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पञ्चाशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चाशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


तरलमधुकृद्वृन्दे वृन्दावनेऽथ मनोहरे

पशुपशिशुभिः साकं वत्सानुपालनलोलुपः ।

हलधरसखो देव श्रीमन्विचेरिथ धारयन्

गवलमुरलीवेत्रं नेत्राभिरामतनुद्युतिः ॥१॥

विहितजगतीरक्षं लक्ष्मीकराम्बुजलालितं

ददति चरणद्वन्दं वृन्दावने त्वयि पावने ।

किमिव न बभौ सम्पत्सम्पूरितं तरुवल्लरी -

सलिलधरणीगोत्रक्षेत्रादिकं कमलापते ॥२॥

विलसदुलपे कान्तारान्ते समीरणशीतले

विपुलयमुनातीरे गोवर्द्धनाचलमूर्द्धसे ।

ललितमुरलीनादः सञ्चारयन् खलु वात्सकं

क्वचन दिवसे दैत्यं वत्साकृतिं त्वमुदैक्षथाः ॥३॥

रभविलसत्पुच्छं विच्छायतोऽस्य विलोकयन्

किमपि वलितस्कन्धं रन्ध्रप्रतीक्षमुदीक्षितम् ।

तमथ चरणे विभ्रद्विभ्रामयन् मुहुरुच्चकैः

कुहचन महावृक्षे चिक्षेपिथ क्षतजीवितम् ॥४॥

निपतति महादैत्ये जात्या दुरात्मनि तत्क्षणं

निपतनजवक्षुण्णक्षोणीरुहक्षतकानने ।

दिवि परिमिलद्वृन्दा वृन्दारकाः कुसुमोत्करैः

शिरसि भवतो हर्षाद्वर्षान्ति नाम तदा हरे ॥५॥

सुरभिलतमा मूर्धन्यूर्ध्वं कुतः कुसुमावली

निपतति तवेत्युक्तो बालैः सहेलमुदैरयः ।

झटिति दनुजक्षेपेणोर्ध्वं गतस्तरुमण्डलात्

कुसुमनिकरः सोऽयं नूनं समेति शनैरिति ॥६॥

क्वचन दिवसे भूयो भूयस्तरे परुषातपे

तपनतनयापाथः पातुं गता भवदादयः ।

चलितगरुतं प्रेक्षामासुर्बकं खलु विस्मृतं

क्षितिधरगरुच्छेदे कैलासशैलमिवापरम् ॥७॥

पिबति सलिलं गोपव्राते भवन्तमभिद्रुतः

स किल निगिन्नग्निप्रख्यं पुनर्द्रुतमुद्वमन् ।

दलयितुमगात् त्रोट्याः कोट्या तदाशु भवान्विभो

खलजनभिदाचुञ्चुश्र्चञ्चू प्रगूह्य ददार तम् ॥८॥

सपदि सहजां संद्रष्टुं व मृतां खलु पूतना -

मनुजमघमप्यग्रे गत्वा प्रतीक्षितुमेव वा ।

शमननिलयं याते तस्मिन् बके सुमनोगणे

किरति सुमनोवृन्दं वृन्दावनाद् गृहमैयथाः ॥९॥

ललितमुरलीनादं दूरान्निशम्य वधूजनै -

स्त्वरितमुपगम्यारादारूढमोदमुदीक्षितः ।

जनितजननीनन्दानन्दः समीरणमन्दिर -

प्रथितवसते शौरे दूरीकुरुष्व ममामयान् ॥१०॥

॥ इति वत्सासुरवधवर्णनं च पञ्चाशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

श्रीमन् ! देव ! तदनन्तर जिसमें झुंड -के -झुंड भौंरे फूलोंपर मँडरा रहे थे , उस मनोहर वृन्दावनमें आप बछड़ोंको चरानेके लिये समुत्सुक होकर हलधर तथा ग्वालबालोंके साथ श़ृङीवाद्य , मुरली और बेंत धारण करके विचरने लगे । आपके शरीरकी कान्ति नेत्रोंको मोह लेनेवाली थी ॥१॥

कमलापते ! जबसे आपने भूमिकी रक्षा करनेवाले तथा लक्ष्मीके करकमलोंद्वारा लालित अपने पावन चरणयुगलको वृन्दावनकी पावन भूमिपर रखा , तबसे वहॉं वृक्ष , लता , जलाशय , धरती , पर्वत और क्षेत्र आदि कौन -सी ऐसी वस्तु थी , जो अपनी -अपनी सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण हो अद्भुत शोभा नहीं पा रही हो ॥२॥

