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एकचत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकचत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


व्रजेश्र्वरः शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेताः ।

निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरण गतस्त्वाम् ॥१॥

निशम्य गोपीवचनादुदन्तं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयान्धाः ।

त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम ॥२॥

त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूमः ।

शङ्कामधादागरवः किमेष किं चान्दनो गौग्गुलवोऽथवेति ॥३॥

मडङ्गसङ्गस्य फलं न दूरे क्षणेन तावद्भवतामपि स्यात् ।

इत्युल्लपन्वल्लवतल्लजेभ्यस्त्वं पूतनामातनुथाः सुगन्धिम् ॥४॥

चित्रं पिशाच्या न हतः कुमारश्र्चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।

इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङक्षीत् ॥५॥

दिने दिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमाङ्गल्यशतो व्रजोऽयम् ।

भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्रः परितो विरेजे ॥६॥

गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथःकथासंकलिताः कमन्यः ।

वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागताः प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥

अहो कुमारको मयि दत्तदृष्टिः स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।

एह्येहि मामित्युपसार्य पाणिं त्वयीश किं किं न कृतं वूधभिः ॥८॥

भवद्वपुःस्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन।

नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम्बिलोलम्बतुलामलासोः ॥९॥

निपाययन्ती स्तनमङ्कगं त्वां विलोकयन्ती वदनं हसन्ती ।

दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृशः पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥

॥ इति पूतनाशरीरदाहवर्णनं गोपीनां बाललालनकौतुकवर्णनं च एकचत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

नन्दजी वसुदेवजीके वचनको सुनकर व्रजको लौट रहे थे । मार्गमें जिसने अपने शरीरके भारसे समस्त वृक्षोंको छिन्न -भिन्न कर दिया था , ऐसे किसी अद्भुत पदार्थको देखकर भयभीत -चित्त हो गये और आपकी शरणमें गये ॥१॥

तदनन्तर गोपियोंके मुखसे पूतनाके वृत्तान्तको सुनकर सभी गोपोंने भय और विस्मयसे सहसा अपने नेत्र बंद कर लिये । फिर उन्होंने आपके द्वारा गिराये उस भयंकर पिशाच -शरीरको फरसोंसे टुकड़े -टुकड़े करके दूर ले जाकर उसका दाहसंस्कार किया ॥२॥

आपके द्वारा पान किये जानेके कारण जिसका स्तन पवित्र हो गया था , उसके उस शरीरसे उत्तम सुगन्धयुक्त धूम निकलने लगा , जो आकाशमें बहुत ऊँचेतक उठा हुआ था और ऐसी शङ्का उत्पन्न कर रहा था कि क्या यह अगुरुका धुआँ है अथवा यह चन्दन या गुग्गुलका धुआँ तो नहीं है ? ॥३॥

‘ मेरे अङ्ग - सङ्गका फल दूर - जन्मान्तरमें नहीं प्राप्त होता , बल्कि तत्काल ही क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है । वह आपलोगोंको भी प्राप्त होगा । ’ गोपालकोसे मानो यों कहते हुए आपने पूतनाके शरीरमें सुगन्धका विस्तार किया था ॥४॥

‘ आश्र्चर्य है कि इस राक्षसीने कुमारको मार नहीं डाला इस भयको वसुदेवजीने पहले ही बतला दिया था —— यह और भी आश्र्चर्यजनक है ’—— इस प्रकार गोपसमुदाय वसुदेवजीकी प्रशंसा करता हुआ आपके मुखावलोकनके आनन्दमें निमग्न हो गया ॥५॥

अयि वासुदेव ! आपके निवास करनेसे जिसमें प्रतिदिन लक्ष्मीकी वृद्धि हो रही थी , सैकड़ों मङ्गल -कार्य बिना किसी क्षति या बाधाके होते रहते थे तथा जो घनीभूत हर्षसे परिपूर्ण था , ऐसा यह व्रज चारों ओरसे शोभा पाने लगा ॥६॥

घरोंमें युवतियॉं आपके सुन्दर रूप तथा हासकी परस्पर कथाएँ कहती हुई उलझी रहती थीं । गृहकार्य समाप्त हो जानेपर वे प्रतिदिन आपका दर्शन करने आती थीं और आपको निहारकर अत्यन्त आनन्दित होती थीं ॥७॥

कोई कहती थी , ‘अहो ! लाला मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहा हैं । कोई कहती थी , बच्चेने मुझे देखकर मन्द -मन्द मुसकराया है । कोई हाथ पसारकर ‘आओ , मेरे पास आओ ’——यों कहती िी । ईश ! गोपवधुएँ आपके प्रति क्या -क्या चेष्टा नक्वहीं करती थीं ? अर्थात् वे आपको गोदमें लेना , आलिङ्गन करना , चूमना और लाड़ लड़ाना आदि सब कुछ करती थीं ॥८॥

जब आपके शरीर -स्पर्शके कुतूहलसे भरी हुई गोपिकाएँ आपको परस्पर एकके हाथसे दूसरीके हाथमें देती थीं , उस समय आप लाल कमलोंकी मालापर मँडराते हुए मधुलोभी भ्रमरकी समानताको प्रकट करने लगे थे ॥९॥

जिस समय यशोदा आपको गोदमें लेकर स्तन पिलाती हुई आपके मुखकी ओर निहारकर हँसती थीं , उस समय उन्हें वात्सल्य -स्नेहकी कौन -सी दशा नहीं प्राप्त होती थी अर्थात् स्तम्भ , स्वेद , रोमाञ्च आदि सभी अवस्थाएँ क्रमशः उनके अङ्गोंमें प्रकट होने लगीं । हरे ! ऐसे भक्तवत्सल आप मुझे इस रोगसे बचाइये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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