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एकषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


ततश्र्च वृन्दावनतोऽतिदूरतो वनं गतस्त्वं खलु गोपगोकुलैः ।

हृदन्तरे भक्ततरद्विजाङ्गनाकदम्बकानुग्रहणाग्रहं वहन् ॥ 1॥

ततो निरीक्ष्याशरणे वनान्तरे

किशोरलोकं क्षुधितं तृषाकुलम् ।

अदूरतो यज्ञपरान् द्विजान् प्रति

व्यसर्जयो दीदिवियाचनाय तान् ॥ 2॥

गतेष्वथो तेष्वभिधाय तेऽभिधां

कुमारकेष्वोदनयाचिषु प्रभो ।

श्रुतिस्थिरा अप्यभिनिन्युरश्रुतिं

न किञ्चिदूचुश्र्च महीसुरोत्तमाः ॥ 3॥

अनादरात् खिन्नधियो हि बालकाः

समाययुर्युक्तमिदं हि यज्वसु ।

चिरादभक्ताः खलु ते महीसुराः

कथं हि भक्तं त्वयि तैः समर्प्यते ॥ 4॥

निवेदयध्वं गृहिणीजनाय मां

दिशेयुरन्नं करुणाकुला इमाः ।

इति स्मितार्द्रं भवतेरिता गता -

स्ते दारका दारजनं ययाचिरे ॥ 5॥

गृहीतनाम्नि त्वयि सम्भ्रमाकुला -

श्र्चतुर्विधं भोज्यरसं प्रगृह्य ताः ।

चिरं धृतत्वत्प्रविलोकनाग्रहाः

स्वकैर्निरुद्धा अपि तूर्णमाययुः ॥ 6॥

विलोलपिच्छं चिकुरे कपोलयोः

समुल्लसत्कुण्डलमार्दमीक्षिते ।

निधाय बाहुं सुहृदंससीमनि

स्थितं भवन्तं समलोकयन्त ताः ॥ 7॥

तदा च काचित्तवदुपागमोद्यता

गृहीतहस्ता दयितेन यज्वना ।

तदैव सञ्चिन्त्य भवन्तमञ्जसा

विवेश कैवल्यमहो कृतिन्यसौ ॥ 8॥

आदाय भोज्यान्यनुगृह्य ताः पुन -

स्त्वदङ्गस्पृहयोज्झतीर्गृहम् ।

विलोक्य यज्ञाय विसर्जयन्निमा -

श्चकर्थ भर्तॄनपि तास्वगर्हणान् ॥ 9॥

निरूप्य दोषं निजमङ्गनाजने

विलोक्य भक्तिं च पुनर्विचारिभिः ।

प्रबुद्धतत्त्वैस्त्वमभिष्टुतो द्विजै -

र्मरुत्पुराधीश निरुन्धि मे गदान् ॥ 10॥

॥ इति द्विजपत्नीमोक्षवर्णनम् एकषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

तदनन्तर एक दिन आप वृन्दावनसे अत्यन्त दूर एक वनमें ग्वालबालों और गौओंके साथ गये । उस समय आप अपने हृदयके भीतर अपनी अतिशय भक्ता द्विजाङ्गनाओंके समुदायपर अनुग्रह करनेका आग्रह लिये हुए थे ॥१॥

तत्पश्र्चात् उस वनके भीतर , जहॉं कोई घर -द्वार नहीं था , गोपकिशोरोंको भूख -प्याससे पीड़ित देख आपने उन्हें पास ही यज्ञानुष्ठानमें लगे हुए ब्राह्मणोंके यहॉं भात मॉंग लानेके लिये भेजा ॥२॥

प्रभो ! वे गोपकुमार गये और आपका नाम बताकर वहॉं भात मॉंगने लगे । परंतु उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने श्रुतिमें स्थिर (श्रवण या श्रुतिपाठमें दृढ़ ) होकर भी अश्रुति (नहीं सुनने या श्रुतिको न जानने )-का अभिनय (नाट्य ) करके उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया ॥३॥

उनके द्वारा की गयी अवहेलनासे गोप -बालकोंका चित्त खिन्न हो गया और वे आपके पास लौट आये । उन याज्ञिक ब्राह्मणोंके समुदायमें इस तरहका व्यवहार या बर्ताव होना असंगत नहीं था । वे भूसुरगण चिरकालसे अभक्त (भक्ति या भातसे रहित ) थे । अतः उनके द्वारा आपके लिये भक्त (भात )-का अर्पण कैसे किया जाता ॥४॥

‘ अच्छा तो , तमुमलोग उनकी पत्नियोंके पास जाकर मेरे आनेकी सूचना दो , इनका हृदय करुणासे भरा हुआ है । ये अवश्य भोजन दे सकती हैं । ’ आपने मुस्कराकर जब ऐसी बात कही , तब उन गोपबालकोनें द्विज - पत्नियोंके पास जाकर अन्नके लिये याचना की ॥५॥

उन द्विज -पत्नियोंके हृदयमें चिरकालसे आपके दर्शनका आग्रह बना हुआ था । अतः आपका नाम लिये जाते ही वे बड़े वेगसे उठ खड़ी हुईं और चार प्रकारका भोज्यरस लेकर स्वजनोंके रोकनेपर भी उनकी बात न मानकर तुरंत आपके पास चली आयीं ॥६॥

उन्होंने आकर देखा -आपके केश -पाशमें मोरपंख फरहा रहा है । दोनों कपोलोंपर कुण्डल झलमला रहा हैं , दृष्टि करुणासे आर्द्र है तथा आप एक सखाके कंधेपर अपनी एक बॉंह रखे खड़े हैं ॥७॥

उस समय किसी एक द्विजपत्नीको , जो आपके पास आनेको उद्यत थी , उसके याज्ञिक पतिने हाथ पकड़कर रोक लिया । तब वह उसी क्षण आपका चिन्तन करके अनायास ही कैवल्यधाममें प्रविष्ट हो गयी । अहो , वह बड़ी पुण्यवती थी ॥८॥

वहॉं गयी हुई द्विजपत्नियॉं आपकी अङ्ग -सङ्ग आपके श्रीअङ्गोंकी इनसे भोज्य पदार्थ ले लिये और इनपर अनुग्रह करके पुनः इन्हें यज्ञशालाको ही लौटा दिया । इतना ही नहीं , आपने इनके पतियोंको भी इन पत्नियोंके प्रति निन्दा -भावनासे रहित कर दिया ॥९॥

अपने दोषकी ओर दृष्टिपातकर और अपनी पत्नियोंके मनमें आपके प्रति अविचल भक्ति -भाव देखकर उन द्विजोंने पुनः विचार किया । इससे उन्हें आपके तत्त्वका बोध हुआ और उन्होंने आपकी स्तुति की । हे वायुपुराधीश्र्वर ! मेरे रोगोंको नष्ट कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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