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अशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - अशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


सत्राजितस्त्वमथ लुब्धवदर्कलब्धं

दिव्यं स्यमन्तकमणिं भगवन्नयाचीः ।

तत्कारणं बहुविधं मम भाति नूनं

तस्यात्मजां त्वयि रतां छलतो विवोढुम् ॥१॥

अदत्तं तं तुभ्यं मणिवरमनेनाल्पमनसा

प्रसेनस्तद्भ्राता गलभुवि वहन् प्राप मृगयाम् ।

अहन्नेनं सिंहो मणिमहसि मांसभ्रमवशात्

कपीन्द्रस्तं हत्वा मणिमपि च बालाय ददिवान् ॥२॥

शशंसुः सत्राजिद्गिरमनु जनास्त्वां मणिहरं

जनानां पीयूषं भवति गुणिनां दोषकणिका ।

ततः सर्वज्ञोऽपि स्वजनसहितो मार्गणपरः

प्रसेनं तं दृष्ट्वा हरिमपि गतोऽभूः कपिगुहाम् ॥३॥

भवन्तमवितर्कयन्नतिवयाः स्वयं जाम्बवान्

मुकुन्दशरणं हि मां क इह रोद्धुमित्यालपन् ।

विभो रघुपते हरे जय जयेत्यलं मुष्टिभि -

श्र्चिरं तव समर्चनं व्यधित भक्तचूडामणिः ॥४॥

बुद्ध्वाथ तन दत्तां नवरमणीं वरमणिं च परिगृह्णन् ।

अनुगृह्णन्नमुमागाः सपदि च सत्राजिते मणिं प्रादाः ॥५॥

तदनु स खलु व्रीडालोलो विलोलविलोचनां

दुहितरमहो धीमान् भामां गिरैव परार्पिताम् ।

अदित मणिना तुभ्यं लभ्यं समेत्य भवनपि

प्रमुदितमनास्तस्यैवादान्मणिं गहनाशयः ॥६॥

व्रीडाकुलां रमयति त्वयि सत्यभामां

कौन्तेयदाहकथयाथ कुरून् प्रयाते ।

ही गान्दिनेयकृतवर्मगिरा निपात्य

सत्राजितं शतधनुर्मणिमाजहार ॥७॥

शोकात् कुरूनुपगतामवलोक्य कान्तां

हत्वा द्रुतं शतधनुं समहर्षयस्ताम् ।

रत्ने सशङ्क इव मैथिलगेहमेत्य

रामो गदां समशिशिक्षत धार्तराष्ट्रम् ॥८॥

अक्रूर एषा भगवन् भवदिच्छयैव

सत्राजितः कुचरितस्य युयोज हिंसाम् ।

अक्रूरतो मणिमनाहृतवान् पुनस्त्वं

तस्यैव भूतिमुपधातुमिति ब्रुवन्ति ॥९॥

भक्तस्त्वयि स्थिरतरः । स हि गान्दिनेय -

स्तस्यैव कापथमतिः कथमीश जाता ।

विज्ञानवान् प्रशमवानहमित्युदीर्णं

गर्वां ध्रुवं शमयितुं भवता कृतैव ॥१०॥

यातं भयेन कृतवर्मयुतं पुनस्त -

माहूय तद्विनिहितं च मणिं प्रकाश्य ।

तत्रैव सुव्रतधरे विनिधाय तुष्यन्

भामाकुचान्तरशयः पवनेश पायाः ॥११॥

॥ इति स्यमन्तकोपाख्यानम् अशीतितमदशकं समाप्तम् ॥

भगवन् ! आपने एक लोभी व्यक्तिकी तरह सत्राजित्को सूर्यदेवसे प्राप्त हुई दिव्य स्यमन्तकमणिकी उनसे याचना की । निश्र्चय ही , इस मणि -याचनाके मुझे अनेक कारण प्रतीत हो रहे हैं । उन्हीं कारणोंमें एक कारण यह भी है कि सत्राजित्की कन्या सत्यभामाके साथ , जो आपमें ही निरत रहनेवाली थी , इसी मणि -याचनाके व्याजसे आप विवाह करना चाहते थे ॥१॥

परंतु संकीर्ण मनवाले सत्राजित्ने वह श्रेष्ठ मणि आपको नहीं दी । एक बार उसका छोटा भाई प्रसेन उस मणिको गलेमें धारण करके वनमें शिकार खेलनेके लिये गया । वहॉं उस मणिकी चमकमें मांसका भ्रम हो जानेके कारण एक सिंहने प्रसेनको मार डाला (अभी वह थोड़ी ही दूर गया था कि ) वानर -भालुओंके सरदार जाम्बुवान्ने सिंहको मारकर मणि छीन ली और उसे बच्चेको खेलनेके लिये दे दिया ॥२॥

