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अष्टषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


तव विलोकनाद् गोपिकाजनाः प्रमदसंकुलाः पङ्कजेक्षण ।

अमृतधारया सम्प्लुता इव स्तिमिततां दधुस्त्वत्पुरोगताः ॥१॥

तव विभो परा कोमलं भुजं निजगलान्तरे पर्यवेष्टयत् ।

गलसमुद्गतं प्राणमरुतं प्रतिनिरुन्धतीवातिहर्षुला ॥३॥

अपगतत्रपा कापि कामिनी तव मुखाम्बुजात् पूगचर्वितम् ।

प्रतिगृहय्य तद् वक्त्रपङ्कजे निदधती गता पूर्णकामताम् ॥४॥

विकरुणो वने संविहाय मामपगतोऽसि का त्वामिह स्पृशेत् ।

इति सरोषया तावदेकया सजललोचनं वीक्षितो भवान् ॥५॥

इति मुदाकुलैर्वल्लवीजनैः सममुपागतो यामुने तटे ।

मृदुकुचाम्बरैः कल्पितासने घुसृणभासुरे पर्यशोभथाः ॥६॥

कतिविधा कृपा केऽपि सर्वतो धृतदयोदयाः केचिदाश्रिते ।

कतिचिदीदृशा मादृशेष्वपीत्याभिहितो भवान् वल्लवीजनैः ॥७॥

अयि कुमारिका नैव शङ्क्य़तां कठिनता मयि प्रेमकातरे ।

मयि तु चेतसो वोऽनृवृत्तये कुतमिदं मयेत्यूचिवान् भवान् ॥८॥

अयि निशम्यतां जीववल्लभाः प्रियतमो जनो नेदृशा मम ।

तदिह रम्यतां रम्ययामिनीष्वनुपरोधमित्यालपो विभो ॥९॥

इति गिराधिकं मोदमेदुरैर्व्रजवधूजनैः साकमारमन् ।

कलितकौतुको रासखेलने गुरुपुरीपते पाहि मां गदात् ॥१०॥

॥ इति रासक्रीडायाम् आनन्दपारवश्यवर्णनं प्रणयकोपवर्णनं भगवत्कृतसात्नवनावर्णनं च अष्टषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

कमलनयन ! आपके दर्शनसे गोपियॉं हर्षसे भर गयीं । वे अमृतकी धारासे नहायी हुई -सी होकर आपके सामने निश्र्चलभावसे खड़ी हो गयीं ॥१॥

तदनन्तर किसी गोपीने तत्काल निश्शङ्क होकर आपका कर -कमल पकड़ लिया ओर उसे पीन वक्षः स्थापित करके वह रोमाञ्चित हो देरतक उसी रूपमें खड़ी रही ॥२॥

विभो ! कण्ठतक आये हुए प्राणोंको रोकनेकी चेष्टा करती हुई -सी दूसरी गोपीने अत्यन्त हर्षमग्न हो आपकी कोमल बॉंहको अपने गलेमें लपेट लिया ॥३॥

कोई कामिनी लाजको तिलाञ्चलि दे आपके मुखारविन्दसे चबाये हुए पानका कुछ भाग लेकर अपने मुखकमलमें रखती हुई पूर्णकाम हो गयी ॥४॥

‘ तुम निर्दयी हो , मुझे वनमें अकेली छोड़कर भाग गये थे । ऐसी दशामें यहॉं कौन तुम्हारा स्पर्श करेगी । ’—— ऐसा कहकर रोषसे भरी हुई एक गोपीने आँसूभरे नेत्रोंसे आपकी ओर दृष्टिपातमात्र किया ॥५॥

इस प्रकार आनन्दसे आकुल हुई गोपाङ्गनाओंके साथ यमुना -तटपर आप मिले और उनके कोमल अञ्चलोंसे परिकल्पित केसर -चन्दनचर्चित आसनपर विराजमान हुए ॥६॥

उस समय गोपियोंने आपसे प्रश्र्न किया —— ‘श्यामसुन्दर ! कृपा कितने प्रकारकी होती है । (अथवा कृपालुजनोंके कितने भेद हैं । ) कोई तो सबपर सदा दया करते हैं , कुछ लोग अपने अश्रितजनोंपर ही कृपा करते हैं और कुछ हम -जैसे लोगोंपर भी ऐसे हैं (आपकी तरह अद्भुत कृपा -कठोरताका प्रदर्शन करते हैं )’ ॥७॥

तब आपने इस प्रकार उत्तर दिया —— ‘कुमारिकाओ ! मैं प्रेमभीरु हूँ —— प्रेमके लिये व्याकुल रहता हूँ । मुझमें निर्दयताकी आशङ्का मत करो । तुम्हारे चित्तकी पूर्णतः अनुवृत्ति मुझमें ही हो , इस उद्देश्यसे मैंने इस समय ऐसा बर्ताव किया है ’ ॥८॥

‘ अरी जीवनवल्लभाओ ! सुनो । तुमलोगोंके समान अत्यन्त प्रियजन मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है । अतः यहॉं इन रमणीय रात्रियोंमें तुम मेरे साथ निर्बाध रमण करो । ’ विभो ! आपने उनसे इस प्रकार कहा ॥९॥

आपकी इस वाणीसे व्रज -वधूजनोंका आनन्द बढ़कर अधिक घनीभूत हो गया । फिर उनके साथ विहार करते हुए आप रासक्रिड़ाके लिये उत्सुक हुए । गुरुवायुपुराधीश्र्वर ! रोगसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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