अब आप उलप -तृणविशेषसे सुशोभित वनप्रदेशमें , यमुना -जलका स्पर्श करके बहनेवाले शीतल वायुसे सेवित विस्तृत यमुना -तटपर तथा गिरिराज गोवर्धनकी चोटियोंपर मधुर मुरली -नाद करते हुए वत्ससमूहोंको चराने लगे । किसी दिन आपके एक दैत्यको देखा , जो बछड़ेका रूप धारण किये हुए था ॥३॥

वह वत्सासुर बड़े वेगसे अपनी पूँछको इधर -उधर घुमा रहा था । बछड़ोंके मध्य विचरता हुआ वह अपनी गरदनको थोड़ी तिरछी करके पीछेकी ओर देख लेता था और अवसरकी प्रतीक्षामें था । उसके इस प्रकार देखनेके अभिप्रायको आपने भॉंप लिया । फिर तो उसकी पिछली टॉंगें पकड़कर आप उसे वेगपूर्वक बारंबार घुमाने लगे । घुमाते समय ही उसके प्राणपखेरु उड़ गये , तब आपने उसे किसी महान् वृक्षपर दे मारा ॥४॥

हरे ! जब जन्मसे ही दुष्ट वह महान् दैत्य वत्सासुर अपने पतनवेगसे वृक्षोंको छिन्न -भिन्न करके उस वनप्रदेशकी शोभा नष्ट करता हुआ धराशायी हो गया , तब आकाशमें यूथ -के -यूथ देवता संगठित होकर आये और हर्षपूर्वक आपके मस्तकपर पुष्प -समूहोंकी वृष्टि करने लगे ॥५॥

तब ‘सखे ! तुम्हारे मस्तकके ऊपर यह अतिशय सुगन्धयुक्त कुसुमावली कहॉंसे गिर रही है ?’ बालकोंके यों पूछनेपर आपने लीलापूर्वक उत्तर दिया ——‘ऐसा प्रतीत होता है कि वत्सासुरके शरीरको वेगपूर्वक फेंकनेसे उसके साथ -ही -साथ कुछ पुष्प वृक्षमण्डलसे ऊपरको चले गये थे , वे ही अब धीरे -धीरे गिर रहे हैं ’ ॥६॥

पुनः किसी दिन , जब बड़ी कड़ी धूप तप रही थी , आप सभी ग्वालबाल सूर्यपुत्री यमुनामें जल पीनेके लिये गये । वहॉं आप -लोगोंने एक बकुलेको देखा , जो अपने पंख फड़फड़ा रहा था । ऐसा प्रतीत होता था मानो इन्द्रद्वारा पर्वतोंके पक्षच्छेदके समय उसका पंख काटना वे भूल गये थे , जिससे वह दूसरे कैलास पर्वतके सदृश लग रहा था ॥७॥

विभो ! अभी ग्वालबाल जल पी ही रहे थे तबतक उस बकासुरने झपटकर आपको निगल लिया ; परंतु जब आप उसके तालुको अग्निकी भॉंति जलाने लगे , तब उसने तुरंत ही आपको उगल दिया । पुनः चोंचके अग्रभागसे विदीर्ण करनेके लिये आपपर धावा किया , तब दुष्ट -दलन -कार्यमें विख्यात कीर्तिवाले आपने ऊपर -नीचेकी दोनों चोचोंको पकड़कर उसे बीचसे ही फाड़ डाला ॥८॥

मरी हुई अपनी सहोदरा बहिन पूतनाको देखनेके लिये अथवा पहले ही स्वर्गमें जाकर अपने छोटे भाई अघासुरकी प्रतीक्षा करनेके लिये जब वह बकासुर यमलोकको चला गया , तब देवगण आपपर पुष्पसमूहकी वर्षा करने लगे । तत्पश्र्चात् आप वृन्दावनसे घरको लौट आये ॥९॥

आपके अतिशय सुन्दर वेणुनादको दूरसे ही सुनकर गोपियॉं शीघ्र ही निकट जाकर समीपमें अङ्ग -प्रत्यङ्गके दर्शनसे आनन्दित होकर आपका अवलोकन करने लगीं । इस प्रकार आप माता यशोदा तथा नन्द बाबाको आनन्दित करने लगे । वायु -मन्दिरके सुप्रसिद्ध निवासी श्रीकृष्ण ! मेरे रोगोंको दूर कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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