यह युद्ध माघ शुद्ध द्वितीया को शुरु हुआ, एवं वैशाख कृष्ण द्वादशी के दिन रावण वध से समाप्त हुआ ।
राम (दाशरथि) n. रावणसंग्राम के संबंध में, लंका के स्थलनिर्णय की समस्या महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है । रायचौधरी आदि अभ्यासकों के अनुसार, आधुनिक सिलोन ही लंका है, एवं आधुनिक महाराष्ट्र प्रदेश ही प्राचीन दण्डकारण्य है । किबे आदि अन्य अभ्यासक लंका का स्थान आधुनिक मध्य हिंदुस्थान में अमरकंटक पर्वत के पास मानते हैं । वडेर आदि कई अन्य अभ्यासक आधुनिक मालदिव अंतरीप को राक्षसद्वीप मानते हैं । अन्य कई अभ्यासकों के अनुसार, प्राचीन लंका देश आधुनिक आंध्र प्रदेश के उत्तर में बंगाल उपसागर के बीच कहीं बसा हुआ था । डँनिएल जाँन के अनुसार, प्राचीन लंका आधुनिक सीलोन के दक्षिण में अथवा दक्षिणीपूर्व में कहीं बसी हुई थी
[डाँ पुसालकर स्टडीज इन दि एपिक्स अँन्ड पुराणाज पृ. १९१९] ।
राम (दाशरथि) n. किबे एवं हिरालाल के अनुसार, अमरकंटक पर्वत के प्रदेश में रहनेबाले वन्य लोग प्राचीन काल में वानर, एवं आधुनिक गोंड लोग राक्षस कहलाते थे । अन्य कई अभ्यासक राक्षसों को असुरवंशीय मानते हैं । चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुसार, आधुनिक द्रविड प्रदेश में रहनेवाले द्रविडवंशीय लोग रामायण काल में वानर कहलाते थे
[डाँ. पुसालकर. पृ. १९२] ; बानर देखिये ।
राम (दाशरथि) n. कई अभ्यासकों के अनुसार. रावणवध के साथ हि साथ राम का दैवी अवतार समाप्त होता है । अपने इस अवतारकार्य के समाप्ति के पश्वात्, इक्ष्वाकुवंश का एक राजा यही मर्यादित स्वरूप रामचरित्र धारण करता है । इसी कारण, वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में चित्रित किया गया राम, पहले काण्डो में चित्रित राम से अलग व्यक्ति प्रतीत होता है । रे. बुल्के भी संपूर्ण उत्तर काण्ड को प्रक्षिप्त मानते है, जिसकी रचना वाल्मीके के द्वारा नही, बल्कि भिन्न भिन्न उत्तरकालीन कवियों के द्वारा हुयीं है
[रामकथा, पृ. ६०५-६०६] । वाल्मीकिद्वारा रचित ‘आदिरामायण’ एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी राम के द्वारा रावण की पराजय, एवं सीता की पुन:प्राप्ति के साथ ही ‘रामकथा’ समाप्त की गयी है ।
राम (दाशरथि) n. युद्ध के पश्चात राम, सीता एवं लक्ष्मण को साथ ले कर पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या की ओर चल पडे । उस समय राक्षससंग्राम में भाग लेनेवाले समस्त वानरों ने इच्छा प्रकट की, कि वे अयोध्या में रामराज्याभिषेक देखना चाहते है । इस कारण, उन्हे एवं सुग्रीवादि अपने मित्रों को साथ ले कर यह अयोध्या में आया । अयोध्या जाते समय, राम ने सीता को युद्धभूमि, नल के द्वारा बाँधा गया सेतु, किष्किंधा आदि ऐतिहासिक स्थान बतायें । राम के चौदह वर्षों के वनवास में से एक दिन बाकी था, इसलिए वैशाख शुद्ध पंचमी के दिन, इसने भरद्वाज ऋषि के आश्रम में वास किया, एवं हनुमत् के द्वारा अपने आने का संदेश भेजा । दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र के अवसर पर, नंदिग्राम में राम एवं भरत की भेंट हुयी, एवं उसके साथ अयोध्या जा कर, अपनी माताओं एवं वसिष्ठ आदि गुरुजनों के इसने दर्शन किये
[वा. रा. यु. १२६] ।
राम (दाशरथि) n. वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन, राम एवं भरत ने मंगल स्नान किये, एवं इसका राज्याभिषेक तथा भरत का यौवराज्याभिषेक वसिष्ठ के द्वारा किया गया । अनंतर राम ने पहले ब्राह्मणों को तथा बाद में सुग्रीवादि वानरों को विपुल दान दिया । राम ने लक्ष्मण को युवराज बनाना चाहा, किन्तु लक्ष्मण के द्वारा उस पद को अस्वीकार किये जाने पर, भरत को युवराज बनाया गया । वाल्मीकि रामायण में रामाभिषेक के लिए आमंत्रित राजाओं की जानकारी सविस्तृत रूप में प्राप्त है, जहाँ इसके सीरध्वजादि आप्त, प्रतर्दनादि मित्र, एवं तीन सौ मांडलिक राजाओं के उपस्थिति का निर्देश प्राप्त है
[वा. रा. उ. ३७-४०] । इस समारोह के समय, सुग्रीव आदि को छ: महिने तक अतिथि के रूप में रख कर आदरपूर्वक बिदा किया गया । विभीषण के द्वारा राम को दिया गया पुष्पक विमान कुबेर को वापस भेज दिया गया
