जिसके जन्मकालमें मेष, कुंभ, धनु, तुला, सिंह, वृश्चिक ( १।११।९।७।५।८ ) इन राशियोंमें सब ग्रह पडैं तो हंसयोग होता है, ऐसे योगमें उत्पन्न हुआ मनुष्य राजाओंसे पूज्य राजाके समान होता है ॥१॥
जिसके जन्मलग्नमें दूसरे ( २ ) बारहवें ( १२ ) तथा लग्न ( १ ) से इतर स्थानमें सम्पूर्ण ग्रह स्थित हो तो वापीयोग होता है. ऐसा प्राचीन पंडितोंने कहा है ॥ वापीयोगमें पैदा हुआ मनुष्य बडी उमरवाला, अपने वंशमें प्रधान, सौख्यसहित, अत्यंत धीरजवाला, मनुष्य शोभायमान वाक्य, उत्तम मन, पुण्य कुँवा बावलीसे युक्त होता है ॥१॥२॥
जिसके जन्मकालमें लग्नसे, चतुर्थसे, सातवेंसे और दशवेंसे प्रत्येकसे आरंभ करके चारचर स्थानोंमें सम्पूर्ण ग्रहोंके स्थित होनेसे यथाक्रम यूप, शर, शक्ति और दंड ये चार योग होते हैं. जैसे लग्न, दूसरे, तीसरे, चौथे इन्हीं स्थानोंमें सम्पूर्ण ग्रह स्थित हों तो यूपयोग होता है और चौथे, पांचवें, छठे, सातवें ( ४।५।६।७ ) इन्हीं स्थानोंमें सम्पूर्ण ग्रह स्थित हों तो शरनाम ( इषुनाम ) योग होता है और सातवें ७ आठवें नववें ९ दशवें १० इन्हीं स्थानोंमें सम्पूर्ण ग्रह स्थित हों तो शक्तिनामयोग और दशवें १० ग्यारहवें ११ बारहवें १२ लग्न १ इन्हीं स्थानोंमें सम्पूर्ण ग्रह स्थित हों तो दण्डनाम योग होता है ॥३॥
जिस मनुष्यके जन्मकालमें यूपनाम होता है वह मनुष्य धीर, उदार, यज्ञ कर्मोंके अनुसार, अनेक विद्यासहित, अच्छा विचार करनेवाला, सदा लक्ष्मी ( धन ) से पूर्ण होता है ॥४॥
जिस मनुष्यके जन्मकालमें शरनाम योग होता है वह मनुष्य अत्यंत हिंसाका करनेवाला, चित्रकारीसे दुःखको प्राप्त, आनंदको प्राप्त, वनके अंततक शरका जाननेवाला, जो मनुष्य शरयोगमें उत्पन्न हो उसके जन्मसे आखिरतक सुख नहीं होता है ॥५॥
जिस मनुष्यके जन्मकालमें शक्तियोग होता है सो मनुष्य नीच, ऊंच मनुष्योंसे प्रीति करनेवाला, आलस्यसहित, सुख और धनकरके रहित, दुर्बल, विवादी एवं विशाल और स्थानका सुख थोडा होता है ॥६॥
जिसके जन्मकालमें दंडयोग होता है वह मनुष्य दीन, हीन, उन्मत्त, सुखको प्राप्त, दूत, वैर करनेवाला, गोत्रके अर्थात् भाई बंधुसे वैर करनेवाला, स्त्री पुत्र धनमित्रकरके रहित, बुद्धिहीन होता है ॥७॥
पूर्ववत् लग्नसे, चतुर्थ स्थानसे, सातवेंसे और दशवेंसे गणना कर प्रत्येकसे आरम्भ करके सात सात स्थानोंमें संपूर्ण ग्रहोंके स्थित होनेसे, १ नौका, २ कूट, ३ छत्र, ४ चाप ये चार योग होते हैं, यथा लग्न, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें इन्हीं स्थानोंमें संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो नौकायोग होता है. चतुर्थ स्थानसे लेकर दशम स्थानपर्यन्त संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो कूटनाम योग होता है. जो सप्तमस्थानसे लेकर लग्नपर्यन्त संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो छत्रनाम