अश्वाकार चक्र लिखकर अश्विनी आदि अठ्ठाईस नक्षत्र सृष्टिमार्गकरके स्थापित करै । मुख, नेत्र, कर्ण, मस्तक, पूंछ, अंघ्रि इनमें दो दो नक्षत्र धरै । उदर और पीठमें पांच पांच स्थापित करै, फिर जहां शनैश्चर स्थित हो तिसका फल कहै । मुखमें नेत्रमें कर्णमें मस्तकमें यदि शनैश्चर अश्वचक्रमें स्थित हो तो युद्धमें शत्रुका भंग होकर शत्रु वशमें आजावे और कर्णमें अंघ्रिमें पीठमें पूंछमें शनैश्चर हो तौ युद्धमें विभ्रम भंग हानि करे । अश्चचक्रमें इन स्थानोंमें स्थित शनैश्चर पट्टबंधमें यात्रामें युद्धमें वर्जित करना चाहिये । तुरंगचक्रमें अन्यत्र शनैश्चर जिस राजाके स्थित हो उसके शत्रुजन शंकासहित पृथ्वीपर विचरते हैं ॥१-६॥