[वा. रा. उ. ४१] । तत्पश्चात् राम ने अत्यधिक कुशलता के साथ राज्य किया, जिस कारण आज भी आदर्श राज्य को लोग ‘रामराज्य’ कहते है
[वा. रा. यु. १२८] ।
राम (दाशरथि) n. कुछ समयोपरांत सीता गर्भवती हुई. तथा उसने अरण्य में घूमने की इच्छा प्रकट की । इसको अगले दिन तपोवन में भेज देने का आश्वासन दे कर, राम अपने मित्रों के साथ परिहास की कहानियाँ सुनने बैठा । उस समय, राम ने भद्र नामक अपने मित्र से पूछाँ, ‘मेरे, सीता, एवं भरत आदि के विषय में लोग क्या कहते है ?’ तब भद्र ने सीता के कारण हो रहे लोकापवाद, एवं जनता की आचरण पर पडने वाले उसके कुप्रभाव निर्देश करते हुआ कहा --- अस्माकमपि दारेषु सहनीयं भविष्यति । यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तंते ।
[वा. रा. उ. ४३.१९] (राम के द्वारा सीता का स्वीकार किये जाने के कारण हमको भी अपनी स्त्रियों का वैसा ही आचरण अब सहना पडेगा । क्यों कि, जैसा आचरण राजा करता है, वैसा ही आचरण प्रजा करती है ) । लोकापवाद की यह कथा सुन कर, राम अत्यधिक व्याकुल हुआ । दूसरे दिन इसने लक्ष्मण को बुला कर सीता को गंगा नदी के उस पार छोड आने का आदेश दिया । तदनुसार, तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण सीता को रथ पर ले गया, एवं उसने सीता को वाल्मीकि ऋषि के आश्रम के समीप छोड दिया । उस समय, लक्ष्मण ने बडे दुःख के साथ सीता को बताया कि, लोकापवाद के कारण राम ने उसका त्याग किया है
[वा. रा. उ. ६९] । कालिदास के रघुवंश में प्राप्त सीता त्याग की कथा में भद्र को राम का मित्र नही, किंतु गुप्तचर बताया गया है
[रघु. १४] । कथासरित्सागर एवं भागवत में एक धोबी का उदाहरण दे कर लोकापवाद की यह कथा प्रस्तुत की गयी है । एक बार गुप्तवेश में घुमते हुए राम ने देखा कि, एक धोबी अपनी स्त्री को अपने घर से निकाल रहा है । उस समय धोबी ने अपनी पत्नी से कहा, ‘मै राम की तरह नही हूँ, जिन्होने दीर्घकाल तक दूसरे के घर में रहनेवाली सीता का पुन: स्वीकार किया’
[कथा, ९.१.६६] ;
[भागवत. ९.११.९] ।
राम (दाशरथि) n. वाल्मीकि के आश्रम में, सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया, जिनका नाम वाल्मीकि ने कुश एवं लव रख दिया
[वा. रा. उ. ६६] । बाद में कुश एवं लव वाल्मीकि के शिष्य बन गयें, जिसने उन्हें समग्र रामायण सिखा दिया । बाद में वे दोनों सभाओं में जा कर रामायण का गान करने लगे । किसी दिन राम ने उन दोनों को अयोध्या के राजमार्ग में रामायण का गान करते हुए देखा, जब उन्हें महल में ले जा कर इसने भरत आदि भाईयों के साथ रामायण का गान सुना
[वा. रा. बा. ४] ।
राम (दाशरथि) n. रावण स्वयं ब्राह्मण था, जिस कारण उसका वध करने से राम को ब्रह्महत्या का पाप लग गया । उस पाप से बचनें के लिए, राम ने अगरूय ऋषि के कथनानुसार अश्वमेधयज्ञ का आयोजन किया
[पद्म. पा. ८-१०] ; शत्रुध्न देखिये । इसके पूर्व, राम ने राजसूय यज्ञ करने की इच्छा प्रगट की थी । किंतु भरत के द्वारा, उस यज्ञ के कारण राजवंश के विनाश का भय व्यक्त करने पर, राम ने दस अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया । लक्ष्मण ने भी उसी सूचना को अनुमोदन दिया
[वा. रा. उ. ८३-८४] । अश्वमेध यज्ञ करते समय पत्नी की उपस्थिति आवश्यक रहती है, अतएव इसने सीता की स्वर्णमूर्ति बनवा कर एवं उसे अपने पास रख कर यज्ञानुष्ठान किया
[वा. रा. उ. ९९.७] । इसी अश्वमेध यज्ञ के समय, कुशलव के साथ ले कर वाल्मीकि ऋषि उपस्थित हुए, एवं उन्होने उनके द्वारा रामायण का गान करा के राम से कुशलव का परिचय करवाया (कुश-लव देखिये) । उपर्युक्त यज्ञ के अतिरिक्त, राम के द्वारा वाजपेय. अग्निष्टोम, अतिरात्र आदि यज्ञ करने का निर्देश भी प्राप्त है
[वा रा. उ. ९९.९-१०] ।
