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नवतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - नवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


वृकभृगुमुनिमोहिन्यम्बरीषादिवृत्ते -

ष्वयि तव हि महत्त्वं सर्वशर्वादिजैत्रम् ।

स्थितमिह परमात्मन् निष्कलार्वागभिन्नं

किमपि यदवभातं तद्धि रूपं तवैव ॥१॥

मूर्तित्रयेश्र्वरसदाशिवपञ्चकं यत्

प्राहुः परात्मवपुरेव सदाशिवोऽस्मिन् ।

तत्रेश्र्वरस्तु स विकुण्ठपदस्त्वमेव

त्रित्वं पुनर्भजसि सत्यपदे त्रिभागे ॥२॥

तत्रापि सत्त्विकतनुं तव विष्णुमाहु -

धार्ता तु सत्त्वविरलो रजसैव पूर्णः ।

सत्त्वोत्कटत्वमपि चास्ति तमोविकार -

चेष्टादिकं च तव शंकरनाम्नि मूर्तो ॥३॥

तं च त्रिमूर्त्यतिगतं परपूरुषं त्वां

शंसन्त्युपासनविधौ तदपि स्वतस्तु

त्वद्रूपमित्यतिदृढं बहु नः प्रमाणम् ॥४॥

श्रीशंकरोऽपि भगवान् सकलेषु तावत्

त्वामेव मानयति यो न हि पक्षपाती ।

व्याख्याद् भवत्स्तुतिपरश्र्च गतिं गतोऽन्ते ॥५॥

मूर्तित्रयातिगमुवाच च मन्त्रशास्त्र -

स्यादौ कलयसुषमं सकलेश्र्वरं त्वाम् ।

ध्यानं च निष्कलमसौ प्रणवे खलूक्त्वा

त्वामेव तत्र सकलं निजगाद नान्यम् ॥६॥

समस्तसारे च पुराणसंग्रहे

विसंशयं त्वन्महिमैव वर्ण्यते ।

त्रिमूर्तियुक्सत्यपदत्रिभागतः

परं पदं ते कथितं न शूलिनः ॥७॥

यद् ब्राह्मकल्प इह भागवतद्वितीय -

स्कन्धोदितं वपुरनावृतमीश धात्रे ।

तस्यैव नाम हरिशर्वमुखं जगाद

श्रीमाधवः शिवपरोऽपि पुराणसारे ॥८॥

ये स्वप्रकृत्यनुगुणा गिरिशं भजन्ते

तेषा फलं हि दृढयैव तदीयभक्त्या ।

व्यासो हि तेन कृतवानधिकारिहेतोः

स्कान्दादिकेषु तव हानिवचोऽर्थवादैः ॥९॥

भूतार्थकीर्तिरनुवादविरुद्धवादौ

त्रेधार्थवादगतयः खलु रोचनार्थाः ं

स्कान्दादिकेषु बहवोऽत्र विरुद्धवादा -

स्वत्तामसत्वपरिभूत्युपशिक्षणाद्याः ॥१०॥

यत् किंचिदप्यविदुषापि विभो मयोक्तं

तन्मन्त्रशास्त्रवचनाद्यभिदृष्टमेव ।

क्लेशान् विधूय कुरु भक्तिभरं परात्मन् ॥११॥

॥ इति आगमादिनां परमतात्पर्यनिरूपणं नवतितमदशकं समाप्तम् ॥

अयि परमात्मन् ! वृकासुर , भृगुमुनि , मोहिनी -अवतार तथा अम्बरीष आदिके वृत्तान्तोंमें निश्र्चय ही आपका महत्त्व शिव आदि समस्त देवताओंको जीतनेवाला अर्थात् सबसे बढ़कर है । निष्कल ब्रह्म एवं अन्य देवताओंसे अभिन्न जो कुछ भी प्रतीत होता है , वह सब निस्संदेह आपका ही रूप है ॥१॥

ब्रह्मा , विष्णु , शिव , ईश्र्वर , सदाशिव नामक मूर्तिभेदसे शैवलोग जिस पञ्चब्रह्मका वर्णन करते हैं , उस पञ्चकमें सदाशिव तो आप परमात्मरूप विष्णु ही हैं । इसी प्रकार आप ही वैकुण्ठवासी ईश्र्वर कहे जाते हैं । पुनः ब्रह्मा , विष्णु , शिवरूप तीन भागवाले सत्यलोकमें आप ही त्रिविध मूर्तियोंको भी धारण करते हैं ॥२॥