योग होता है, जो दशमस्थानसे लेकर लग्नपर्यन्त संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो छत्रनाम योग होता है, जो दशमस्थानसे लेकर चतुर्थ स्थानपर्यन्त संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो चापनाम योग होता है. इनसे जो अन्यराशिमें स्थित हों तो अर्द्धचन्द्रनामक योग. वह आठ प्रकारका होता है, जैसे - दूसरे स्थानसे लेकर अष्टम स्थान पर्यन्त जो संपूर्ण ग्रह पडैं तो एक योग. तीसरेसे नवम पर्यन्त द्वितीययोग. पंचमसे ग्यारहवें पर्यन्त तृतीययोग. ६ से १२ तक चतुर्थयोग. आठसे दो तक पंचमयोग. नौसे तीन तक षष्ठयोग. ग्यारहसे पांच तक सप्तमयोग और बारहवेंसे छठे तक सब ग्रह पडैं तो अष्टम योग. ये अर्द्धचन्द्रके भेद हैं ॥८॥
जो मनुष्य नौकायोगमें उत्पन्न होता है वह बडा लोभी और दुःखी और सुख भोगसे विहीन और चंचलस्वभाव होता है ॥९॥
जो मनुष्य कूट ( पर्वत ) योगमें उत्पन्न होता है वह किला - कोट - वनमें रहनेवाला, मल्ल और भिल्लजनोंसे प्रीति करनेवाला और निन्दितकर्ममें प्रीति रखनेवाला एवं धर्म और अधर्मके ज्ञानसे हीन होता है ॥१०॥
जो मनुष्य छत्रयोगमें उत्पन्न होता है वह बडा चतुर, राजकार्यमें बडा तत्पर और सर्वजनोंपर दयाभाव रखनेवाला, बाल्यावस्था और वृद्धावस्थामें अधिक सुख पानेवाला होता है ॥११॥
जो चाप ( कार्मुक ) योगमें उत्पन्न होय वह मनुष्य बाल्यावस्था वृद्धावस्थामें अधिक सुख पावै और वन पर्वतोंमें निवास करे और अहंकारयुक्त एवं धनुष और बाणका करनेवाला होता है ॥१२॥
जिसका जन्म अर्द्धचन्द्रयोगमें हो वह मनुष्य राजद्वारसे बडी प्रतिष्ठा पावै एवं उत्तम वस्त्र और आभूषणका लाभ होय और संपूर्ण धनसे परिपूर्ण रहै ॥१३॥
लग्नसे और धनभावसे एक एक स्थान अंतर देकर छः स्थानोंमें संपूर्ण ग्रह बैठे होंय तो चक्रयोग और समुद्रयोग होते हैं अर्थात् १।३।५।७।९ और ११ इन स्थानोंमें सब ग्रह पडैं तो चक्र और २।४।६।८।१०।१२ इनमें पडैं तो समुद्रयोग हता है. ग्रहोंके बैठनेसे इसके भेदमें विंशत् याने बीस २० योग होते हैं ॥१४॥
जिसके जन्मकालमें चक्रयोग पडैं उसकी बडी कीर्ति, सब जगतमें विख्यात होय और बडा प्रतापी, राजासे सन्मान पानेवाला, अधिक भाग्योदय होता है ॥१५॥
जिसके जन्मकालमें समुद्रयोग पडै वह मनुष्य राजकुलसे विविध प्रकारकी प्रतिष्ठा पावै, धन, मान, वैभवसमेत दानी, धीर, जवान उत्तम स्वभावसहित होता है ॥१६॥
सम्पूर्ण राजयोग प्राचीन आचार्योने कहे हैं, इन योगोंके अभावमें गोलयोग दो दो ग्रहोंके बैठनेसे होता है. तीन राशिमें ग्रहोके बैठनेसे शूलयोग होता है. चार घरमें सब ग्रहोंके बैठनेसे केदारयोग होता है, पांच स्थानोंमें बैठनेसे पाशयोग होता है, छः राशिमें बैठनेसे दामयोग होता है, सात स्थानमें बैठनेसे वीणा योग होता है ॥१७॥
जिस मनुष्यका जन्म गोलयोगमें होता है वह पुरुष विद्याहीन और पराक्रमविहीन और बडा परिश्रम करनेवाला और निरन्तर परदेशमें रहनेवाला होता है ॥१८॥
