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पञ्चपञ्चाशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चपञ्चाशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अथ वारिणी घोरतरं फणिनं प्रतिवारियुतं कृतधीर्भगवन् ।

द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥

अधिरुह्य पदाम्बुरुहेण च तं नवलपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।

ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपतः परिघूर्णितघोरतरङ्गगणे ॥२॥

भुवनत्रयभारभृतो भवतो गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।

परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥

अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभितभ्रमितोदरवारिनिनादभरैः ।

उदकादुदगादुगाधिपतिस्त्वदुपान्तमशान्तरुषान्धमनाः ॥४॥

फणश़ृङ्गसहस्रविनिस्सृमरज्वलदिग्निकणोग्रविषम्बुधरम् ।

पुरतः फणिनं समलोकयथा बहुश़ृङ्गिणमञ्चनशैलमिव ॥५॥

ज्वलदक्षिपरिक्षदुग्रविषश्र्वसनोष्मभरः स महाभुजगः ।

परिदश्य भवन्तमनन्तबलं परिवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥

अविलोक्य भवन्तमथाकुलिते तटगामिनि बालकधेनुगणे ।

व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपाः ॥७॥

अखिलेषु विभो भवदीयदशामवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।

फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवादुदगम्यत हासजुषा भवतो ॥८॥

अधिरुह्य ततः फणिराजफणान्ननृते भवता मृदुपादरुचा ।

कलशिञ्चितनूपुरमञ्जुमिलत्करकङ्कणसङ्कसंक्वणितम् ॥९॥

जहृषुः पशुपास्तुतुषुर्मुनयो ववृषः कुसुमानि सुरेन्द्रगणाः ।

त्वयि नृत्याति मारुतगेहपते परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥

॥ इति कालियोपाख्याने कालियमर्दने भवगन्नर्तनवर्णनं पञ्चपञ्चाशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

भगवन् ! तदनन्तर आपने यमुना -जलमें प्रवेश करके उस भयंकर नागका निवारण करनेके लिये निश्र्चय किया । इस विचारसे आप शीघ्र ही एक तटवर्ती कदम्बवृक्षके निकट गये । उस वृक्षके सारे पत्ते विषयुक्त वायुके स्पर्शसे सूख गये थे ॥१॥

तब आप नूतन पल्लवतुल्य मनोहर कान्तिवाले अपने चरणकमलोंद्वारा उस कदम्बवृक्षपर चढ़कर बड़ी ऊँचाईसे चक्राकार घूमती हुई भयंकर लहरोंसे व्याप्त कुण्डके जलमें कूद पड़े ॥२॥

उस समय त्रिलोकीका भार धारण करनेवाले आपके भारसे जिसका जल विकम्पित तथा वृद्धिंगत हो उठा था और जिसमेंसे स्पष्ट महान् घोष प्रकट हो रहा था , उस यमुनाने तुरंत ही सौ धनुषतककी तटभूमिका जलमग्न कर दिया ॥३॥

तत्पश्र्चात् कूदनके कारण जिसका अन्तर्भाग परिक्षुब्ध एवं भँवरयुक्त हो रहा था , उस जलके निनादसे सारी दिशा -विदिशाएँ भर गयीं । तब अशान्त तथा क्रोधाभिभूत मनवाला नागराज कालिय जलसे ऊपर निकलकर आपके निकट गया ॥४॥

सहस्रों ऊँचे -ऊँचे फणोंसे निरन्तर झरनेवाले प्रज्वलित अग्निकणोंके कारण अत्यन्त उग्र विषद्रव धारण करनेवाले उस नागको आपने अपने सामने उपस्थित देखा । वह बहुत -से शिखरोंवाले कज्जलगिरिके समान जान पड़ता था ॥५॥

अहो ! तब प्रज्वलित नेत्र तथा झरते हुए उग्र विषयुक्त श्र्वासवायुकी ऊष्मासे परिपूर्ण उस महानागने गुप्त चेष्टावाले एवं अनन्तबलशाली आपको डँसकर अपने शरीर -बन्धनसे जकड़ दिया ॥६॥

आपको न देखनेके कारण तटपर स्थित बालकों तथा गौओंका समुदाय व्याकुल हो गया । उधर व्रजमें भी सैकड़ों अपशकुन होने लगे , जिन्हें देखकर नन्द आदि गोप यमुना -तटपर आ पहुँचे ॥७॥

विभो ! जब आपकी दशा देखकर सो वज्रवासी प्राण त्याग देनेके लिये उद्यत हो गये , तब आप शीघ्र ही नाग -बन्धनको तोड़कर हँसते हुए वेगपूर्वक जलसे ऊपर निकल आये ॥८॥

तत्पश्र्चात् कोमल चरणकान्तिवाले आप नागराज कालियके फणोंपर चढ़कर नृत्य करने लगे । नाचते समय नूपुरोंकी मधुर झनकार हो रही थी और ताल लगानेके कारण मिले हुए हाथोंके कङ्कणोंका मनोहर शब्द हो रहा था ॥९॥

आपके नृत्य करते समय गोपगण हर्षित हो रहे थे , मुनियोंको परम संतोष हो रहा था और इन्द्र आदि देवता पुष्पोंकी वृष्टि कर रहे थे । मारुतगेहपते ! वह आप इस अदम्य रोगसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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