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एकोनसप्ततिमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकोनसप्ततिमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


केशपाशधृतपिच्छिकावितति सञ्चलन्मकरकुण्डलं

हारजालवनमालिकाललितमङ्गरागघनसौरभम् ।

पीतचैल्धृतकाञ्चिकाञ्चितमुदञ्चदंशुमणिनूपुरं

रासकेलिपरिभूषितं तव हि रूपमीश कलयामहे ॥१॥

तावदेव कृतमण्डने कलितकञ्चुलीककुचमण्डले

गण्डलोलमणिकुण्डले युवतिमण्डलेऽथ परिमण्डले ।

अन्तरा सकलसुन्दरीयुगलमिन्दिरारमण सञ्चरन्

मञ्जुलां तदनु रासकेलिमयि कञ्जनाभ समुपादधाः ॥२॥

वासुदेव तव भासमानमिह रासकेलिरससौरभं

दूरतोऽपि खलु नारदागदितमाकलय्य कुतुकाकुला ।

वेषभूषणविलासपेशलविलासिनीशतसमावृता

नाकतो युगपदागता वियति वेगतोऽथ सुरमण्डली ॥३॥

वेणुनादकृततानदानकलगानरागगतियोजना -

लोभनीयमृदुपादपातकृततालमेलनमनोहरम् ।

पाणिसंक्वणितकङ्कणं च मुहुरंसलम्बितकराम्बुजं

श्रोणिबिम्बचलदम्बरं भजत रासकेलिरसडम्बरम् ॥४॥

श्रद्धया विरचितानुगानकृततारतारमधुरस्वरे

नर्त्तनेऽथ ललिताङ्गहारलुलिताङ्गहारमणिभूषणे ।

सम्मदेन कृतपुष्पवर्षमलमुन्मिषद् दिविषदां कुलं

चिन्मये त्वयि निलीयमानमिव सम्मुमोह सवधूकुलम् ॥५॥

स्विन्नसन्नतनुवल्लरी तदनु कापि नाम पशुपाङ्गना

कान्तमंसमवलम्बते स्म वि तान्तिभारमुकुलेक्षणा ।

काचिदाचलितकुन्तला नवपटीरसारघनसौरभं

वञ्चनेन तव सञ्चुचुम्ब भुजमञ्चितोरुपुलकाङ्कुरा ॥६॥

कापि गण्डभुवि सन्निधाय निजगण्डमाकुलितकुण्डलं

पुण्यपूरनिधिरन्ववाप तव पूगचर्वितरसामृतम् ।

इन्दिराविहृतिमन्दिरं भुवनसुन्दरं हि नटनान्तरे

त्वामवाप्य दधुरङ्गनाः किमु न सम्मदोन्मददशान्तरम् ॥७॥

गानमीश विरतं क्रमेण किल वाद्यमेलनमुपारतं

ब्रह्मसम्मदरासाकुलाः सदसि केवलं ननृतुरङ्गनाः ।

नाविदन्नपि च नीविकां किमपि कुन्तलीमपि च कञ्चुलीं

ज्योतिषामपि कदम्बकं दिवि विलम्बितं किमप्रं ब्रुवे ॥८॥

मोदसीम्नि भुवनं विलाप्य विहृतिं समाप्य च ततो विभो

केलिसम्मृदितनिर्मलाङ्गनवघर्मलेशसुभगात्मनाम् ।

मन्मथासहचेतसां पशुपयोषितां सुकृतचोदित -

स्तावदाकलितमूर्तिरादधिथ मारवीरपरमोत्सवान् ॥९॥

केलिभेदपरिलोलिताभिरतिलालिताभिरबलालिभिः

स्वैरमीश ननु सूरजापयसि चारुनाम विहृतिं व्यधाः ।

काननेऽपि च विसारिशीतलकिशोरमारुतमनोहरे

सूनसौरभमये विलेसिथ विलासिनीशतविमोहनम् ॥१०॥

कामिनीरिति हि यामिनीषु खलु कामनीयकनिधे भवान्

पूर्णसम्मदरसार्णवं कमपि योगिगम्यमनुभावयन् ।

ब्रह्मशङ्करमुखानपीह पशुपाङ्गनासु बहुमानयन्

भक्तलोकगमनीयरूप कमनीय कृष्ण परिपाहि माम् ॥११॥

॥ इति रासक्रीडावर्णनम् एकोनसप्ततितमदशकं समाप्तम् ॥

हे ईश ! हम रासक्रीडामें विभूषित आपके मनोहर रूपका चिन्तन करते हैं । आपने अपने केश -पाशमें मोरपंखकी पंक्ति धारण कर रखी है । आपके कपोलोंपर मकराकार कुण्डल झलमला रहे हैं । विविध हारोंके समुदाय तथा वनमालासे आपके रूपका लालित्य और बढ़ गया हैं । श्रीअङ्गरागसे राशि -राशि सुगन्धकी वर्षा हो रही है । कटिप्रदेशमें पीताम्बरके ऊपर करधनीकी लड़ियोंसे आप सुशोभित हैं तथा आपके चरणोंमें धारित मणिमय नूपुरोंसे किरणें उठ रही हैं ॥१॥

पहलेसे ही गोपयुवतियोंकी मण्डली श़ृङार धारण करके मण्डलाकार खड़ी हैं । उनके वक्षःस्थलपर कञ्चुकी (चोली ) शोभा दे रही है । गालोंपर चञ्चल मणिमय कुण्डल झलक रहे हैं । इन्दिरारमण ! पद्मनाभ ! आप समस्त दो -दो गोपसुन्दरियोंके बीचमें संचरण कर रहे हैं । ऐसी व्यवस्था करनेके पश्र्चात् आपने मञ्जुल रासकेलि आरम्भ की हे ॥२॥