राम (दाशरथि) n. अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, अपने पुत्रों को देख कर, राम ने वाल्मीकि के द्वारा सीता को भी बुलावा भेज दिया । इस पर सीता को साथ ले कर वाल्मीकि रामसभा में उपस्थित हुए, एवं उसने सीता के सतीत्व की साक्ष दी । तदनंतर राम के द्वारा सीता को अपने सतीत्व का प्रमाण देने के लिए अनुरोध कियें जाने पर, सीता ने स्वयं को निष्पाप बताते हुए पृथ्वी में प्रवेश किया
[वा. रा. उ. ९७] ; सीता देखिये ।
राम (दाशरथि) n. कुछ समय के उपरांत, कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी आदि राम के माताओं का क्रमश: देहान्त हुआ
[वा. रा. उ. ९९] । लक्ष्मण भी सरयू नदी के तट पर जा कर, एवं कृतांजलि हो कर सशरीर स्वर्ग चला गया
[वा. रा. उ. १०३-१०६] । फिर लक्ष्मण के वियोग के कारण दुःखी हो कर, राम ने भरत, शत्रुघ्न एवं सुग्रीव के साथ सरयू नदी के तट पर देहत्याग किया । पश्वात् यह विष्णु के रूप में प्रविष्ट हुआ, एवं इसके साथ आयें हुए बाकी सारे लोग ‘संतानक’ लोग में प्रविष्ट हुयें
[वा. रा. उ. १०७-११०] ।
राम (दाशरथि) n. जैसे पहले ही कह गया है कि, वनवास जाते समय राम एवं सीता की आयु क्रमश: सताईस एवं अठारह वर्षों की थी । चौदह वर्षों का वनवास भुगतने के पश्वात राम को राज्याभिषेक हुआ, जिस समय राम एवं सीता की आयु क्रमश; बयालिस एवं तैतीस वर्षों की थी । रावण के बंदिवास में सीता कुल ग्यारह मास एवं चौदह दिनों तक थी
[स्कंद. ३.३.३०] ;
[पद्म. पा.अ ३६] । राम के वनवास के प्रथम दिन से ले कर, राज्याभिषेक तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का तिथिनिर्णय उपर्युक्त पुराणों में निम्न प्रकार दिया गया है:-- वैशाख शुक्ल १--- वनवास का प्रथम दिन । वैशाख शुक्ल २--- चित्रकूट की ओर गमन । वैशाख शुक्ल ६--- चित्रकूट में भरत से भेंट । (बारह वर्ष, छ: महिनों तक पंचवटी में निवास) कार्तिक कृष्ण १०--- शूर्णणखा के नाक एवं कान काटना । फाल्गुन कृष्ण ८--- रावण के द्वारा सीता का हरण । (दस महिनों के बाद) मार्गशीर्ष शुक्ल ९--- सीताशोध के लिए गये हनुमत की संपाति से भेंट ।मार्गशीर्ष शुक्ल ११--- महेंद्रपर्वत पर से हनुमत का लंका के लिए उडान । मार्गशीर्ष शुक्ल १२--- अशोकवन में हनुमत् एवं सीता की भेंट । मार्गशीर्ष शुक्ल १३--- हनुमत् के द्वारा अक्ष आदि राक्षसों का वध, एवं अशोकवन का विघ्वंस । मार्गशीर्ष शुक्ल १४--- रावण के द्वारा हनुमत्-बंध, एवं हनुमत के द्वारा लंकादहन । मार्गशीर्ष शुक्ल १५--- हनुमत् का महेंद्रपर्वत पर पुनरागमन । पौष कृष्ण १-५--- हमुमत् का महेंद्र से किर्ष्किंधा तक प्रवास । पौष कृष्ण ६--- हनुमत् की वानरों से भेंट, एवं मधुवन का विध्वंस । पौष कृष्ण ७--- हनुमत् की राम से भेंट । पौष कृष्ण ८--- राम के द्वारा रावणवध की प्रतिज्ञा, एवं उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र तथा विजय योग पर, दक्षिण की ओर प्रयाण । पौष कृष्ण ९---३०--- राम का किर्ष्किधा से समुद्र तक का प्रवास । पौष शुक्ल १-३--- राम का समुद्र तट पर आगमन । पौष शुक्ल ४--- विभीषण का राम के पास आना । पौष शुक्ल ५--- राम के द्वारा समुद्र पार करने का विचार । पौष शुक्ल ६-९--- समुद्र के तुष्टयर्थ राम का प्रायोपवेशन । पौष शुक्ल १०-१३--- सेतुबंधन । पौष शुक्ल १४-- राम का सुवेल पर्वत पर आगमन । पौष शुक्ल १५--- माघ कृष्ण २--राम सेना का सुवेल पर्वत पर आगमन । माघ कृष्ण ३-१०--- रामसेना के द्वारा लंका का अवरोध । माघ कृष्ण ११--- शुक एवं सारण नामक रावण के दूतों का राम के पास आगमन । माघ कृष्ण १२--- राम की सेनागणना । माघ कृष्ण १३-३०--- रावण की सेनागणना । माघ शुक्ल १--- रावण के पास अंगद का दूत के रूप में जाना । माघ शुक्ल २-८--- युद्धारंभ । माघ शुक्ल ९--- इंद्रजित् के द्वारा रामलक्ष्मण का नागपाश में बंधन । माघ शुक्ल १०--- गरुडमंत्र की सहाय्यता से हनुमत् के द्वारा राम-लक्ष्मण की मुक्ति । माघ शुक्ल ११-१२--- हनुमत के द्वारा धूम्राक्ष का वध । माघ शुक्ल १३--- हनुमत् के द्वारा अकंपन का वध । माघ शुक्ल १४--- फाल्गुन कृष्ण १--- नील के द्वारा प्रहस्त का वध । फाल्गुन कृष्ण २-४--- राम-रावण का युद्ध एवं रावण का युद्धभूमि से पलायन । फाल्गुन कृष्ण ५-८--- कुंभकर्ण को जगाना । फाल्गुन कृष्ण ९-१४--- राम