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एकोननवतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकोननवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


रमाजाने जाने यदिह तव भक्तेषु विभवो

न सम्पद्यः सद्यस्तदिह मदकृत्त्वादशमिनाम् ।

प्रशान्तिं कृत्वैव प्रदिशसि ततः काममखिलं

प्रशान्तेषु क्षिप्रं न खलु भवदीये च्युतिकथा ॥१॥

सद्यः प्रसादरुषितान् विधिशंकरादीन्

केचिद्विभो निजगुणानुगुणं भजन्तः ।

भ्रष्टा भवन्ति बत कष्टमदीर्घदृष्ट्या

स्पष्टं वृकासुर उदाहरणं किलास्मिन् ॥२॥

शकुनिजः स तु नारदमेकदा

त्वरिततोषमपृच्छदधीश्र्वरम् ।

स च दिदेश गिरीषमुपासितुं

न तु भवन्तमबन्धुमसाधुषु ॥३॥

तपस्तप्त्वा घोरं स खलु कुपितः सप्तमदिने

शिरश्छित्त्वा सद्यः पुरहरमुपस्थाप्य पुरतः ।

अतिक्षुद्रं रौद्रं शिरसि करदानेन निधनं जगन्नाथद्ववे्र भवति विमुखानां क्व शुभधीः ॥४॥

मोक्तारं बन्धमुक्तो हरिणपतिरिव प्राद्रवत् सोऽथ् रुद्रं

दैत्याद् भीत्या स्म देवो दिशि दिशि वलते पृष्ठतो दत्तदृष्टिः ।

तूष्णीके सर्वलोके तव पदमधिरोक्ष्यन्तमुद्विक्ष्य शर्वं

दूरादेवाग्रतस्त्वं पटुवटुवपुषा तस्थिषे दानवाय ॥५॥

भद्रं ते शाकुनेय भ्रमसि मिधुनां त्वं पिशाचस्य वाचा

संदेहश्र्चेन्मदुक्तौ तव किमु न करोष्यङ्गुलीमङ्ग मौलौ ।

इत्थं त्वद्वाक्यमूढः शिरसि कृतकरः सोऽपतिच्छिन्नपातं

भ्रंशो ह्येवं परोपासितुरपि च गतिः शूलिनोऽपि त्वमेव ॥६॥

भृगुं किल सरस्वतीनिकटवासिनस्तापसा -

स्त्रिमूर्तिषु समादिशन्नधिकसत्त्वतां वेदितुम् ।

अयं पुनरनादरादुदितद्धरोषे विधौ

हरेऽपि च जिहिंसिषौ गिरिजया धृते त्वामगात् ॥७॥

सुप्तं समाङ्कभुवि पङ्कजलोचनं त्वां

विप्रे विनिघ्रति पदेन मुदोत्थितस्त्वम् ।

सर्वं क्षमस्व मुनिवर्य भवेत् सदा मे

त्वपादचिन्ह्रमिह भूषणमित्यवादीः ॥८॥

निश्र्चित्य ते च सुदृढं त्वयि बद्धभावाः

सारस्वता मुनिवरा दधिरे विमोक्षम् ।

त्वामेवमच्युत पुनश्च्युतिदोषहीनं

सत्त्वोच्चयैकतनुमेव वयं भजामः ॥९॥

जगत्सृष्ट्यादौ त्वां निगमनिवहैर्वन्दिभिरिव

स्तुतं विष्णो सच्चित्परमरसनिर्द्वैतवपुषम् ।

परात्मानं भूमन् पशुपवनिताभाग्यनिवहं

परीतापश्रान्त्यै पवनपुरवासिन् परिभजे ॥१०॥

॥ इति वृकासुरवधवर्णनम् एकोननवतितमदशकं समाप्तम् ॥

लक्ष्मीपते ! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप अपने भक्तोंको जो शीघ्र ही एैश्र्वर्यरूप फल नहीं प्रदान करते , उसका कारण यही है कि ऐश्र्वर्य मदकारक होता है । इसीलिये अशान्त जनोंको पूर्णतः शानत करके ही आप उन्हें उनकी सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करते हैं और जो पहलेसे ही शान्त हैं , उनपर शीघ्र ही कृपा कर देते हैं । इसी कारण आपके भक्तोंमें च्युतिका प्रसंग ही नहीं आता ॥१॥

विभो ! कुछ लोग अपने -अपने वासनानुकूल क्षणे तुष्ट और क्षणे रुष्ट होनेवाले ब्रह्मा -शंकर आदि देवोंकी भक्ति करते हैं ; परंतु खेद है कि अदीर्घदृष्टि होनेके कारण वे शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाते हैं । इस विषयमें वृकासुर स्पष्ट ही उदाहरण हैं ॥२॥