वासुदेव ! यहॉं प्रकाशित आपकी रासक्रीडाके रससौरभका समाचार नारदजीके मुखसे सुनकर दूरसे भी उत्कण्ठित हुई देवमण्डली स्वर्गलोकसे एक साथ चलकर वेगपूर्वक आकाशमें आ खड़ी हुई । वह देव -समुदाय दिव्य वेष -भूषा और विलासके कारण मनोहर प्रतीत होनेवाली सैकड़ों विलासिनियों (सुराङ्गानाओं )-से धिरा हुआ था ॥३॥

रासक्रीडाके रसका समारम्भ कैसा हुआ , इसका चिन्तन कीजिये । भगवान् वंशी बजाकर मधुर तान छेड़ते , उसपर गोपियोंका मनोहर गान होता , गीतके राग और गतिकी योजनाके साथ लुभावना कोमल चरणपात होता और उसके साथ तालका मेल होनेसे वह रा -रङ्ग अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता था । उस रास -नृत्यके समय गोपियोंके हाथोंके कंगन खनखना उठते , उनका करकमल बार -बार पार्श्र्वसहचर श्रीकृष्णके कंधेका सहारा ले लेता तथा नितम्बमण्डलपर लहराती हुई घॉंघर उड़ने लगती थी ॥४॥

श्रद्धापूर्वक चलनेवाले उस रास -नृत्यमें साथ -ही -साथ होनेवाले गानके द्वारा कभी तार और कभी मन्द स्वरका विस्तार होता था । मनोहर अङ्गविक्षेपके कारण शरीरके हार और मणिमय भूषण चञ्चल हो जाते थे । अपलक नेत्रोंसे देखता हुआ देव -समुदाय आनन्दतिरेकसे दिव्य पुष्पोंकी प्रचुर वर्षा करता और अपनी वधुओंके साथ ही आप चिन्मय परमात्मामें लयको प्राप्त हुआ -सा मोहमग्न हो जाता था ॥५॥

तदनन्तर कोई गोपाङ्गना , जिसकी लताके समान पतली देह शिथिल एवं पसीने -पसीने हो गयी थी , अधिक थकावटके कारण अधमुँदी आँखें लिये आपके कमनीय कंधेका सहारा ले लिया करती थी । किसीके केश खुलकर कुछ -कुछ हिल रहे थे । उसने नूतन चन्दन -सारके घनीभूत सौरभसे युक्त आपकी बॉंहको किसी बहानेसे चूम लिया और उसके अङ्ग -अङ्गमें अत्यन्त रोमाञ्च हो आया ॥६॥

किसी गोपीने , जो पुण्यराशिकी निधि थी , हिलते हुए कुण्डलसे मण्डित अपने गण्डस्थलको आपके कपोलके पास ले जाकर आपके द्वारा चबायी गयी सुपारीके रसामृतका पान कर लिया । आप त्रिभुवनसुन्दर हैं और इन्दिरा (लक्ष्मी )-के विलास -मन्दिर हैं । आपको रासनृत्यके बीचमें पाकर गोपाङ्गनाओंने आनन्दोन्मादकी कौन -कौन -सी दशाएँ नहीं धारण कीं ॥७॥

हे ईश ! गान बंद हुआ । क्रमशः बाजोंकी संगति भी बंद हो गयी । ब्रह्मानन्द -रसमें निमग्न हुई गोपाङ्गनाएँ समूहमें केवल नृत्य करती रहीं । उन्हें अपने नीवी -वस्त्रोंके खिसक जानेका , केशपाशोंके खुल जानेका और कञ्चुकीके स्थानभ्रष्ट हो जानेका भी भान नहीं हुआ । औरोंकी क्या बात कहूँ , तारोंका समुदाय भी आकाशमें लटका खड़ा रह गया ॥८॥

विभो ! सम्पूर्ण भुवनको आनन्दकी पराकाष्ठामें विलीन करके रास -विहार समाप्त कर आपने जितनी गोपाङ्गनाएँ थीं , उतने ही रूप धारण करके उनके पुण्यकर्मसे प्रेरित हो अत्यन्त उत्कृष्ट मदनोत्सव आरम्भ किया । गोपाङ्गनाओंके केलिमर्दित निर्मल अङ्गोंमें नूतन पसीनेकी कुछ बूँदें , उभड़ आयी थीं , जिनसे वे बड़ी सुन्दर दिखायी देती थीं और उनका चित्त मन्मथकी पीड़ाको सहन करनेमें असमर्थ हो गया था ॥९॥

मनोहरनामवाले ईश्र्वर ! आपने विभिन्न क्रीड़ाओंद्वारा चञ्चल और आपके लाड़ -प्यारसे अत्यन्त समादृत हुई उन अबलाओंके साथ यमुनाजीके जलमें स्वच्छन्द विहार किया । तत्पश्र्चात् सब ओर फैली हुई शीतल किशोर (मन्द ) वायुसे मनको हर लेनेवाले तथा फूलोंकी सुगन्धसे भरे हुए काननमें भी सैकड़ों विलासिनीजनोंको विमोहित कर देनेवाला विलास किया ॥१०॥

कमनीयताके निधिरूप कमनीय कृष्ण ! आपने इस प्रकार अनेक रात्रियोंमें उन कामिनियोंको योगीजनोंके अनुभवमें आने योग्य किसी अपूर्व पूर्णानन्द -रसामृतसागरका अनुभव कराया तथा उन गोपाङ्गनाओंके प्रति ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंका भी अधिक आदर प्रकट किया । यह सब करते हुए भक्तजनोंको ही प्राप्तव्य रमणीय रूपवाले नन्दनन्दन ! मेरी रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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