रक्षस् n. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का पुत्र था । इसका जन्म प्रात:काल के समय हुआ था । इसकी पत्नी का नाम ब्रह्मधना था, जिससे इसे नौ पुत्र एवं चार कन्याएँ उत्पन्न हुयीं थी (ब्रह्मधना देखिये) । इसका सविस्तृत स्वरूपवर्णन ब्रह्मांड में निम्न प्रकार प्राप्त है:
रक्षस् II. n. एक मानव जातिविशेष, जो वैदिक साहित्य में प्राय:सर्वत्र मनुष्यजाति के शत्रुओं, पार्थिव दैत्यो, एवं राक्षसों के लिए प्रयुक्त किया गया है । वैदिक साहित्य में असुरों, राक्षसों एवं पिशाचों को कमश: देवों, मनुष्यों एवं पितरों का विरोधी कहा गया है
[तै. सं. २.४.१] । इस कारण, जहाँ वृत्र, पिप्र, शंवर आदि इंद्र के शत्रुओं को असुर कहा गया है, वहाँ मनुष्यजाति के यज्ञों का विनाश करनेबाले यातु एवं यातुधान राक्षसों को रक्षस् कहा गया है । वैदिक साहित्य में दैत्य, दानव एवं असुर शब्द समानार्थी रूप में प्रयुक्त किये गये है । पाणिनि के अष्टाध्यायी में असुर, रक्षस् एवं पिशाच तीन स्वतंत्र मानव जातियाँ मानी गयी है, जिनके ‘आयुधजीवीसांघो’ का निर्देश वहाँ स्वतंत्र रूप से किया गया है । पौराणिक साहित्य एवं महाभारत, रामायण में राक्षस, असुर, दैत्य दानव ये सारे शब्द समानार्थी मान कर प्रयुक्त किये गये है; जिससे प्रतीत होता है कि, उस समय मनुष्य एवं देवों के शत्रुओं के लिए ये सारे नाम उलझे हुए रूप में प्रयुक्त हो जाने लगे थे । उपनिषदों में भी मानवी देह को आत्मा माननेबाले दुष्टात्माओं को असुर अथवा रक्षस कहा गया है । ऋग्वेद में पचास से अधिक बार रक्षसों का निर्देश प्राप्त है, जहाँ प्राय: सर्वत्र किसी देवता को इनका विनाश करने के लिए आवाहन किया गया है, अथवा रक्षसों के संहारक के रूप में देवताओं की स्तुति की गयी है । रक्षसों का वर्णन करनेबाले ऋग्वेद के दो सूक्तो में, इन्हें यातु (ऐन्द्रजालिक) नामान्तर प्रदान किया गया है ।
[ऋ. ७.१०४.१०,८७] । यजुर्वेद में ‘यत:’ शब्द का प्रयोग एक दुष्ट जाति के रूप में किया गया है, एवं इन्हें रक्षसों की उपजाति कहा गया है ।
रक्षस् II. n. अथर्ववेद में रक्षसों का अत्यंत विस्तृत स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ उन्हे प्राय: मानवीय रूप होकर भी, उनमें कोई दानवी विरूपता होने का वर्णन प्राप्त है । इन्हें तीन सर, दो मुख, रीछो जैसी ग्रीवा, चार नेत्र, पाँच पैर रहते थे, इनके पैर पीछे की ओर मुडे हुये एवं उँगलीविहीन रहते थे । इनके हाथों पर सिंग रहते थे
[अ. वे. ८.६] । इनका वर्ण नीला, पीला अथवा हरा रहता था
[अ. वे. १९.२२] । इन्हें मनुष्यों जैसी पत्नि, पुत्र आदि पारिवार भी रहता था
[अ. वे. ५.२२] ।
रक्षस् II. n. ये लोग कुत्ता, ग्रध्र, उलूक, बंदर आदि पशुपक्षियो के वेशान्तर में (ऐंद्रजालिक विद्या में) अत्यंत प्रवीण थे