के द्वारा कुंभकर्ण से युद्ध एवं वध । फाल्गुन कृष्ण ३०--- युद्धविराम । फाल्गुन कृष्ण १-४--- राम लक्ष्मणों वा इंद्रजित् से युद्ध । फाल्गुन कृष्ण ५-७--- लक्ष्मण के द्वारा अतिकाय का वध । फाल्गुन कृष्ण ८--- इंद्रजित् से द्वितीय युद्ध । फाल्गुन कृष्ण ९-१२--- कुंभ एवं निकुंभ का वध । फाल्गुन कृष्ण १३--- चैत्र कृष्ण १--- मकराक्ष का वध । चैत्र कृष्ण २--- इंद्रजित् से तृतीय युद्ध, एवं लक्ष्मण की मूर्च्छा । चैत्र कृष्ण ३-७--- युद्धविराम, एवं हनुमत् के द्वारा लक्ष्मण के लिए ओषधी लाना । चैत्र कृष्ण ८-१३--- इंद्रजित से चतुर्थ युद्ध एवं वध । चैत्र कृष्ण १४--- रावण का युद्धभूमि में प्रवेश । चैत्र शुक्ल १-५--- राम-रावणयुद्ध, एवं रावण का युद्धभूमि से पलायन । चैत्र शुक्ल ६-८--- महापार्श्व आदि राक्षसों का वध । चैत्र शुक्ल ९--- राम-रावणयुद्ध एवं रावण का युद्ध भूमि से पलायन । चैत्र शुक्ल १०--- युद्धविराम । चैत्र शुक्ल ११--- इंद्र के द्वारा राम के लिए रथ का प्रेषण । चैत्र शुक्ल १२---वैशाख कृष्ण ४--- राम-रावणयुद्ध, एवं रावण का वध । वैशाख कृष्ण १५--- युद्धसमाप्ति एवं रावण वा अंतिम संस्कार । वैशाख शुक्ल २--- विभीषण का राज्याभिषेक । वैशाख शुक्ल ३--- राम एवं सीता की भेंट । वैशाख शुक्ल ४--- राम का विमान में बैठ कर अयोध्या के लिए प्रस्थान । वैशाख शुक्ल ५--- राम के चौदह वर्षों के वनवास की समाप्ति, एवं उसी दिन प्रयाग में भारद्वाज-आश्रम में आगमन । वैशाख शुक्ल ६--- नंदिग्राम में राम एवं भरत की पुनर्भेट । वैशाख शुक्ल ७--- राम का राज्याभिषेक ।
राम (दाशरथि) n. वाल्मीकि रामायण अके ‘तिलक टीका’ में एवं कालिकापुराण में राम के वनवास का तिथिनिर्णय कुछ अलग ढँग से प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है:--- चैत्र शुक्ल १०-- वनवास का प्रथम दिन भाद्रपद शुक्ल १-युद्धारंभ: आश्विन शुक्ल १- राम-रावणयुद्ध; अश्विन शुक्ल ९-रावण वध; कार्तिक कृष्ण ६-राम का अयोध्या में आगमन । उत्तर भारत में रामलीला आदि भी इन्हीं तिथियों के अनुसार होते है । चांद्रमास के अनुसार, अधिक मास छोड कर काल गणना की जाएँ, तो यह कालगणना वाल्मीकि रामायण से भी विलकुल मिलती जुलती है
[वा. रा. यु. १११ तिलक टीका] ;
[कालिका ६२.२३-३९] ।
राम (दाशरथि) n. जब वनवास के बाद राम अयोध्या में आया, तब इसने ताम्रपट पर अपने पराक्रम का वर्णन, एवं राज्यशासन के कुछ नियम लिखवाये । इसने उन ताम्रपटों की स्थापना श्रीमातास्थान, बकुलार्क, एवं धर्मस्थान आदि त्यानों में की, एवं इस समारोह के उपलक्ष्य में पचास गाँव ब्राह्मणों को दान में दियें
[स्कंद. ३.२.२४] ।
राम (दाशरथि) n. कई रामायणो में राम कथा की प्रधान घटनाओं की तिथियाँ दी हैं, जिनगें निम्न रामायणग्रंथ प्रमुख है---१. अग्निवेश रामायण-श्लोक संख्या १०५; २. अब्दरामायण-
[कल्याण ‘रामायणांक’ पृ. ३०४] ३. लोमश रामायण-जो पद्मपुराण के पातालखंड में प्राप्त है
[पद्म. पा.३६] । इनके अतिरेक्त व्यासकृत ‘रामायणतात्पर्यदीपिका,’ श्रीनिवासराधवकृत ‘रामायण संग्रह’ एवं ‘रामावतारकालनिर्णय सूचिका’ आदि ग्रन्थों में भी रामचरित्र की तिथियों का वर्णन प्राप्त हैं ।
राम (दाशरथि) n. एक सत्यपराक्रमी अत्रिय, आज्ञाधारक पुत्र एवं स्वदारनिरत पति के रूप में राम का चरित्र वाल्मीकि रामायण में किया गया है । तिब्बती. खोतानी, सिंहली एवं मलय आदि विदेशी रामकथाओं में भी राम प्राय: एक पत्नीव्रती राजा के रूप में चित्रित किया गया है । यह वाल्मीकीय आदर्श का ही स्वाभाविक विकास प्रतीत होता है । सीता के प्रति राम का विशुद्ध एवं निरतिशय प्रेम का चित्रण वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है
[वा. रा. अर. ३.६०-६६, ७५] ;
[सुं. २७-२८, ३०] ; यु. ६६; उ. ५ । अत्रि ऋषि के आश्रम में सीता ने अत्रिपत्नी अनसूया से कहा था, ‘राम मुझसे इतना ही प्रेम करते है, जितना मैं उनसे करती हूँ । इसी कारण, मैं अपने आप को अत्यंत भाग्यवान् समझती हूँ ।