एक बार शकुनि -पुत्र वृकासुरने नारदजीसे पूछा —— ‘मुनि ! त्रिदेवोंमें शीघ्र प्रसन्न होनेवाला देव कौन है ?’ तब नारदजीने शिवजीकी ही उपासना करनेके लिये उसे सलाह दी , आपकी उपासना नहीं बतायी ; क्योंकि आप असाधु (दुष्ट ) जनोंके बन्धु (सहायक ) नहीं है ॥३॥

तब उसने घोर तप करना आरम्भ किया । सातवे दिन कुपित होकर उसने अपना सिर काटकर चढ़ा देनेका विचार किया । यह देख शिवजी तुरंत उसके सामने प्रकट हो गये । तब वृकासुरने उन जगदीश्र्वरसे ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ वह भस्म हो जाय ’—— ऐसे अत्यन्त क्षुद्र एवं क्रूर वरकी याचना की । भला , आपसे विमुख रहनेवालोंकी बुद्धि शुभ कैसे हो सकती है ॥४॥

वरदान प्राप्त करके वृकासरु उसी प्रकार शिवजीके पीछे पड़ गया , जैसे बन्धनसे मुक्त हुआ सिंह मुक्त करनेवालेपर ही आक्रमण कर बैठता है । तब महादेवजी एस दैत्यसे भयभीत होकर पीछेकी ओर देखते हुए प्रत्येक दिशामें भागते फिरे , परंतु सभी लोगोंने उन्हें देखकर चुप्पी साध ली , किसीने उनकी रक्षा नहीं की । तत्पश्र्चात् वे आपके वैकुण्ठधामकी ओर ऊँचे उठने लगे । दूरसे ही आते देखकर आप आगे बढ़ आये और सुन्दर ब्रह्मचारीका वेष धारण करके उस दानवके मार्गमें खड़े होकर उससे बोले ॥५॥

‘ शकुनि - नंदन ! तुम्हारा कल्याण हो । इस समय तुम उस पिशाचकी बात मानकर क्यों भटक रहे हो ? प्यारे ! यदि तुम मेरे कथनमें संदेह हो तो तुम अपने ही मस्तकपर हाथ रखकर उसकी प्रतिक्षा क्यों नहीं कर लेते ?’ इस प्रकार आपके वचनोंसे मोहित हुआ वृकासुर सिरपर हाथ रखते ही छिन्नमूल वृक्षकी तरह धराशायी हो गया । ( इससे ऐसा प्रीतीत होता है कि ) परमेश्र्वर शिवकी उपासना करनेवालोका भी मूर्खताके कारण इस प्रकार नाश हो जाता है । उस दिन आप ही शिवजीके भी आश्रय हुए ॥६॥

एक बार सरस्वतीकें निकट निवास करनेवाले तापसोंने ब्रह्मा , विणु , शिव -इन त्रिदेवोंमें कौन अधिक सत्त्वशाली है , इसकी परख करनेके लिये भृगु मुनिको भेजा । भृगु मुनि पहले ब्रह्माके पास गये । वहॉं इनके प्रणाम न करनेसे ब्रह्माको क्रोध हो आया , परंतु तुरंत ही उन्होंने उसे दबा दिया । तब भृगुजी शिवजीके निकट गये । शिवजी भी अनादर करनेके कारण मुनिको मार डालनेके लिये उद्यत हो गये , परंतु गिरिजाने उन्हें पकड़ लिया । तत्पश्र्चात् वे आपके समीप गये ॥७॥

आप लक्ष्मीकी गोदमें सिर रखकर शयन कर रहे थे । तब उन विप्रवरने आप कमलनयनकी छातीमें चरण -प्रहार किया । जिससे आप तुरंत ही उठ पड़े और हर्षपूर्वक यों कहने लगे —— ‘मुनिश्रेष्ठ ! मेरे सब अपराधोंको क्षमा कर दीजिये । आजसे आपका यह चरणचिह्न मेरे वक्षःस्थलपर श्रीवत्स नामक आभूषण होकर सदा विराजमान रहेगा ’ ॥८॥

( विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ हैं —) ऐसा निश्र्चय करके वे सरस्वती - तटवर्ती मुनिवर आपमें सुदृढ़ भक्तिभावना करके मोक्षको प्राप्त हो गये । अच्युत ! जो च्युति - दोषसे रहित तथा एकमात्र सत्त्वकी ही राशिरूप शरीरवाले हैं , ऐसे आपका ही हम लोग भजन करते हैं ॥९॥

विष्णो ! जैसे वन्दीगण गुणगान करते हैं , उसी प्रकार सम्पूर्ण वेद -समूहोंने मूर्तिमान् होकर जगत्की सृष्टिके आदिमें आपके सच्चिदानन्दमय अद्वितीय परमात्मरूपका स्तवन किया था । पवनपुरवासी भूमन् ! गोपाङ्गनाओंके सौभाग्यस्वरूप आप परमात्माका कष्ट -निवृत्तिके हेतु मैं भजन करता हूँ ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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