[अ. वे.७.१०४] । भाई, पति अथवा प्रेमी का वेश ले कर ये लोग स्त्रियों के पास जाते थे, एवं उनकी संतानों को नष्ट कर देते थे
[अ. वे. १०.१६२] ।
रक्षस् II. n. ये लोग मनुष्यों एवं अश्वों का माँस भक्षण करते थे एवं गायों का दूध पिते थे
[ऋ. १०.८७] । माँस एवं रक्त की अपनी क्षुधा तृप्त करने के लिए, ये लोग प्राय: मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उन पर आक्रमण करते थे । मनुष्यों के शरीर में इनका प्रवेश (आ विश) रोंकने के लिए ऋग्वेद में अग्नि का आवाहन किया गया है ।
रक्षस् II. n. ये लोग प्राय: भोजन के समय मुख से मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करते थे, एवं तत्पश्वात् उनके माँस को विदीर्ण कर उन्हे व्याधी-ग्रस्त कर देते थे ।
[अ. वे. ५.२९] । ये मनुष्यों की वाचाशक्ति नष्ट कर देते थे, एवं उनमें अनेक विकृतियाँ निर्माण कर देते थे ।
रक्षस् II. n. संध्यासमय अथवा रात्रि के समय ये लोग विचरण करते थे । उस समय, ये लोग नर्तन करते हुए, गद्धों की भाँति चिल्लाते हुए, अथवा खोपडी की अस्थि से जलपान करते हुए नजर आते थे
[अ. वे.८.६] । इनके विचरण का समय अमावास्या की रात्रि में रहता था । पूर्व दिशा में प्रकाशित होनेबाले सूर्य से ये डरते थे
[अ. वे. १.१६,२.६] । ये लोग दिव्य यज्ञों में विघ्न उत्पन्न कर देते थे, एवं हवि को इधर उधर फेंक देते थे
[ऋ., ७.१०४] । ये पूर्वजों की आत्माओं का रूप धारण कर पितृयज्ञ में भी बाधा उत्पन्न करते थे
[अ. वे. १८.२] ।
रक्षस् II. n. अंध:कार को भगानेबाला एवं यज्ञ का अधिपति अग्नि रक्षसों का सर्वश्रेष्ठ संहारक माना गया है । वह इन्हें भस्म करने का, भगाने का एवं नष्ट करने का काम करता है
[ऋ.० १०.८७] । इसी कारण अग्नि को ‘रक्षोहन्’ (रक्षसों का नाश करनेबाला) कहा गया है । ये केवल अपनी इच्छा से नही, किन्तु अभिचारियों के द्वारा बहकाने से मनुष्यजाति को दुःख पहुँचाते है । इसी कारण रक्षसों को बहकानेबाले अभिचारियों को ऋग्वेद मे ‘रक्षोयुज्’ (रक्षसों को कार्यप्रवण करनेवाला) कहा गया है
[ऋ. ६.६२] । अथर्ववेद में अन्यत्र रक्षसों की प्रार्थना की गयी है कि, वे उन्हीं को भक्षण करे जिन्हों ने इन्हे भेजा है
[अ. वे. २.२४] ।
रक्षस् II. n. भाषाशास्त्रीय़ द्दष्टि से रक्षस् शब्द ‘रक्षु’ (क्षति पहूँचाना) धातु से उत्पन्न माना जाता है । किन्तु कई अभ्यासकों के अनुसार, यहाँ रक्ष धातु का अर्थ रक्षित करना लेना चाहिये, एवं ‘रक्षम्’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वह, जिससे रक्षा करना चाहिये’ माननी चाहिये । वर्गेन के अनुसार, ये लोग किसी दिव्य संपत्ति के ‘रक्षक’ (लोभी) थे, जिस कारण इन्हें रक्षस् नाम प्राप्त हुआ था ।