उन तीनों मूर्तियोंमें भी जा आपकी सात्त्विकी मूर्ति है , उसे विष्णु कहते हैं और जिसमें सत्त्वगुण थोड़ा तथा रजोगुण भरपूर है , वह ब्रह्माकी मूर्ति कही जाती है । इस प्रकार आपकी शंकर नामक मूर्तिमें सत्त्वगुणकी प्रधानता होते हुए भी तमोगुणके विकार -जन्य चेष्टाएँ देखी जाती हैं ॥३॥

तीनों मूर्तियोंसे परे ईश्र्वरपदवाच्य परमपुरुष आपका सर्वमय होनेके कारण उपासनाके लिये शिवरूपसे भी वर्णन किया जाता है , तथापि परमार्थतः वह आपका ही रूप है । इस विषयमें हमारे लिये बहुत -से अत्यन्त प्रबल प्रमाण हैं ॥४॥

भगवान् शंकराचार्य भी , जो किसी देवविशेषके पक्षपाती नहीं थे , समस्त प्राणियोंमे आपको ही उपस्थित मानते थे ; इसीलिये उन्होंने विष्णुपरक सहस्रनाम आदिकी व्याख्या की हैं और अन्त समयमें आपका ही स्तवन करते हुए वे मोक्षको प्राप्त हुए ॥५॥

शंकरभगवत्पादने मन्त्रशास्त्रके आदिमें मूर्तित्रयसे परे चतुर्थ परमेश्र्वर , केरावके फूलके समान नीली कान्तिसे सुशोभित तथा सर्वेश्र्वररूपसे आपका वर्णन किया है । प्रणवमें भी उन्होंने निष्कल -ध्यानरूपसे वर्णन करके आपको ही सर्वस्व बतलाया है , किसी अन्य देवको नहीं ॥६॥

समस्त शास्त्रोंके निचोड़रूप पुराणोंमें निस्संदेह आपकी ही महिमाका वर्णन किया गया है और उनमें मूर्तित्रयसे युक्त सत्यलोकस्थ तीनों लोकोंसे परे जो लोक है , वह आपका वैकुण्ठलोक ही कहा गया है , शिवलोक नहीं ॥७॥

ईश ! इस ब्राह्मकल्पमें भगवान्ने ब्रह्माको श्रीमद्भागवतके द्वितीय स्कन्धमें वर्णित जिस स्वरूपका दर्शन कराया था , उसीको श्रीमाधवाचार्यने शिवपरायण होते हुए भी पुराणसार नामक ग्रन्थमें हरिशर्वमुख नामसे वर्णन किया है ॥८॥

जो लोग अपनी प्रकृतिके अनुसार शिवजीका भजन करते हैं , उन्हें अपनी सुदृढ़ शिवभक्तिके अनुकूल फल मिलेगा ही । इसी कारण व्यासजीने स्कन्द आदि पुराणोंमें शिव -भक्तिके अधिकारियोंके निमित्त अर्थवाद -रूपसे आपके प्रति न्यूनतापादक वचनोंका उल्लेख किया है ॥९॥

भूतार्थवाद , अनुवाद और विरुद्धवाद (प्रमाणान्तरसे विरुद्धार्थका कथन )— ये तीन अर्थवादके स्वरूप हैं , जो सब -के -सब रोचनार्थक हैं । स्कन्द आदि पुराणोंमें ऐसे बहुत -से विरुद्धवाद मिलते हैं , जो तामसत्व और पराजय आदिको प्रकट करनेवाले हैं (वस्तुतः वे आपकी न्यूनता प्रकट करनेके लिये नहीं है ॥१०॥

विभो ! कुछ भी न जानते हुए मैंने जो कुछ आपके गुणोंका वर्णन किया है , वह मन्त्रशास्त्रके वचनोंके अनुसार ही किया है (कपोलकल्पना नही की है ) व्यासोक्तिरूप पुराणोंके सारभूत श्रीमद्भगवतपुराणद्वारा प्रतिपाद्य परात्मन् ! मेरे कष्टोंको नष्ट करके मुझे भक्तिभावसे पूर्ण कर दीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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