सतगुरु है सत पुरुष अकेला, पिंड ब्रह्माण्डके बाहर मेला ॥
दूरतें दूर, ऊँचतें ऊँचा, बाट न घाट गली नहिं कूचा ॥
आदि न अंत मध्य नहिं तीरा, अगम अपार अति गहिर गँभीरा ॥
कच्छ दृष्टि तहँ ध्यान लगावै, पलमहँ कीट भृंग होइ जावै ॥
जैसे चकोर चंदके पासा, दीसै धरती बसै अकासा ॥
कह 'यारी' ऐसे मन लावै, तब चातक स्वाँती-जल पावै ॥