जिसके जन्मकालमें युगयोग पडैं वह मनुष्य पाखण्डी और खण्डित प्रीति करनेवाला और धर्म कर्मसे विहीन और निर्लज्ज धन पुत्र हीन, युक्तायुक्त ज्ञानसे रहित होता है ॥१९॥
जो मनुष्य शूलयोगमें उत्पन्न होता है वह युद्ध करनेमें वा कलह करनेमें बडा तत्पर और बडा शूरवीर, क्रूर, स्वभाव, निष्ठुर, धनसे विहीन और सब जनोंको शूलके सदृश दुःखदायी होता है ॥२०॥
जिसका जन्म केदारयोगमें हो वह मनुष्य धन्वाका धारण करनेवाला, सत्यवादी, धनी और विनीत, खेती करनेवाला, उपकारसे आदर पानेवाला होता है ॥२१॥
जो पाशयोगमें उत्पन्न होता है वह मनुष्य निरन्तर दुःखी, बुराई करनेमें तत्पर, बंधनकरके दुःखी, बडा कृपण, क्रोधसहित अनेक अनर्थ करनेवाला और जंगलमें उत्पन्नहुए जीवोंसे प्रीति करता है ॥२२॥
जिसके जन्ममें दामिनीयोग पडै वह मनुष्य आनंदसहित, पुत्रधनादि सौख्ययुक्त, उत्तमबुद्धिवाला ( विद्वन् पंडित ), आभूषण और खजाने करके सहित, संतोषको प्राप्त, उत्तमशीलस्वभाव, उदारबुद्धि, प्रशस्त और अच्छा होता है ॥२३॥
जिसका जन्म वीणायोगमें होता है वह मनुष्य धनसहित, शास्त्रका जाननेवाला, संगीत शास्त्रमें बडा प्रवीण, बहुत मनुष्योंका पालन करनेवाला, अनेक प्रकारके सुखका भोगनेवाला और कर्मकार्य करनेमें बडा प्रवीण होता है ॥२४॥
जो नाभसादियोग वर्णन किये हैं वह जन्मकुंडलीमें विचार करके जो पूर्वाचार्योने अनेक जातक ग्रंथोंमें वर्णन किये तिनको विचार ग्रहोंके बलाबलको देखकर फल कहना चाहिये ॥२५॥
क्षीणचन्द्रमा जिसके जन्मकालमें रात्रि अथवा दृश्यभागका पडै तो अरिष्ट जानना. एवं सूर्यके मंडलमें होकर दृश्यभागका स्थित हो तो सम फल जानना. यदि पूर्णचन्द्रमा हो तो पृथ्वीपतित्व तथा विनययुक्त करता है ॥२६॥
जिसके जन्मकालमें संपूर्ण सूर्यादिग्रह वामभागमें वाम २ क्रमसे सात स्थानमें पडैं तो दरिद्रयोग विना विचारे जानना ॥२७॥
ऋतुरेतके संपर्कसे विषमगति होय तो करसंपुटयोग जानना. ऐसे योगमें स्त्री अवश्यकरके बंध्या होती है ॥२८॥
जो ग्रह अपने मूलत्रिकोणमें या अपने क्षेत्रमें या अपने उच्चस्थानमें और परस्पर केंद्रमें बैठे होंय उनको मुनीन्द्रलोक कारक कहते हैं. इन चारों केन्द्रोंमें दशमभाव बलवान् होता है ॥ जिसके सूर्य मूर्तिमें सिंहराशिके या मेषराशिके बैठे अथवा सूर्य, शनैश्चर, मंगल, बृहस्पति केन्द्रमे परस्पर होयँ तो यह विशेषकारक होते हैं ॥ शुभ ग्रह जिसके लग्नमें होय अथवा चतुर्थ होय वा दशम स्थानमें हो तो वह ग्रह कारक होता है. जो ग्रह अपने उच्चस्थानमें या स्वक्षेत्रमें या मूलत्रिकोणमें हो उनकी भी मान प्रतिष्ठा अधिक और बहुत धनकी प्राप्ति होती है ॥२९-३१॥