राम (दाशरथि) n. राम स्वयं एक अत्यंत सच्चरित्र एवं क्षत्रियधर्म का पालन करनेवाला आदर्श राजा होते हुए भी, इसके चरित्र के कुछ दोष वाल्मीकि रामायण एवं उत्तररामचरित में दिखाये गये है, जो निम्न प्रकार है ;--- १.स्त्री होते हुए भी इसने ताटका का वध किया; २.खर से युद्ध करते समय यह तीन पग पीछे हटा
[वा. रा. अर. ३०.२३] ; ३. वृक्ष के पीछे छिप कर इसने वालि का वध किया (उत्तरराम. ५); ४. लोकापवाद के भय से निर्दोष सीता का त्याग किया: ५. अहिरावण के पत्नी के महल में प्रवेश किया । इसमें से अंतिम आक्षेप अनैतिहासिक मान कर छोडा जा सकता है । ताटका का वध विश्वामित्र के संमाति से किये जाने के कारण, एवं खर के वध के समय शरसंधान के लिए पीछे हटने के कारण, इन दोनों प्रसंग में राम निर्दोष प्रतीत होता है । सीतात्याग के संबंध में व्यक्तिधर्म एवं राजधर्म का संघर्ष प्रतीत होता है । रही वात वालिवध की, जिस समय राम का आचरण असमर्थनीय प्रतीत होता है ।
राम (दाशरथि) n. राम को अपनी पत्नी सीता से कुश एवं लव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुयें थे, जिनका जन्म राम के द्वारा सीता का त्याग किये जाने पर वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में हुआ था । राम के पश्चात् कुश दक्षिण कोसल का राजा बन गया । लव को उत्तर कोसल देश का राज्य प्राप्त हुआ, जिसकी राजधानी श्रावस्ती नगरी में थी । राम के पश्वात् अयोध्या नगरी उजड गयी, जिस कारण कुश ने विंध्य पर्वत के दक्षिण तट पर कुशावती नामक नयी राजधानी की स्थापना की । राम के छोटे भाई लक्ष्मण कों अंगद एवं चंद्रकेतु नामक दो पुत्र थे । उन्हें राम ने क्रमश: हिमालय पर्वत के समीप स्थित कारुपथ एवं मल्ल देशों का राज्य प्रदान किया । उन प्रदेशों में ‘अंगदिया’ एवं ‘चंद्रचक्रा’ नामक राजधानियाँ बसा कर वे दोनों राज्य करने लगे
[वा. रा. उ, १०२] । राम के तृतीय बन्धु भरत को अपनी माता कैकेयी का केकय राज्य प्राप्त हुआ, जिसमें सिन्धु (आधुनिक उत्तर सिंध) प्रदेश भी शामिल था । भरत के तक्ष एवं पुष्कल नामक दो पुत्र थे, जिन्होने आगे चल कर गंधर्व लोगो से गांधार देश को जीत लिया, एवं वहाँ क्रमश: तक्षशिला एवं पुष्कलावती नामक राजधानियों की स्थापना की
[वा. रा. उ. १०१] । इनमें से तक्षशिला नगरी के खण्डहर आधुनिक रावलपिंडी के उत्तरीपश्चिम में २० मील पर स्थित भीर में प्राप्त हैं, एवं पुष्कलावती के खण्डहर आधुनिक पेशावर के उत्तरीपश्चिम में १७ मील पर कुभा एवं सुवास्तु नदियों के संगम पर स्थित चारसद्दा ग्राम में प्राप्त हैं । राम के चतुर्थ वन्धु शत्रुघ्न ने यमुना नदी के पश्चिम में सात्वत यादवों को पराजित कर, उनका राजा मधु राक्षस का पुत्र माधव लवण का वध किया, एवं मधुपुरी अथवा मधुरा (मथुरा) में अपनी राजधानी स्थापित की । शत्रुघ्न को सुबाहु एवं शत्रुघातिन् नामक दो पुत्र थे । शत्रुन्न के पश्चात उनमें से सुबाहु मधुरा नगरी में राज्य करने लगा, एवं शत्रुघातिन् को वैदिश नगरी का राज्य प्राप्त हुआ
[वा. रा. उ. १०७-१०८] । राम के परिवार के इन लोगों के राज्य काफी दिनों तक न रह सकें । गांधार देश में स्थित तक्ष एवं पुष्कल को उसी प्रदेश में रहनेवाले द्रुह्यु लोगों ने जीत लिया । शत्रुघ्नपुत्र, सुवाहु एवं शत्रुघातिन् को यादव राजा भीम सात्वत ने मधुराराज्य से पदभ्रष्ट किया, जहाँ, पुन: एक बार यादववंशीयों का राज्य शुरु हुआ । लक्ष्मणपुत्र अंगद एवं चंद्रकेतु के राज्य भी नष्ट हो गयें, एवं लव के उत्तर कोसल देश के राज्य की भी वही हालत हुई । आगे चल कर अयोध्या का सूर्यवंशीय राज्य भी नष्टप्राय हुआ, एवं उत्तरी भारत का सारा राज्य पौरव एवं यादव राजाओं के हाथ में चला गया ।
राम (दाशरथि) n. रामचरित्र का प्राचीनतम विस्तृत ग्रन्थ ‘वाल्मीकि रामायण’ हे, जो आदिकवि वाल्मीकि की रचना मानी जाती है । रे. बुल्के के अनुसार, इस ग्रंथ का रचनाकाल ई. पू. ३०० माना गया है । इस ग्रन्थ की कुल श्लोकसंख्या २४००० हैं, जो बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर, युद्ध एवं उत्तर आदि सात कांडों में विभाजित है ।