इधर सत्राजित्की (कृष्णने मेरे भाईको मारकर मणि छीन ली है —— यह ) वाणी सुनकर लोग आपको ही मणिहर बतलाने लगे । गुणवानोंका लेशमात्र भी दोष लोगोंके लिये अमृत -सरीखा आस्वादनीय होता है । तत्पश्र्चात् आप सब कुछ जानते हुए भी कुछ स्वजनोंको साथ लेकर मणिकी खोजमें निकल पड़े । वनमें जाकर प्रसेन और उस सिंहको भी मरा हुआ देखकर आप कपि (ऋक्षराज )-की गुफामें गये ॥३॥

जाम्बवान् अत्यन्त वृद्ध हो चले थे , स्वयं उन्होंने आपको पहचाना नहीं । तब ‘मुकुन्दके शरणागत मुझको रोकनेके लिये कौन समर्थ हो सकता है ? विभो ! रघुपते हरे ! आपकी जय हो , जय हो । ’—— यों बारंबार कहते हुए उन भक्तचूड़ामणिने मुक्कोंद्वारा आपकी पूजा सम्पन्न की ॥४॥

तदनन्तर आपको पहचानकर उन्होंने अपनी कुमारी कन्या जाम्बवती और वह श्रेष्ठ मणि आपको प्रदान कर दी । उसे ग्रहण करके आप भक्तराज जाम्बवान्पर अनुग्रह करनेके पश्र्चात् द्वारका लौट आये और तुरंत ही वह मणि सत्राजित्को समर्पित कर दी ॥५॥

यह देखकर सत्राजित् लज्जासे आकुल हो गया । वह बुद्धिमान् तो था ही , उसने अपनी चञ्चल नेत्रोंवाली कन्या सत्यभामा , जिसका वाग्दान शतधन्वाके लिये हो चुका था , उस मणिके साथ आपको दे दी । परंतु आपने उस मणिसे प्राप्त होनेवाले सुवर्णको ही स्वीकार करके प्रसन्नमनसे वह मणि सत्राजित !को ही लौटा दी , ऐसा करनेमें आपका गम्भीर अभिप्राय था ॥६॥

तदनन्तर जब आप उस लज्जाशीला सत्यभामाके साथ सानन्द रहने लगे , फिर लोगोंके मुखसे कुन्तीपुत्रोंके लाक्षागृहमें जला दिये जानेका वृत्तान्त सुनकर आप कोरवोंकी राजधानी हस्तिनापुर चले गये , तब अक्रूर और कृतवर्माके कहनेसे शतधन्वाने सत्राजित्का वध करके वह मणि छीन ली । यह बड़े कष्टकी बात हुई ॥७॥

तब पितृ ‘वधसे शोकाविष्ट हो सत्यभामा हस्तिनापुर गयी । वहॉं अपनी प्रियतमाको आयी हुई देखकर आप तुरंत ही चल पड़े और शतधन्वाको मारकर उसका हर्ष बढ़ाया । परंतु मणिके विषयमें आपपर संदेह -सा करके बलरामजी द्वारका न लौटकर मिथिलानरेशके घर चले गये । वहीं उन्होंने दुर्योधनको गदा -युद्धकी शिक्षा दी ॥८॥

भगवन् ! आपकी इच्छासे ही इन अक्रूरने दुराचारी सत्राजित्का वध कराया था । आपने अक्रूरसे वह मणि नहीं ली । यह कार्य आपने अक्रूरके ऐश्र्वर्यको बढ़ानेके लिये ही किया था —— ऐसा लोग कहते हैं ॥९॥

ईश ! वे अक्रूर तो आपके दृढ़तर अनन्य भक्त थे , फिर उनको हिंसादि कुमार्गमें लगानेवाली बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? निश्र्चय ही , ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मनमें ‘मैं महान् विज्ञानी तथा प्रशान्त हूँ ’—— ऐसा गर्व उत्पन्न हो गया था , उसीका शमन करनेके हेतु आपने ही उनकी बुद्धिको प्रेरित कर दिया था ॥१०॥

आपके भयसे अक्रूर कृतवर्माके साथ विदेश चले गये थे । तब आपने उन्हें पुनः बुलवाया और शतधन्वाद्वारा उनके पास रखी हुई मणिको लेकर सबके सामने प्रकट कर दिया । पुनः उस मणिको उन उत्तम व्रतधारी अक्रूरके पास ही रखकर आप संतुष्ट हो गये । सत्यभामाके वक्षःस्थलपर शयन करनेवाले पवनेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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