रक्षस् II. n. दैनिक जीवन में मनुष्यजाति पर उपकार करनेबाले आधिभौतिक शक्ति को प्राचीन साहित्य में देव नाम दिया गया । उसी तरह मनुष्यजाति को धिरा कर उन्हें क्षति पहूँचानेबाले दुष्टात्माओं की कल्पना विकसित हो गयी, जिसका ही विभन्न रूप असुर, रक्षम्, पिशाच आदि में प्रतीत होता है । इस तरह इन सारी जातियों को मनुष्यों को त्रस्त करनेबाले दुष्टात्माओं का वैयक्तीकृत रूप कहा जा सकता है । इस कल्पना का प्रारंभिक रूप इंद्र एवं वृत्रासुर के युद्ध में प्रतीत होता है । बाद में वही कल्पना कमश: देवों एवं असुरों के दो परस्परविरोधी एवं संघर्षरत दलों के रूप में विकसित हुयी ।
रक्षस् II. n. वैदिक साहित्य में रक्षस एवं पिशाचों की अपेक्षा, असुरों का वैयक्तीकरण अधिक प्रभावशाली रूप में आविष्कृत किया गया है, जहाँ देवों से विरोध करने बाले निम्नलिखित असुरों का निर्देश स्पष्ट रूप से प्राप्त है:--- अनर्शनि
[ऋ. ८.३२] ; अर्बुद
[ऋ.,१०.६७] ; इलीबिश
[ऋ.१.१.३३] ; उरण
[ऋ. २.१४] चुमुरि
[ऋ. ६.२६] ; त्वष्ट्ट
[ऋ. १०.७६] ; दभीक
[ऋ.२.१४] ; धुनि (२.१५); नमुचि
[ऋ. २.१४.५] ; पिप्रु
[ऋ. १०.१३८] ; रुधिक्रा
[ऋ. २.१४.५] ; बल
[ऋ. १०.६७] ; वर्चिन्
[ऋ. ७.९९] ; विश्वरूप
[ऋ. १०.८] ; वृत्र
[ऋ. ८.७८] ; शुष्ण
[ऋ. ४.१६] ; श्रुबिंद
[ऋ. ८.३२] ; स्वर्भानु
[ऋ. ५.४०] ; । मैत्रायणि संहिता में कुसितायी नामक एक राक्षसी का निर्देश प्राप्त है, जिसे कुसित की पत्नी कहा गया है
[मै. सं. ३.२.६] ।
रक्षस् II. n. स्वयं देवता हो कर भी, जिनमें मायावी अथवा गुह्यशक्ति हो, ऐसे देवों को भी ऋग्वेद में ‘असुर’ कहा गया है । इससे प्रतीत होता है कि, असुरों की दुष्टता की कल्पना उत्तर ऋग्वेदकालीन है । ऋग्वेदरचना के प्रारंभिक काल में गुह्य शक्ति धारण करनेबाले सभी देवों को ‘असुर’ उपाधि प्रदान की जाती थी । जेंद अवेस्ता में भी असुरों का निर्देश, ‘अहुर’ नाम से किया गया है । ऋग्वेद एवं अवेस्ता में असुर (अहुर) शब्द, कई जगह ऐसी सर्बोच्च देवताओं के लिए प्रयुक्त किया गया है, जो परमप्रतापी माने गये हैं । झरतुष्ट धर्म का आद्य संस्थापक अहुर मझद स्वयं एक असुर ही था ।
रक्षस् II. n. कई अभ्यासकों के अनुसार, वैदिक आर्य प्राचीन पंजाब देश में आये, उस समय उनमें ‘सुर’ एवं ‘असुर’ दोनों देवों की पूजा पद्धति शुरु थी । कालोपरान्त वैदिक आयों की दो शाखाएँ उत्पन्न हुयी, जिनमें से असुर देवों की उपासना करनेबाले वैदिक आर्य मध्य एशिया में स्थित इरान में चले गये । दूसरी शाखा भारत में रह गयी, जिसमें सुर देवों की पूजा जारी रही । इसी कारण उत्तरकालीन भारतीय वैदिक साहित्य में ‘असुर’ देव निंद्य एवं गर्हणीय माने जाने लगे, एवं उन्हें देवताविरोधी मान कर उनका चरित्रचित्रण उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में किया गया । भारतीय वैदिक आयों में सुर देवों की पूजा प्रस्थापित होने के पूर्वकाल में प्राय:सभी वैदिक देवताओं को ‘असुर’ कहा गया है, जिनके नाम निम्नलिखित है---अग्नि
