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अष्टाशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टाशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


प्रागेवाचार्यपुत्राहृतिनिशमनया स्वीयषट्सूनुवीक्षां

काङ्क्षन्त्या मातुरुक्त्या सुतलभुवि बलिं प्राप्य तेनार्चितस्त्वम् ।

धातुः शापद्धिरण्यान्वितकशिपुभवान् शौरिजानू कंसभग्ना -

नानीयैनान् प्रदर्श्य स्वपदमनयथाः पूर्वपुत्रान् मरीचेः ॥१॥

श्रुतदेव इति श्रुतं द्विजेन्द्र बहुलाश्र्वं नृपतिं च भक्तिपूर्णम् ।

युगपत्त्वमनुग्रहीतुकामो मिथिलां प्रापिथ तापसैः समेतः ॥२॥

गच्छन् द्विमूर्तिरुभयोर्युगपन्निकेत -

मेकेन भूरिविभवैर्विहितोपचारः ।

अन्येन तद्दिनभृतैश्र्च फलौदनाद्यै -

स्तुल्यं प्रसेदिथ ददाथ च मुक्तिमाभ्याम् ॥३॥

भूयोऽथ द्वारवत्यां द्विजतनयमूर्ति तत्प्रलापानपि त्वं

को वा दैवं निरुन्धदिति किल कथयन् विश्र्ववोढाप्यसोढाः ।

जिष्णोर्गर्वं विनेतुं त्वयि मनुजाधिया कुण्ठितां चास्य बुद्धिं

तत्त्वारूढां विधातुं परमतमपदप्रेक्षणेनेति मन्ये ॥४॥

नष्टा अष्टास्य पुत्राः पुनरपि तव तूपेक्षया कष्टवादः

स्पष्टो जातो जनानामथ तदवसरे द्वारकामाप पार्थः ।

मैत्र्या तत्रोषितोऽसौ नवमसुतमृतौ विप्रवर्यप्ररोदं

श्रुत्वा चक्रे प्रतिज्ञामनुपहृतसुतः संनिवेक्ष्ये कृशानुम् ॥५॥

मानी स त्वामपृष्ट्वा द्विजनिलयगतो बाणजालैर्महास्त्रै

रुन्धानः सूतिगेहं पुनरपि सहसा दृष्टानष्टे कुमारे ।

याम्यामैन्द्रीं तथान्याः सुरवरनगरीर्विद्ययाऽऽसाद्य सद्यो

मोघोद्योगः पतिष्यन् हुतभुजि भवता सस्मितं वारितोऽभूत् ॥६॥

सार्धं तेन प्रतीचीं दिशमतिजविना स्यन्दनेनाभियातो

लोकालोकं व्यतीतस्तिमिरभयमथो चक्रधाम्ना निरुन्धन् ।

चक्रांशुक्लिष्टदृष्टिं स्थितमथ विजयं पश्य पश्येति वारां

पारे त्वं प्राददर्शः किमपि हि तमसां दूरदूरं पदं ते ॥७॥

तत्रासीनं भुजङ्गाधिपशयनतले दिव्यभूषायुधाद्यै -

रावीतं पीतचेलं प्रतिनवजलदश्यामलं श्रीमदङ्गम् ।

मूर्तीनामीशितारं परमिह तिसृणामेकमर्थं श्रुतीनां

त्वामेव त्वं परात्मन् प्रियसखसहितो नेमिथ क्षेमरूपम् ॥८॥

युवां मामेव द्वावधिकविवृतान्तर्हिततया

विभिन्नौ संद्रष्टुं स्वयमहमहार्षम् द्विजसुतान् ।

नयेतं द्रागेतानिति खलु वितीर्णान् पुनरमून्

द्विजायादायादाः प्रणुतमहिमा पाण्डुजनुषा ॥९॥

एवं नानाविहारैर्जगदभिरमयन् वृष्णिवंशं प्रपुष्ण -

न्नीजानो यज्ञभेदैरतुलविहृतिभिः प्रीणयन्नेणनेत्राः ।

भूभारक्षेपदम्भात् पदकमलजुषां मोक्षणायावतीर्णः

पूर्णं ब्रह्मैव साक्षाद्यदुषु मनुजतारूपितस्त्वं व्यलासीः ॥१०॥

प्रायेण द्वारवत्यामवृतदयि तदा नारदस्त्वद्रसार्द -

स्तस्माल्लेभे कदाचित्खलु सुकृतनिधिस्त्वात्पिता तत्त्वबोधम् ।

भक्तानामग्रयायी स च खलु मतिमानुद्धवस्त्वत्त एव

प्राप्तो विज्ञानसारं स किल जनहितायाधुनाऽऽस्ते बदर्याम् ॥११॥

सोऽयं कृष्णावतारो जयति तव विभो यत्र सौहार्दभीति -

स्नेहद्वेषानुरागप्रभृतिभिरतुलैश्रमैर्योगभेदैः ।