जो नीचकुलमें भी उत्पन्न है और ग्रह उनके कारक हैं तो वे राजाके मंत्री होते हैं और जो राजाके कुलमें उत्पन्न भये हैं वे अवश्यकरके राजा होंगे ॥ जिसके लग्नसे धन स्थानमें शुभग्रह बैठे और जन्म लग्न अपने नवांशमें होय और चारों केंद्रमें शुभग्रह बैठे हों तो उसके घरमें लक्ष्मी निरन्तर निवास करै. बृहस्पति लग्नेश और चन्द्रकी राशिका स्वामी शीर्षोदय राशिमें स्थित होकर ये तीनों केन्द्रमें बैठें हों तो वह आरंभ मध्य और अंत्य अवस्थामें भाग्योदय करते हैं ॥३२-३४॥
जिसके जन्मकालमें लग्न वा सातवें स्थानमें सूर्यादि सब ग्रह पडैं तो शकट नाम योग होता है, ऐसे योगमें पैदाहुआ मनुष्य गाडीवान् अथवा गाडीसे आजीविका करनेवाला होता है ॥३५॥
दो दो ग्रह तीन जगह होंय और एक एक तीन जगह वा त्रिपु ६।८।१२ स्थानमें एक हो तो नंदायोग होता है. ऐसे योगमें पैदाहुआ मनुष्य बडी उमरवाला तथा सुखी होता है ॥३६॥
लग्नमें बृहस्पति, चतुर्थस्थानमें शुक्र, सातवें भावमें बुध और दशमभावमें मंगल जिसके जन्मकालमें ये ग्रह इस प्रकार केंद्रत्वको प्राप्त हों तो वे अच्छे फलको देनेवाले सर्वार्थदातारनामक योगसे प्रसिद्ध होते हैं ॥३७॥
जिसके जन्मकालमें कुंभ, मेष, मिथुन, धन, तुला, सिंह इन राशियोंमें संपूर्ण ग्रह पडैं तो राज्य स्थान सुखका देनेवाला राजहंसनामक योग होता है ॥३८॥
अब चिह्निपुच्छयोगसंबंधी फल कहते हैं - जिसके जन्मकालमें सिंहासन, हंस, दंड, मरुत्, ध्वज, चतुःसागरयोगोंमें चिह्निपुच्छ हो तो बहुत अच्छे फलको देता है. तुला, मकर, मेष, प्रथम लग्न अथवा और किसी लग्नमें तथा सिंहासन, डमरुयोग, मकर, कर्कराशिमें चिह्निपुच्छ अच्छा कहा है । राजहंसयोग मकर, कर्कराशिमें पुच्छ सुखदायक होता है. एवं कुंभ और मन्मथ ( सातवें ) राशिमें चिह्निपुच्छ जानना । मकर, कर्क और ध्वजमें पुच्छ एवं कन्या, वृश्चिक, वृष, मीनराशिमें क्षय हो तो चतुःसागरके गोचरमें चिह्निपुच्छयोग होता है । पूर्वोक्त योगोंसे उत्पन्न फलसे पुच्छयोग दूना फल करता है इस कारण किसीके मतसे यह योगाधियोग कहा है । घटशून्यलग्नमें चिह्निपुच्छयोग होय तो राजमंत्री, गाय, भैंस, घोडा, हाथीसे युक्त, नीतिका जाननेवाला व बहुपुत्रवान् मनुष्य होता है. यह किसीका मत है ॥३९-४५॥
जिसके जन्मकालमें चन्द्रमा अष्टम स्थानमें स्थित हो और सूर्य, शनि, शुक्र, चन्द्रमाके स्थानमें होकर बारहवें स्थित हों और पूर्ण केमद्रुमयोग होय तो लालाटिकयोग जानना । जिसके जन्मकालमें ललाटयोग होवे वह जन्महीसे कारीगरीकरके प्रसिद्ध, शिल्पादिकर्ममें प्रवीण, मूसलके आकारवाला, बहुत पुत्रोंवाला तथा जन्मांतरमें भी न जानेवाली अएक अलब्धियोंसे युक्त होता है ॥४६॥४७॥
जिसके जन्मसमयमें राहुयुक्त चन्द्रमा हो और उस चन्द्रमाको पापग्रहसहित बृहस्पति देखता ओ तो महापातकयोग होता है, ऐसे योगमें पैदाहुआ शुक्रके समान होनेपरभी महापातकी होता है ॥४८॥
जिसके जन्ममें मंगल जन्मलग्नको न देखता हो परंतु लग्नको सूर्य देखता हो और बृहस्पति शुक्रकी दृष्टि न होवै तो ऐसे योगमें वह मनुष्य बलवान् बैलकरके मारा जाता है ॥४९॥
