जयापञ्चमी
( भविष्योत्तर ) - यह व्रत कार्तिक शुक्ल पञ्चमीको किया जाता है । एतन्निमित्त तिलोद्वर्तनपूर्वक गङ्गदि तीर्थोंके स्मरणसहित शुद्ध स्त्रान करके शुद्धासनपर बैठकर भगवान् ' हरि ' का और उनके वाम भागमें ' जया ' का स्थापन करे । विविध प्रकारके गन्ध - पुष्पादिसे प्रीतिपूर्वक पूजन करे और हरिके चरण, घुटने, ऊरु, मेढ्र, उदर, वक्षःस्थल, कण्ठ, मुख अङ्गपूजा करके
' जयाय जयरुपाय जय गोविन्दरुपिणे । जय दामोदरायेति जय सर्व नमोऽस्तु ते ॥'
से अर्घ्य दे और बाँसके पात्रमें सप्तधान्य भरकर लाल वस्त्रसे ढँककर
' यथा वेणुफलं दृष्टा तुष्यते मधुसूदनः । तथा मेऽस्तु शुभं सर्वं वेणुपात्रप्रदानतः ॥'
से ब्राह्मणोंको दे फिर एक वस्त्रमें गन्ध, अक्षत, पुष्प, सरसों और दूर्वा रखकर ' रक्षापोटलिका ' तैयार करके
' येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वामनुबध्रामि रक्षे मा चल मा चल ॥'
से रक्षाबन्धन करे । इस व्रतके करनेसे ब्रह्महत्या - जैसे पापोंकी निवृत्ति होती है और सब प्रकारके सुख उपलब्ध होते हैं ।