राम (दाशरथि) n. महाभारत के वनपर्व में ‘रामोपाख्यान’ नामक एक उपपर्व है, जिसमें उन्नीस अध्याय है । जयद्रथ के द्वारा द्रौपदी का हरण किये जाने पर युधिष्ठिर की मन:शांति के लिए मार्कंडेय ऋषि ने उसे प्राचीन राम-कथा सुनाई, जो ‘रामोपाख्यान’ में समाविष्ट की गयी है
[म. व. २५८-२७६] । इसके अतिरिक्त महाभारत वनपर्व में संक्षेप रामायण प्राप्त है, जो हनुमत ने भीमसेन को कथन किया था
[म. व. १४७. २३-३८] । महाभारत में प्राप्त ‘षोडश राजकीय उपाख्यान’ में भी राम दाशरथि का निर्देश प्राप्त है ।
राम (दाशरथि) n. निम्नलिखित पुराण-ग्रन्थों में रामकथा प्राप्त है:--- (१) ब्रह्मांडपुराण---राम, विष्णु का अवतार
[ब्रह्मांड. ३.७३] ; सीताजन्म
[ब्रह्मांड. ३.६४] । (२) विष्णुपुराण---संक्षिप्त रामकथा
[विष्णु, ४.४] सीताजन्म
[विष्णु. ४.५] । (३) दायुपुराण---संक्षिप्त रामकथा
[वायु. ८८. १८३-१९६] ; सीताजन्म
[वायु. ८९.२२] । (४) भागवतपुराण---रामकथा
[भा. ९.१०-११] । (५) कूर्मपुराण---राक्षसवंशवर्णन
[कूर्म. पूर्व. १९] ; सूर्यवंश के अंतर्गत रामकथा
[कूर्म. पूर्व. २१] ; पतिव्रतोपाख्यान में सीताचरित्र
[कूर्म. उत्तर. ३४] । (६) वराहपुराण---रामजन्म
[वराह. ४५] । (७) अग्निपुराण---रामकथा, जो वाल्मीकि रामायण के सात खण्डों का संक्षेप है
[अग्नि. ५-११] । (८) लिंगपुराण---संक्षिप्त राककथा
[लिंग. पूर्व. ६६.३५-३६] । (९) नारदपुराण---रामकथा
[नारद. १.७५] । (१०) ब्रह्मपुराण---रामचरित्र, जो संपूर्णत: हिरवंश से उदधृत किया गया है
[ब्रह्म. २१३] ; रावणचरित्र
[ब्रह्म. १७६] ; रामतीर्थ माहात्म्य
[ब्रह्म. ७०-१७५] । (११) गरुडपुराण---रामकथा
[गरुड. १४३] । (१२) स्कंदपुराण---रावणवध (स्कंद. माहेश्वर-): दशरथ का जन्म
[स्कंद २०-२५] ; वाल्मीकि की जन्मकथा
[स्कंद. वैष्णव. २०-२५] ; सेतुबंधन की कथा
[स्कंद. ब्राह्म. २-४७] ; कालनिर्णय रामायण
[स्कंद. धर्मारण्य. ३०-३१] । (१३) पद्मपुराण---राम का अश्वमेध यज्ञ
[पद्म. पा. १-६८] ; लोमश रामायण
[पद्म. पा. ३६] ; जांबुवत् रामायण
[पद्म. ११२] ; रामचरित्र
[पद्म. उ. २६९-२७१] । (१४) नृसिंहपुराण---जिसमें वाल्मीकि रामायण के प्रथम छ; काण्डों की कथा संक्षेप में दी गयी है
[नृसिंह ४७-५२] ।
राम (दाशरथि) n. भागवतादि पुराण ग्रंथों में राम एवं कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है । किन्तु फिर भी रामोपासना, कृष्णोपासना की अपेक्षा काफी उत्तरकालीन प्रतीत होती है । यद्यपि राम को विष्णु का अवतार मानने की कल्पना इसा की पहली शताब्दी में प्रस्थापित हो चुकी थी, फिर भी इस सांप्रदाय की प्रतिष्ठा ग्यारहवीं शताब्दी के बाद ही प्रत्थापित होती सी प्रतीत होती है
[डाँ. भांडारकर, वैष्णविजम पृ. ४७] । राम-पंचायतन की प्रतिमा. जिसमें राम, लक्ष्मण, भरत. सीता एवं हनुमत् समाविष्ट किये जाते हैं, वह भी इसी काल में उत्पन्न प्रतीत होती है ।
राम (दाशरथि) n. निम्नलिखित तीन उपनिषद ग्रंथ रामभक्ति सांप्रदाय से प्रभावित माने जाते हैं---१. रामपूर्वतापनीय; २. रामोत्तरतापनीय; ३. रामरहस्य । इन तीनो ग्रंथों में रामयंत्र, राममंत्र एवं सीतामंत्र का निर्देश प्राप्त है, एवं इन ग्रंथों में राम एव सीता को क्रमश: परमपुरुष एवं मूल प्रकृति माना गया है । निम्नलिखित वैष्णवोपदनिषदों में भी रामकथा का निर्देश पाप्त है---१.कलिसंतरण; २. गोपालोत्तर-तापनीय; ३. तारसार; ४. त्रिपाद-विभूति-महानारायण; ५. भुक्तिकर । इनके अतिरिक्त शाक्त्तोपनिषदों में भी ‘सीतोपनिषद’ का निर्देश प्राप्त है ।
राम (दाशरथि) n. रामभक्ति के विकास के साथ साथ रामकथा को भक्त्ति सांप्रद्राय के ढाँचें में विठाने की आवश्यकता निर्माण हुई, जिसके फलस्वरूप अनेकानेक सांप्रदायिक रामायणों का निर्माण हुआ । इन सांप्रदायिक रामायणों में अध्यात्म, आनंद एवं अद्भुत ये तीन रामायण ग्रंथ प्रमुख माने जाते हैं । आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखित रामायण ग्रंथों में तुलसी द्वारा विरचित ‘रामचरितमानस’ एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें रामचरित्र की सर्वांगीण झाँकि आदर्शात्मक रूप में प्रस्तुत की गयी है ।