अर्तिं तीर्त्वां समस्ताममृतपदमगुः सर्वतः सर्वलोकाः

स त्वं विश्र्वार्तिशान्त्यै पवनपुरपते भक्तिपूर्त्यै च भूयाः ॥१२॥

॥ इति संतानगोपालोपाख्यानमष्टाशीतितमदशकं समाप्तम् ॥

‘ श्रीकृष्णने आचार्यपुत्रको यमपुरीसे वापस लाकर गुरुदक्षिणा सम्पन्न की है’—— यह वृत्तान्त बहुत दिनोंसे सुनते रहनेके कारण माता देवकीको भी अपने मरे हुए छहों पुत्रोंको देखनेकी इच्छा जाग उठी । तब माताकी आज्ञासे आप सुतललोकमें बलिके पास गये । बलिने भक्तिभावपूर्वक आपका पूजन किया । तत्पश्र्चात् जो पहले महर्षि मरीचिके पुत्र थे और ब्रह्माके शापसे हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे, उन्होंने ही पुनः वसुदेवजीके पुत्ररूपमें जन्म लिया था; जिन्हं कंसने मार डाला था । उन छहों बालकोंको

लाकर आपने माताको दिखलाया और पुनः उन्हें अपने निवासस्थान वैकुण्ठको भेज दिया ॥१॥

श्रुतदेव नामसे विख्यात एक द्विजश्रेष्ठ और मिथिला - नरेश बहुलाश्र्व —— ये दोनों आपकी भक्तिसे भरे - पूरे थे । इनपर एक ही साथ अनुग्रह करनेके लिये आप तापसोंसहित मिथिलापुरीमें गये ॥२॥

वहॉं दो रूप धारण करके आप एक ही समय दोनोंके घर पधारे । एक —— बहुलाश्र्वने राजसी सामग्रियोंसे आपका पूजन किया था और दूसरे —— श्रुतदेवने उस दिन प्राप्त हुए फल - ओदन आदि पूजनसामग्रीके द्वारा ही आपकी अर्चना की थी । परंतु आपने उन दोनोंपर समानरूपसे ही अपना प्रसाद प्रकट किया और उन्हें एक - सी ही मुक्ति प्रदान की ॥३॥

तदनन्तर द्वारकापुरीमें निखिल विश्र्वके संचालक होते हुए भी आपने जो एक ब्राह्मणके पुत्रकी मृत्युको तथा उस ब्राह्मणके कटु वचनको भी ‘ भला , दैवका निवारण करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ?’—— यों कहते हुए सहन किया ; इसका कारण मुझे यह प्रतीत होता है कि आप परमतम पदके दर्शन कराके अर्जुनका गर्व दूर करना तथा आपमें मानवबुद्धि होनेके कारण कुण्ठित हुई अर्जुनकी बुद्धिको तत्त्वज्ञान - सम्पन्न बनाना चाहते थे ॥४॥

उस ब्राह्मणके आठ पुत्र नष्ट हो चुके थे , फिर भी आपकी उपेक्षासे लोगोमें आपके प्रति सुस्पष्ट ही खेदपूर्व अपवाद - चर्चा चल रही थी । उसी समय अर्जुन द्वारकापुरीमें आये और मित्रताके नाते वहॉं कुछ दिनतक टिके रह गये । नवें पुत्रकी मृत्युके अवसरपर उस द्विजश्रेष्ठके रोदन एवं आर्तनादको सुनकर अर्जुनने यह प्रतिज्ञा की कि ‘ यदि मैं आपके ( आगे उत्पन्न होनेवाले ) पुत्रको नहीं बचा सकूँ तो अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा ’ ॥५॥

( प्रसवकाल आनेपर) मानी अर्जुन आपसे बिना पूछे ही उस ब्राह्मणके घर गये और आग्नेयादि महान् अस्त्रोंद्वारा बाणोंका जाल- सा फैलाकर उन्होंने उस सूतिकागृहको आच्छादित कर दिया । फिर भी जन्म लेते ही वह बालक दीखकर भी सहसा अदृश्य हो गया । तब अर्जुन तुरंत ही योग- विद्याके बलसे यमपुरी, इन्द्रपुरी तथा वरुण- कुबेरादि अन्यान्य सुरश्रेष्ठोंकी पुरियोंमें जाकर उस बालककी खोज करने लगे, परंतु उनका उद्योग निष्फल हो गया अर्थात् उस बालकका पता न लगा ।

