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चतुस्सप्ततिमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - चतुस्सप्ततिमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


सम्प्राप्तो मथुरां दिनार्धविगमे तत्रान्तरस्मिन् वसन्नारामे

विहिताशनः सखिजनैर्यातः पुरीमीक्षितुम् ।

प्रापो राजपथं चिरश्रुतिधृतव्यालोककौतूहल -

स्त्रीपुंसोद्यदगण्यपुण्यनिगडैराकृष्यमाणो नु किम् ॥१॥

त्वत्पादद्युतिवत्सरागसुभगास्त्वन्मूर्तिवद्योषितः

सम्प्राप्ता विलसत्पयोधररुचो लोला भवद्दृष्टिवत् ।

हारिण्यस्त्वदुरःस्थलीवदयि ते मन्दस्मितप्रौढिव -

न्नैर्मल्योल्लसिताः कचौघरुचिवद्राजत्कलापाश्रिताः ॥२॥

तासामाकलयन्नपाङ्गवलनैर्मोदं प्रहर्षाद्भुत -

व्यालोलेषु जनेषु तत्र रजकं कंचित् पटीं प्रार्थयन् ।

कस्ते दास्यति राजकीयवसनं याहीति तेनोदितः

सद्यस्तस्य करेण शीर्षमहृथाः सोऽप्याप पुण्यां गतिम् ॥३॥

भूयो वायकमेकमायतमतिं तोषेण वेषोचितं

दाश्र्वांसं स्वपदं निनेथ सुकृतं को वेद जीवात्मनाम् ।

मालाभिः स्तबकैः स्तवैरपि पुनर्मालाकृता मानितो

भक्तिं तेन वृतां दिदेशिथ परां लक्ष्मीं च लक्ष्मीपते ॥४॥

कुब्जामब्जविलोचनां पथि पुनर्दुष्ट्वाङ्गरागे तया

दत्ते साधु किलाङ्गरागमददास्तस्या महान्तं हृदि ।

चित्तस्थामृजुतामथ प्रथायितुं गात्रेऽपि तस्याः स्फुटं

गृह्णन् मञ्जुकरेण तामुदनयस्त्वावज्जगत्सुन्दरीम् ॥५॥

तावन्निश्र्चितवैभवास्तव विभो नात्यन्तपापा जना

यत्किंचिद् ददते स्म शक्त्यनुगुणं ताम्बूलमाल्यादिकम् ।

गृह्णानः कुसुमानि किंचन तदा मार्गे निबद्धाञ्जलि -

र्नातिष्ठं बत हा यतोऽद्य विपुलामर्तिं व्रजामि प्रभो ॥६॥

एष्यामीति विमुक्तयापि भगवन्नालेपदात्र्या तया

दूरात् कातरया निरीक्षितगतिस्त्वं प्राविशो गोपुरम् ।

आघोषानुमितत्वदागमहाहर्षोल्ललद्देवकी -

वक्षोजप्रगलत्पयोरसमिषात् त्वत्कीर्तिरन्तगर्ता ॥७॥

आविष्टो नगरीं महोत्सववतीं कोदण्डशालां व्रजन्

माधुर्येण नु तेजसा नु पुरुषैर्दूरेण दत्तान्तरः ।

स्त्रग्भिर्भूषितमर्चितं वरधनुर्मा मेति वादात् पुरः

प्रागृह्णाः समरोपयः किल समाक्राक्षीरभाङ्क्षीरपि ॥८॥

कंसस्यापि च वेपथुस्तदुदितः कोदण्डखण्डद्वयी -

चण्डाभ्याहतरक्षिपूरुषरवैरुत्कूलितोऽभूत् त्वया ॥९॥

शिष्टैर्दुष्टजनैश्र्च दृष्टमहिमा प्रीत्या च भीत्या ततः

सम्पश्यन् पुरसम्पदं प्रविचरन् सायं गतो वाटिकाम् ।

श्रीदाम्ना सह राधिकाविरहजं खेदं वदन् प्रस्वप -

त्र्नानन्दन्नवतारकार्यघटनाद् वातेश संरक्ष माम् ॥१०॥

॥ इति भगवतो मथुरापुरीप्रवेशरजकनिग्रहवायकमालाकारकुब्जानुग्रहधनुर्भङ्गादिवर्णनं चतुस्सप्ततितमदशकं समाप्तम्॥

आधा दिन समाप्त होनेपर आप मथुरा पहुँचे । वहॉं बाहरी बगीचेमें ठहरकर आपने भोजन किया । फिर सखाओंके साथ मथुरापुरी देखनेके लिये चल दिये । आपके विषयमें बहुत दिनोंसे सुनते रहनेके कारण मनमें दर्शनकी उत्कण्ठा धारण करनेवाले नर -नारियोंके उदित असंख्य पुण्यमय बन्धनोंसे खींचे जाते हुए -से क्या आप राजपथपर जा पहुँचे थे ॥१॥

प्रभो ! उस समय आपके चरणोंकी द्युतिके समान रागवती तथा सौभाग्यशालिनी युवतियॉं आपको देखनेके लिये दौड़ी आयीं । आपकी मूर्ति जिस प्रकार पयोधर (मेघ ) - केसमान श्यामकान्तिसे सुशोभित होती है , उसी प्रकार वे युवतियॉं भी पयोधरों (उन्नत उरोजों )- की छविसे शोभा पाती थीं । आपकी दृष्टिके समान ही वे भी चञ्चल दिखायी देती थीं । आपकी वक्षःस्थलीकी भॉंति वे भी मनोहारिणी थीं । आपके प्रौढ़ मन्दहासकी भॉंति वे भी अपनी निर्मलतासे शोभित होती थीं तथा आपके केशपाशकी भॉंति वे भी अपने सुन्दर केशोंमें गुँथे हुए मयूरपिच्छसे शोभा पाती थीं ॥२॥