राम (दाशरथि) n. इन ग्रंथों में निम्नलिखित ग्रंथ प्रमुख माने जाते हैं--- (१) अध्यात्मरामायण---ग्रंथकर्ता-अनिश्चित, किन्तु कई अभ्यासकों के अनुसार रामानंद इस ग्रंथ के रचयिता थे; रचनाकाल-इ. स. १४ वीं अथवा १५ वीं शताब्दी; श्लोकसंख्या-४३९९. जो ७ काण्डों में, एवं ६५ सगों में विभाजित है; महत्त्व-यह ग्रंथ सांप्रदायिक रामायणों में सबसे अधिक महत्त पूर्ण माना जाता है । इस ग्रंथ में रामानुज के द्वारा प्रतिपादित समुच्चयवाद का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया गया है, विशिष्टाद्वैत का कहीं भी समर्थन नहीं हुआ । आनंद रामायण, तुलसीदासजीकृत रामचरितमानस एवं एकनाथ के मराठी भावार्थ-रामायण पर इसका काफी प्रभाव है । रामभक्ति के विकास में इस ग्रंथ का महत्त्व अधिक माना जाता है । इस ग्रंथ में राम एवं सीता को क्रमश; परम पुरुष एवं माया माना गया है, एवं इसी रुपक के द्वारा शंकराचार्यप्रणीत अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया गया है । सरल प्रतिपादन, भक्तिप्राधान्य, अद्वैत तत्त्वज्ञान का प्राधान्य, एवं अल्पविस्तार, इन गुणों के कारण यह ग्रंथ भारतीय रामभक्त्तों में विशेष आदरणीय माना जाता है । (२) आनंदरामायण-रचनाकाल---१५ वीं शताब्दी, अर्थात् अध्यात्म रामायण के पश्चात्, एवं एकनाथ के पूर्व; श्लोकसंख्या-१२२५२, जो निम्नलिखित ९ काण्डों में विभाजित है---सार, यात्रा, याग, विलास, जन्म, विवाह, राज्य, मनोहर एवं पूर्ण । इस ग्रंथ में अध्यात्म रामायण के कई उद्धरण प्राप्त हैं । (३) अद्भुतरामायण-रचनाकाल---ई. स. १३००-१४००; श्लोकसंख्या-१३५३, जो २७ सगों में विभाजित है; महत्त्व-इस ग्रंथ की रचना ‘वाल्मीकिभारद्वाजसंवाद’केरूप में प्राप्त है, एवं उसके अधिकांश सर्ग में (११-१५) राम एवं हनुमत् का भक्ति के विषय में एक संवाद प्राप्त है । (४) महारामायण (=योगवासिष्ठ=वसिष्ठ रामायण) ग्रंथकर्ता-वसिष्ठ; रचनाकाल-ई. स. ८ वीं शताब्दी (विंटरनित्स), अथवा ११ वीं शताब्दी (डाँ. रघवन्); श्लोकसंख्या- ३२ हजार; महत्त्व-यह ग्रंथ वसिष्ठ एवं राम के संवाद के रूप में लिखा गया है, जिसमें अध्यात्म का विस्तृत एवं प्रासादिक विवेचन प्राप्त है । (५) तत्त्वसंग्रहरामायण-ग्रंथकर्ता---राम ब्रह्मानंद; रचनाकाल-इ. स. १७ वी शताब्दी; महत्व-इस ग्रंथ में रामकथा के तत्त्व (अर्थात राम के परब्रह्मत्व) पर प्रकाश डाला गया है । (६) पुरातनरामायण (जांबवत् रामायण)--जो पद्मपुराण पातालखंड में प्राप्त है । यह प्राय: में है, एवं जांबवत् के द्वारा राम के कथन किया गया है । (७) संक्षेपरामायण---जो महाभारत वन पर्व में प्राप्त है
[म. व. १४७.२३-३८] , एवं हनुमत के द्वारा भीम को कहा गया है । (८) मंत्ररामायण---जिसमें रामायण के वेदमूलत्व का प्रतिपादन किया गया है । इस ग्रंथ में, ग्रंथकर्ता नीलकंठ ने वैदिक मंत्रों का एक संग्रह प्रस्तुत किया है, जिसका परोक्षार्थ रामकथा से संबंध रखता है । (९) भुशुंडीरामायण (= मूलरामायण = आदि-रामायण)-जो पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर नामक पर्वों में विभाजित है । (१०) वेदान्तरामायण---जिसमें वाल्मीकि के द्वारा परशुराम का जीवन चरित्र राम को सुनाया गया । इनके अतिरिक्त निम्नलिखित रामायण-ग्रंथों का निर्देश श्रीरामदास गौड के ‘हिन्दुत्व’ में प्राप्त है, जिनमें से अधिकांश ग्रंथ १७ वीं शताब्दी अथवा उसके बाद की रचनाएँ प्रतीत होती हैं---महारामायण, संवृत्तरामायण, लोमशरामायण, अगस्त्यरामायण, मंजुलरामायण, सौपद्यरामायण, सौहार्दरामायण, सौर्यरामायण, चांद्ररामायण, मैंदरामायण, सुब्रह्मरामायण, सुवर्चसरामायण, देवरामायण, श्रवणरामायण, एवं दुरंतरामायण ।
राम (दाशरथि) n. ई. पू. चौथी शताब्दी से ई. स. सोलहवी शताब्दी तक के बौद्ध एवं जैन साहित्य में, रामकथाविषयक अनेकानेक ग्रंथ प्राप्त हैं, जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ प्रमुख है---दशरथजातक की गाथाएँ (ई. पू. ४ थी शताब्दी); अनामकजातक (ई. १ ली शताब्दी); पउमचरियम्, दशरथकथानकम् (ई. ४ थी शताब्दी); पद्मचरित (ई. ७ वीं शताब्दी); पउमचरिउ (ई. ८ वीं शताब्दी); रामलक्खणचरियम् (ई. ९ वीं शताब्दी); अंजनापवनांजय (ई. १३ वीं शताब्दी); रामदेवपुराण; बलभद्रपुराण (ई. १५ वीं शताब्दी); सौमसेन विराचित रामचरित (ई. १६ वीं शताब्दी) ।