जिसके ग्यारहवें स्थानमें चन्द्रमा और चन्द्रमाके स्थानमें सूर्य स्थित हो तो विशेषकरके पांचरात्रिहीमें यह योग फल करता है ॥५०॥
जिसके जन्मकालमें मदनयोग यदि हो और राहु लग्नको देखता हो तो शुक्रके समान होनेपरभी वृक्षसे गिरकर मरजावै ॥५१॥
जिसके जन्मकालमें छठे स्थानमें शुक्र और लग्नमें मंगल स्थित हो तो उत्तम मुनियोंने नासाच्छेदयोग कहा है ॥५२॥
जिसके जन्ममें चन्द्रमा शनिको देखै तो या शनि चन्द्रमाको देखता हो और सूर्य शुक्र लग्नमें स्थित हों तथा शुभग्रह न देखते हों तो ऐसे योगमें निःसन्देह कर्णच्छेद होता है ॥५३॥
जिसके जन्मकालमें शनैश्चर शुक्रसहित स्थित हो तथा शुक्र बृहस्पतिकरके सहित हो और शुभग्रह न देखते हों तो वह मनुष्य पादखंज होता है ॥५४॥
जिसके जन्ममें लग्नसे सातवें स्थानमें शनि, सूर्य, राहु ये तीनों स्थित हो तो वह शय्यापर सोताहुआ भी सर्पसे पीडित होता है ॥५५॥
जिसके जन्मसमयमें बृहस्पतिके स्थान ( धन ९ मीन १२ ) में बुध स्थित हो और शनैश्चर स्थान ( १०।११ ) में मंगल स्थित हो तो ऐसे योगमें वह मनुष्य पचीस वर्षकी अवस्थामें व्याघ्रकरके वनमें माराजाता है ॥५६॥
जिसके जन्मकालमें शुक्रके घर ( २।८ ) चन्द्रमा और चन्द्रमाके घर कर्कमें शनैश्चर स्थित हो तो ऐसे योगमें वह मनुष्य अट्ठाईसवें वर्षमें तलवारसे मृत्यु पाता है ॥५७॥
जिसके जन्मकालमें मंगल, शनि, सूर्य, राहुकरके युक्त नवम स्थानमें स्थित होय तथा शुभग्रहोंकी दृष्टि न होवे तो ऐसे योगमें वह मनुष्य तीरके लगनेसे मरता है ॥५८॥
जिसके जन्मकालमें मंगल सूर्यकरके सहित हो अथवा शनि, बृहस्पतिसे संयुक्त हो तो ऐसे योगमें वह अट्ठाईसवें वर्षमें ब्रह्मघाती होता है इसमें संशय नहीं ॥५९॥
जिसके जन्मकालमें चन्द्रमा सूर्यकी राशि ( सिंह ) में स्थित हो और बृहस्पति अपने स्थानमें होवे और सागरयोग लग्नमें पडै तो ऐसे योगमें उस मनुष्यके पांच सन्तान विनाश हो जाते हैं ॥६०॥
जिसके जन्मकालमें मीन, मेष, धन ( १२।१।९ ) इन तीनों स्थानोंमें संपूर्ण ग्रह स्थित हों तो राज्यका देनेवाला दोलायोग होता है । जिसके पापग्रहोंसे वर्जित बृहस्पति केन्द्र ( १।४।७।१० ) स्थानोंमें स्थित होवे तो वह मनुष्य सन्मान, दान वा गुणमें परिपूर्ण कलाओंका जाननेवाला, नृत्यगीतमें कौशल, मंत्री सम विवेकी होता है ॥६१॥६२॥
जिसके लग्नमें मंगल स्थित हो और शनैश्चर, सूर्य, राहु इन करके देखाजाता हो तो पदकविच्छेदयोग होता है. यदि शुक्रसमान क्यों न हो ॥६३॥
जिसके जन्मकालमें केन्द्र ( १।४।७।१० ) स्थानमें मंगल स्थित हो और सैहिकेय ( राहु ) सातवें स्थानमें पडै तो ऐसे योगमें वह मनुष्य सदा जब चाहै तब उसकी मृत्यु होवे ॥६४॥
जिसके जन्मकालमें लग्नसे सातवें चन्द्रमा स्थित हो और अष्टम स्थानमें पापग्रह स्थित हो एवं शुभग्रह लग्नमें विद्यमान हो तथा सूर्यभी लग्नमें स्थित हो एक मासके अन्तरमें बालक मरजाता है ( यह वर्ष नहीं है किन्तु मास मृत्युयोग है ॥६५॥