तब द्वारका लौटकर वे अग्निमें कूदना ही चाहते थे कि आप मुस्कराते हुए उनके पास जा पहुँचे और उन्हें उस कर्मसे रोक दिया ॥६॥

तदनन्तर अर्जुनके साथ आप अपने परम वेगशाली रथके द्वारा पश्र्चिम दिशाकी ओर प्रस्थित हुए । चलते - चलते जब लोकालोक पर्वतको लॉंघ गये तो वहॉं गहन अन्धकारका भय प्राप्त हुआ । उस अन्धकार - भयको सुदर्यानचक्रके प्रकाशसे चीरते हुए आप उसकी अन्तिम सीमापर जा पहुँचे । उस समय अर्जुनकी दृष्टि चक्रकी किरणोंके प्रकाशसे चौंधिया गयी थी । तब ‘ अर्जुन ! देखो , वह देखो ’—— यों कहते हुए आपने उन्हें जलराशिके पार विराजमान और अन्धकारसे बहुत दूर स्थित अपने कीसी अनिर्देश्य पदका दर्शन कराया ॥७॥

परमात्मन् ! वहॉं भुजङ्गराज शेषनागकी शय्यापर आसीन , दिव्य आभूषणोंसे विभूषित , दिव्य आयुध आदिसे घिरे , श्रीसम्पन्न विग्रहपर पीताम्बर धारण किये , दूसरे नूतन जलधरकी - सी श्यामकान्तिवाले , ब्रह्मा , विष्णु और महेश - इन तीनों मूर्तियोंके नियन्ता , ऋृग्वेदादि तीनों वेदोंके एकमात्र प्रतिपाद्य तथा परम कल्याणस्वरूप अपने - आपको ही आपने प्रिय सखा अर्जुनसहित नमस्कार किया ॥८॥

तब आपसे अभिन्न परमेश्र्वरने कहा - ‘ तुम दोनों मेरे ही अंशभूत हो ; एकका एैश्र्वर्य अधिक प्रकट है और एकका अन्तर्हित है , इसी कारण तुम दोनों नर - नारायणरूपसे भिन्न हो गये हो । तुम दोनों कृष्ण और अर्जुनको अपने निकट देखनेके लिये मैंने ही ब्राह्मणपुत्रोंको मँगा लिया था । अब इन्हें शीघ्र ही ले जाओ । ’ इस प्रकार उनके द्वारा दिये गये उन बालकोंको लाकर आपने पुनः उन ब्राह्मणदेवको समर्पित कर दिया । उस समय पाण्डुनन्दन अर्जुन आपकी महिमाका गान करने लगे ॥९॥

इस प्रकार नाना प्रकारकी लीलाओंद्वारा जगत्को आनन्द - प्रदान , वृष्णिवंशका विशेषरूपसे पोषण , विभिन्न यज्ञोंद्वारा यजन और अनुपम लीला - विहारोंद्वारा मृगनयनी नारियोंको तृप्तिदान करते हुए आप साक्षात् पूर्ण ब्रह्म ही भू - भारहरणके बहाने अपने चरण - कमलसेवी भक्तजनोंको मुक्त करनेके लिये यदुकुलमें मनुष्यरूपसे अवतीर्ण होकर सुशोभित हो रहे थे ॥१०॥

भगवन् ! उस समय देवर्षि नारद आपके भक्ति - रससे आर्द्र होनेके कारण प्रायः द्वारकामें रहा करते थे । एक बार पधारे हुए उन्हीं नारदजीसे आपके पुण्यशाली पिता वसुदेवजीने तत्त्वज्ञान प्राप्त किया । बुद्धिमान् उद्धव भक्तोंके अग्रणी थे , उन्हें विज्ञानका सार - तत्त्व आपसे ही प्राप्त हुआ था । वे आज भी बदरिकाश्रममें भक्तोंको ज्ञानोपदेश करनेके लिये विद्यमान हैं ॥११॥

विभो ! आपका यह कृष्णावतार सबसे उत्कृष्ट और सर्वत्र विजयी है ; क्योंकि इस अवतारमें सभी लोग सर्वत्र सौहार्द , भय , स्नेह , द्वेष और अनुराग आदि विभिन्न प्रकारके अनुपम एवं श्रमरहित योगके उपायोंद्वारा सारी विपत्तियोंसे उद्धार पाकर अमृतपद - मोक्षको प्राप्त हो गये । पवनपुरपते ! वहॉं आप हमारे लिये भी सारी पीड़ाओंको हरनेवाले तथा भक्तिकी पूर्ति करनेवाले हों ॥१२॥


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Last Updated : November 11, 2016

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