[ऋ. ३.३.४] ; इन्द्र
[ऋ. १.१७४.१] ; त्वष्ट्ट
[ऋ. १.११०.३] ; पर्जन्य
[ऋ. ५.८३.६] ; पूपन्
[ऋ. ५.५१.११] ; मरुत्
[ऋ. १.६४.२] ।
रक्षस् II. n. छांदोग्य उपनिषद में विरोचन दैत्य की कथा प्राप्त है, जिसमें देव एवं असुरों के जीवन एवं आत्मज्ञानविषयक तत्त्वज्ञान का विभेद अत्यंत सुंदर ढंग से दिया गया है । उस कथा के अनुसार, प्रजापति के मिथ्याकथन को सही मान कर, विरोचन दैव्य आँखों में, आइने में, एवं पानी में दिखनेबाले स्वयं के परछाई को ही आत्मा समझ बैठा । इस तरह छांदोग्य उपनिषद के अनुसार, मानवी देह का अथवा उसकी परछाई को आत्मा समझनेबाले तामस लोग असुर कहलाते हैं । आगे चल कर, इन्ही असुर लोगों की परंपरा देहबुद्धि को आत्मा मानने की भूल करनेबाले चार्वाक आदि तत्वज्ञों ने चलायीं
[छां. उ. ८.७] ; विरोचन देखिये ।
रक्षस् II. n. पाणिने के अष्टाध्यायी में रक्षस्, असुर आदि लोगों का अलग निर्देश प्राप्त है । वहाँ निम्नलिखित असुरों का निर्देश देवों के शत्रु के नाते से किया गया है---दिति, जो दैत्यों की माता थी
[पा. सू. ४.१.८५] ; कद्रू. जो सपों की माता थी
[पा. सू. ४.१.७१.] । इनके अतिरिक्त निम्नलिखित असुर जातियों का भी निर्देश अष्टाध्यायी में प्राप्त है---असुर
[पा. सू. ४.४.१२३] ; रक्षस्
[पा. सू. ४.४.१२१] ; यातु
[पा. सू. ४.४.१२१] । इसी ग्रंथ में ‘आसुरी माया’ का निर्देश भी प्राप्त है, जिसका प्रयोग असुर विद्या के लिए होता था
[पा. सू. ४.४.१२३] । अष्टाध्यायी में असुर, पिशाच एवं रक्षम् इन तीनों जातियों का निर्देश ‘आयुधजीवी’ संघों में किया गया है, जिनकी जानकारी निम्नप्रकार है :---
(१) असुर---पर्शुसंघ की भाँति असुर लोग भी मध्य एशिया में रहते थे, जिनका निवासस्थान आधुनिक असिरिय में था । ये लोग वैदिक आयों के पूर्वकाल में भारतवर्ष में आये थे, एवं सिंधु-घाटी में स्थित सिंधु सभ्यता के जनक संभवत: यही थे । बहिस्तून के शिलालेख में इनका निर्देश ‘अथुरा’ एवं ‘अश्शुर’ नाम से किया गया है । अष्टाध्यायी में पर्शु आदि आयुधजीवी गण में इन्हें समाविष्ट किया गया हैं
[पा. सू. ५.३.११७] ; पर्श्वादिगण । भांडारकरजी के अनुसार, शतपथ ब्राह्मण में असुरों के मगध (दक्षिण बिहार) में स्थित उपनिवेशों का निर्देश प्राप्त है ।
(२) रक्षस्---उत्तरी बलुचिस्थान के चगाई प्रदेश में रहनेबाले आधुनिक रक्षानी लोग संभवत: यही होंगे । इन्हे राक्षस भी कहते थे ।