राम (दाशरथि) n. आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा पर आधारित अनेकानेक ग्रन्थों की निर्मिति ११ वी शताब्दी के उत्तरकाल में हो चुकी है, जिनकी संक्षिप्त जानकारी निम्नप्रकार है:--- (१) असमीया---शंकरदेव द्वारा विरचित माधवकंदलीरामायण (१४ वीं शताब्दी); गीतिरामायण, रामविजय, श्रीरामकीर्तन (१६ वीं शताब्दी), गणकचरित, कथा रामायण (१७ वीं शताब्दी० । (२) उडीया---‘उत्कलवाल्मीकि’ बलरामदासकृत जगमोहनरामायण, रामविभा (१६ वीं शताब्दी); रघुनाथविलास, अध्यात्मरामायण (१७ वीं शताब्दी) । (३) उर्दू :-- मुन्शी जगन्नाथ कृत रामायण खुश्तर (१९ वीं शताब्दी) । (४) कन्नड---पंपरामायण (११ वीं शताब्दी); नरहरिकृत तोरवेरामायण, एवं मैरावण कालग (१६ वीं शताब्दी) । (५) काश्मीरी---काश्मीरी रामायण, अर्थात् रामावतारचरित । (६) गुजराती---रामलीला ना पदों (१४ वीं शताब्दी); रामविवाह, रामबालचरित, सीताहरण (१५ वीं शताब्दी); रावणमंदोदरीसंवाद. सीताहनुमानसंवाद. लवकुशाख्यान (१६ वी शताब्दी); रणयज्ञ, सीताविरह (१७ वीं शताब्दी) । (७) गुरुमुखी पंजाबी---गुरुगोविंदसिंह कृत रामावतार अर्थात् गोविंद रामायण (१७ वीं शताब्दी) । (८) तमिल---कंबरामायण (१२ वीं शताब्दी) । (९) तेलुगु---रंगनाथकृत द्विपदरामायण, (१३ वीं शताब्दी); भास्कररामायण (१४ वीं शताब्दी); मोल्लरामायण (१६ वीं शताब्दी); कट्टवरदकृत द्विप रामायण । (१०) बंगाली---कृत्तिवासरामायण (१५ वीं शताब्दी); अद्भुताश्चर्य रमायण, रामायणगाता; अद्भुतरामायण, अध्यात्मरामायण (१७ वीं शताब्दी) । (११) मराठी---भावार्थ रामायण (१६ वीं शताब्दी); श्रीधर द्वारा विरचित रामविजय (१८ वीं शताब्दी) । (१२) मलयालम---रामचरितम् (१४ वीं शताब्दी); कण्णश्शरामायण (१५ वीं शताब्दी); अध्यात्मरामायण (१६ वीं शताब्दी) । (१३) सिंहली---रामकथा (१५ वीं शताब्दी) । (१४) हिन्दी--- भरतमिलाप, रामचरितमानस (१६ वीं शताब्दी); रामचंद्रिका, अवधविलास, गोविंदरामायण (१७ वीं शताब्दी) । इनके अतिरिक्त तिब्वती, खोतानी, मलायी, श्यामी, कांबोदिया, एवं जाबा की भाषाओं में भी, राम कथा-विषयक साहित्य प्राप्त है, जिसकी रचना नौवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक को चुकी है ।
राम (मार्गवेय), राम (श्यापर्णेय) n. एक आचार्य, जो श्यापर्णो के पुरोहित परिवार में का एक था
[ऐ. ब्रा. ७.२७.३] । यह मृगवु का पुत्र था, जिस कारण इसे मार्गवेय पैतृक नाम प्राप्त हुआ था । इसका मत था कि, क्षत्रियों के द्वारा किये गये यज्ञ में, सोम के स्थानपर औदुंबर के फूलों का उपयोग करना चाहिए, जो मत इसने विश्वंतर राजा को कथन किया था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र लोगों के लिये अलग अलग वस्तुओं का सोमरस इसके द्वारा बताया गया है, जिसके अनुसार इन चार जातियों को क्रमश: सोंमवल्ली, औदुंबर (पीपल एवं प्लक्ष), दधि, एवं जल का सोम के लिये उपयोग करने को कहा गया है । यह विश्वंतर राजाओं का पुरोहित था । विश्यापर्ण नामक पुरोहितों ने विश्वंतर राजाओं के पुरोहित बनने की कोशिश की । किन्तु इसने विश्यापर्णो कों दूर हटा कर, अपना पौरोहित्य पुन: प्राप्त किया ।
राम (वैयाघ्रपद्य) n. एक आचार्य, जो शंग शात्यायनि आत्रेय नामक आचार्य का शिष्य, एवं शंख बाभ्रव्य नामक आचार्य का गुरु था
[जै. उ. ब्रा. ३.४०.१, ४.१६.१] । ‘कतृजात’ एवं व्याघ्रपद’ नामक आचायों का वंशज होने के कारण, इसे ‘क्रातुजातेय’ एवं ‘वैयाध्रषद्य’ पैतृक नाम प्राप्त हुए होगे ।
राम II. n. (सो. पुरूरवम्.) एक राजा, जो वायु के अनुसार सेनजित् राजा का पुत्र था । अन्य पुराणों मे इसका निर्देश अप्राप्य है ।
राम III. n. सावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि ।
राम IV. n. श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम का नामान्तर ।
राम V. n. परशुराम जामदग्न्य का नामान्तर ।