मार्गपाली
( आदित्यपुराण ) - कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाको सायंकालके समय कुश या काँसका लम्बा और मजबूत रस्सा बनाकर उसमें जहाँ - तहाँ अशोक ( आशापाला ) के पत्ते गूँथकर बंदनवार बनवाये और राजप्रासादके प्रवेश - द्वारपर अथवा दरवाजेके आकारके दो अति उच्चस्तम्भोंपर इस सिरेसे उस सिरेतक बँधवा दे और गन्ध - पुष्पादिसे पूजन करके
' मार्गपालि नमस्तेऽस्तु सर्वलोकसुखप्रदे । विधेयैः पुत्रदाराद्यैः पुनरेहि व्रतस्य मे ॥'
से प्रार्थना करे । इसके बाद सर्वप्रथम नराधिप ( या बस्तीका कोई भी प्रधान पुरुष ) और राजपरिवार और उनके पीछे नगरके नर - नारी और हाथी, घोड़े आदि हर्षध्वनिके साथ जयघोष करते हुए प्रवेश करें और राजा यथास्थान स्थित होकर सौभाग्यवती स्त्रियोंके द्वारा नीराजन करायें और हो सके तो रात्रिके समय बलिराजाका पूजन करके
' बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो । भविष्येन्द्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ॥'
से प्रार्थना करे । जिस समय बलिने वामनभगवानके लिये तीन पैंड पृथ्वीके दानको पूर्ण करनेके लिये आकाश और पातालको दो पैंडमें मानकर तीसरे पैंडके लिये अपना मस्तक दिया, उस समय भगवानने कहा था कि ' हे दानवीर ! भविष्यमें इसी प्रतिपदाको तेरा पूजन होगा और उत्सव मनाया जायगा ।' इसी कारण उस दिन बलिका पूजन किया जाता है और करना चाहिये । ..... मार्गपाली और बलिकी पूजा करनेसे और विशेषकर मार्गपालीकी बंदनवारके नीचे होकर निकलनेसे उस वर्षमें सब प्रकारकी सुख - शान्ति रहती है और कई रोग दूर हो जाते हैं । .... अनेक बार देखनेमें आता है कि मनुष्योंमे जनपदनाशक महामारी और पशुओंमें बीमारी होती है, तब देहातके अनक्षर और साक्षर सामूहिकरुपमें सलाह करके सन, सूत या खींपका बहुत लम्बा रस्सा बनवाकर उसमें नीमके पत्ते गूँथ देते हैं और बीचमें ५ या ७ पाली नीचे - ऊपर लगाकर उसको गाँवमें प्रवेश करनेकी जगह बाँध देते हैं । ताकि उसके नीचे होकर निकलनेवाले नर - नारी और पशु ( गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि ) रोगी नहीं होते और सालभर प्रसन्न रहते हैं ।