(३) पिशाच---प्राचीन वाङमय में कच्चा माँस खानेबाले लोगों को ‘पिशाच’ सामुहिक नाम प्रदान किया गया है । ग्रीअरसन के अनुसार, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में दरदित्थान एवं चितराल प्रदेश के लोगों में कच्चा माँस खाने का रिवाज था, जिस कारण, इस प्रदेश के लोग ही प्राचीन पिशाच लोग होने की संभावना है । बनेंल के अनुसार, आधुनिक लमगान प्रदेश में रहनेबाले पशाई काफि लोग ही प्राचीन पिशाच लोग थे (पिशाच देखिये) ।
रक्षस् II. n. पुराणों में असुर, दानव, दैत्य एवं राक्षस जातियों का स्वतंत्र निर्देश प्राप्त है
[मत्स्य. २५.८, १७, ३०, ३७, २६.१७] । किन्तु इन ग्रंथों में इन सारी जातियों का स्वतंत्र अस्तित्व नष्ट हो कर, अनार्य एवं दुष्ट लोगो के लिए ये सारे नाम उपाधि की तरह प्रयुक्त किये गये प्रतीत होते हैं । महाभारत एवं पुरणों में निर्दिष्ट रक्षस् (राक्षस), असुर, दैत्य एवं दानव निम्न हैं:--- १. वृषपर्वन्. जो दैत्य एवं दानवों का राजा था, एवं जिस की कन्या शर्मिष्ठा का विवाह पूरुवंशीय ययाति राजा से हुआ था; २. शाल्वलोग. जिन्हे दानव एवं दैत्य कहा गया है, एवं जिनका राज्य अबु पहाडी के प्रदेश में था: ३. हिडिंब, जो राक्षसों का राजा था, एवं जिसकी बहन हिडिंबा का विवाह भीमसेन पाण्डव के साथ हुआ था: ४. घटोत्कच, जो राक्षसों का राजा था; ५. भगदत्त, जो प्राग्जोतिषपुर के म्लेंच्छ लोगों का राजा था, एवं जिसके राज्य पर पूर्वकाल में सदियों तक दानव, दैत्य एवं दस्तुओं का राज्य था: ६. हिरण्यकशिपु. हिरण्याक्ष अह्नाद एवं बलि, जो सर्वश्रेष्ट असुरसम्राट माने जाते थे; ७. रावण, जो लंका में स्थित राक्षसों के राज्य का अधिपति था: ८. बाण. जो दैत्यों का राजा था. एवं जिसकी कन्या उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से हुआ था । पुराणों में प्राप्त पुलस्त्य, पुलह एवं अगस्त्य ऋषि की संतान राक्षस कही गयी हैं
[वायु. ७०.५१-६५] । ययाति राजा के सुविख्यात आख्यान में, उसके द्वारा अपने पुत्र यदु को ‘यातुधान’ नामक राक्षस संतति निर्माण करने का शाप देने की कथा प्राप्त है (यदु देखिये) ।
रक्षस् II. n. आगे चल कर, राक्षस एवं दैत्य एक वांशिक उपाधि न रह कर, किसी भी दुष्ट, धर्मविहीन एवं खलप्रवृत्त राजा को ये उपाधियाँ लगायी जाने लगी. जिसके उदाहरण निम्नप्रकार है :---१. यादवराजा मधु, जो वास्तव में पूरूवंशीय ययाति एवं यदु राजाओं का वंशज था: २. कंस, जो वास्तव में मथुरा देश का यादव राजा था; ३. लवण माधव, जो मधु राजा का ही वंशज था: ४. जरासंध, जो वास्तव में मगध देश का भरतवंशीय राजा था । इसी तरह बौद्ध तथा जैन लोगों को. एवं दक्षिण भारत के द्रविड लोगों को पुराणों मे असुर एवं दैत्य कहा गया है
[ब्रह्म. १६०.१३] ;
[विष्णु. ३.१७.८-९] ।