आप अपने कटाक्षपातसे उन नगर -नारियोंका आनन्द बढ़ा रहे थे । उस राजमार्गपर बहुत -से लोग अद्भुत चपल दिखायी देते थे । उस समय वहॉं आपने किसी धोबीसे अपने पहनने योग्य वस्त्र मॉंगा । उसने उत्तर दिया - ‘अजी ! हटो , जाओ ; तुम्हें राजाका वस्त्र कौन देगा । ’ उसके इतना कहते ही उसी क्षण आपने हाथसे उसका मस्तक मरोड़ दिया । फिर तो वह भी पुण्यगतिको प्राप्त हुआ ॥३॥

फिर आप एक दर्जीके पास गये । वह बड़ा उदार था तथा उसकी बुद्धि बड़ी विशाल थी । उसने बड़े संतोषके साथ आपके वेषके अनुरूप वस्त्र प्रदान किया । तब आपने भी उसको अपने धाममें पहुँचा दिया । जीवात्माओंके पुण्यको कौन जानता है ? इसके बाद एक मालीने बहुतसी मालाएँ और पुष्पगुच्छ अर्पित करके तथा बहुत -सी स्तुतियॉं सुनाकर आपको सम्मानित किया । लक्ष्मीपते ! उस मालीने आपसे आपकी भक्ति मॉंगी । आपने उसे भक्ति तो दी ही , उत्तम लक्ष्मी भी प्रदान की ॥४॥

मार्गमें आपने एक कमलालोचना कुब्जाको देखा । उसने आपको बहुत अच्छा अङ्गराग दे दिया । उसके चित्तमें जो सरलता थी , उसे उसके शरीरमें भी स्पष्टतः प्रकट करनेके लिये आपने अपने सुन्दर हाथसे पकड़कर उसको उचका दिया । फिर तो वह जगत्सुन्दरी हो गयी ॥५॥

विभो ! तबतक लोगोंको आपके वैभव (एश्र्वर्य )- को निश्र्चित ज्ञान हो गया । उनके भीतर आपके विषयमें पापबुद्धि नहीं थी । वे मथुरावासी अपनी शक्तिके अनुसार ताम्बुल , पुष्पमाला आदि जो कुछ हो सका , आपको समर्पित करते रहे ; परंतु हाय ! कष्ट है कि उस समय मैं हाथमें थोड़े -से पुष्प आदि लेकर मार्गमें हाथ जोड़े हुए खड़ा नहीं था । प्रभो ! इसी कारण आज इस महती पीड़ाका उपभोग कर रहा हूँ ॥६॥

भगवन् ! यद्यपि आपने ‘मैं तुम्हारे घर आऊँगा ’—— यों कहकर उस अङ्गराग प्रदान करनेवाली त्रिवक्राको लौटाया , तथापि वह विरहसे कातर हो , दूरसे ही खड़ी निर्निमेष नयनोंसे आगे -आगे राजपथपर जाते हुए आपको निहारती रही । इतनेहीमें आप गोपुरके भीतर चले गये । उस समय सब ओर होनेवाली जयघोष एवं कोलाहलसे देवकीजीको अनुमान हो गया कि ‘मेरा लाल आ गया । ’ इससे होनेवाले महान् हर्षसे उल्लसित माता देवकीके स्तनोंसे जो दुग्धरस झरने लगा , मानो उसीके व्याजसे आपकेआगमनसे पूर्व ही आपकी कीर्ति अन्तःपुरमें प्रविष्ट हो गयी ॥७॥

इस प्रकार महोत्सवसे परिपूर्ण उस मथुरापुरीमें प्रविष्ट होकर आप धनुषशालामें गये । वहॉं आपके माधुर्य तथा तेजसे प्रभावित होकर रक्षकोंने दूरसे ही आपको भीतर आनेका मार्ग दे दिया । उस शालामें आपने मालाओंसे विभूषित तथा समर्चित एक श्रेष्ठ धनुष देखा । देखते ही , जबतक कि लोग ‘इसे मत छुओ , मत छुओ ’—— ऐसा कहें , उसके पूर्व ही आपने उस धनुषको उठा लिया , उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी , उसे खींचा और तोड़ भी डाला ॥८॥

प्रभो ! आपके द्वारा धनुषके टूटनेसे बड़े जोरसे आवाज हुई , वही मानो दूसरे दिन होनेवाले कंसवधोत्सवकी पूर्वसूचना देनेवाली प्रारम्भिक रणभेरी थी । उसने देवताओंको रोमाञ्चित कर दिया था कंस भी कॉंप उठा । तत्पश्र्चात् आपने धनुषके दोनों टुकड़ोंके भीषण प्रहारसे राक्षकोंको पीटना आरम्भ किया , जिससे उनके आर्तनादसे राजा कंसकी कँपकँपी और बढ़ गयी ॥९॥

उस दिन शिष्ट पुरुषोंने प्रीतिसे और दृष्टोंने भयसे आपकी महिमा देखी । आप मथुरापुरीकी शोभा -सम्पत्ति देखते हुए घूमते -घामते संध्याके समय विश्रामके लिये वाटिकामें जा पहुँचे । वहॉं श्रीदामाके साथ अपने राधाविरह -जन्य खेदकी चर्चा करते हुए सोये । उस समय अवतारकार्य क्रमशः घटित होनेसे आनन्दित होनेवाले वातेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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