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सप्ताशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - सप्ताशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


कुचेलनामा भवतः सतीर्थ्यतां गतः स सांदीपनिमन्दिरे द्विजः ।

त्वदेकरागेण धनादिनिःस्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥

समानशीलापि तदीयवल्लभा तथैव नो चित्तजयं समेयुषी ।

कदाचितदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापतिः किं न सखा निषेव्यते ॥२॥

इतीरितोऽयं प्रियया क्षुधार्तया जुगुप्समानोऽपि धने मदावहे ।

तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥

गतोऽयमाश्र्चमयीं भवत्पुरीं गृहेषु शैब्याभवनं समेयिवान् ।

प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुनः ॥४॥

प्रपूजितं तं प्रियया च विजितं करे गृहीत्वाकथयः पुराकृतम् ।

यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्षं तदमर्षि कानने ॥५॥

त्रपाजुषोऽस्मात् पृथुकं बलादथ प्रगृह्य मुष्टौ सकृतदाशिते त्वया ।

कृतं कृतं नन्वियतेति सम्भ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥

भक्तेषु भक्तेन स मनितस्त्वया पुरीं वसन्नेकनिशां महासुखम् ।

बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रहः ॥७॥

यदि ह्ययाचिष्यमदास्यदच्युतो वदाम भार्यां किमिति व्रजन्नसौ ।

त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधीः पुनः क्रमादपश्यन् मणिदीप्रमालयम् ॥८॥

किं मार्गविभ्रंश इति भ्रमन क्षणं गृहं प्रविष्टः स ददर्श वल्लभाम् ।

सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥

स रत्नशालासु वसन्नपि स्वयं समुन्नमद्भक्तिभरोऽमृतं ययौ ।

त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥

॥ इति कुचेलोपाख्यानम् -(सुदाम्नोपाख्यानं ) सप्तशीतितमदशकं समाप्तम् ॥

कुचेल (सुदामा ) नामके एक निर्धन ब्राह्मण थे । वे महर्षि सांदीपनिके आश्रममें आपके साथ ही ब्रह्मचर्य -पालनपूर्वक विद्याध्ययन कर रहे थे , अतः आपके सहपाठी थे । आपमें अनन्य अनुराग होनेके कारण उनकी धनादिकी स्पृहा नष्ट हो गयी थी । वे जितेन्द्रिय द्विज गृहस्थाश्रम स्वीकार करके कालक्षेप कर रहे थे ॥१॥

यद्यपि उनकी पत्नी भी उन्हींके सदृश शील -स्वभाववाली थीं , तथापि उनके समान उसका अपने चित्तपर अधिकार नहीं था अर्थात् वह धनादिसे निःस्पृह नहीं थीं । अतः एक दिन उसने अपने पतिदेवसे कहा —— ‘भला , जब लक्ष्मीपति ही आपके सखा हैं , तब जीविकानिर्वाहके लिये आप उनकी सेवामें क्यों नहीं जाते ?’ ॥२॥

तब क्षुधा -पीड़ित पत्नीके यों कहनेपर सुदामा उन्मत्त बना देनेवाले धनकी निन्दा करते हुए भी आपके दर्शनकी कामनासे दुपट्टेके छोरमें उपहारस्वरूप कुछ तण्डुल (या चिउड़े ) बॉंधकर द्वारकाको चल पड़े ॥३॥

तदनन्तर आश्र्चर्यमयी कारीगरीसे सुशोभित आपकी पुरीमें पहुँचकर सुदामा महलोंको देखते हुए शैब्याके भवनपर गये । उसके भीतर प्रवेश करनेपर उन्हें ऐसा सुख प्राप्त हुआ मानो वैकुण्ठमें ही आ गये हों । फिर आपके द्वारा अतिशय आदर -सत्कार पानेपर उन्हें कितना आनन्द मिला होगा , उसके लिये क्या कहना है ॥४॥

वहॉं आपके द्वारा भलीभॉंति सत्कृत होकर जब सुदामा पलंगपर विराजमान हुए और रुक्मिणीजी पंखा झलने लगीं , तब आप उनका हाथ अपने हाथमें लेकर गुरुकुल -वासकेसमय घटित घटनाका वर्णन करते हुए कहने लगे —— ‘सखे ! क्या वह दिन स्मरण है , जब गुरुपत्नीकी आज्ञासे हम दोनों इन्धन लानेके लिये वनमें गये हुए थे , वहॉं वर्षाऋतु न होनेपर भी घनघोर वर्षा हुई थी , जिसे हमलोगोंने सहन किया था ?’ ॥५॥

सुदामा अपने साथ लाया हुआ तण्डुल आपको देनेमें सकुचा रहे थे , तब आपने बलपूर्वक उसे खींच लिया और ज्यों ही एक मुट्ठी तण्डुल मुखमें डाला , त्यों ही रमास्वरूपा रुक्मिणी सम्भ्रमपूर्वक आपके निकट आ पहुँची और ‘बस -बस , इतना ही पर्याप्त है ’—— यों कहती हुई उन्होंने आपके हाथको पकड़ लिया ॥६॥

इस प्रकार भक्तोंके बीचमें मित्र भक्त आपके द्वारा प्रीतिपूर्वक सम्मानित हुए सुदामा अतिशय आनन्दपूर्वक एक रात द्वारकापुरीमें रहे । परंतु खेद है , दूसरे दिन प्रातःकाल बिना कुछ धन प्राप्त किये ही बिदा हुए । भगवन् ! आपका अनुग्रह भी विचित्र रूपोंवाला है अर्थात् आप किस रूपमें किसपर कृपा करते हैं —— यह कहा नहीं जा सकता ॥७॥

मार्गमें सुदामा कभी यह सोचते थे कि यदि मैं याचना करता तो अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्ण मुझे धन अवश्य देते । (परंतु मैने याचना नहीं की , अतः उन्होंने कुछ दिया नहीं । ) अब घर चलकर पत्नीसे क्या कहूँगा । पुनः उसी क्षण उनकी बुद्धि आपके सम्भाषण , लीला और मन्द मुस्कानके आनन्दमें निमग्न हो जाती । इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ते हुए उन्हें अपना भवन दिखायी पड़ा , जो मणियोंकी प्रभासे जगमगा रहा था ॥८॥

उसे देखकर सुदामाको क्षणभर भ्रम हो गया कि कही मैं मार्ग तो नहीं भूल गया ? पुनः घरके भीतर प्रवेश करके उन्होंने अपनी पत्नीको देखा , जो मणि तथा स्वर्णनिर्मित आभूषणोंसे विभूषित थी और बहुतसी सखियॉं उसे घेरे हुए थीं । तब सुदामाको आपकी अत्यन्त अद्भुत करुणाका ज्ञान हो आया ॥९॥

उस रत्पनिर्मित महलमें निवास करते हुए भी सुदामाकी भक्ति क्रमशः बढ़ती ही गयी , जिससे अन्तमें वे मोक्षको प्राप्त हो गये । मरुत्पुराधीश ! इस प्रकार भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेवाले आप मेरे रोगोंको हर लीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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